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________________ अङ्ग आगमों के विषयवस्तु-सम्बन्धी उल्लेखों का तुलनात्मक विवेचन - ६१ उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी ये दोनों १० कोडाकोड़ी सागर प्रमाण होने से इनमें काल समवाय है। (घ) भाव समवाय-क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन, यथाख्यात चारित्र ये सब अनन्त विशुद्धिरूप होने से भाव समवाय वाले हैं। २. धवला में'-समवायाङ्ग में १ लाख ६४ हजार पदों के द्वारा सभी पदार्थों के समवाय का कथन है । समवाय ४ प्रकार का है-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । जैसे --- (क) द्रव्य समवायधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीव के प्रदेश परस्पर समान हैं। (ख) क्षेत्र -सीमन्तक नरक ( प्रथम इन्द्रक बिल ), मानुष क्षेत्र, ऋजु विमान (सौधर्म इन्द्र का पहला इन्द्रक) और सिद्धलोक ये चारों क्षेत्र की अपेक्षा समान हैं। (ग) काल समवाय-एक समय दूसरे समय के समान है और एक महर्त दूसरे महर्त के समान है। (घ) भाव समवाय-केवलज्ञान और लदर्शन समान हैं क्योंकि ज्ञेयप्रमाण ज्ञान-मात्र में चेतना शक्ति की उपलब्धि होती है। ३. जयधवला में ..- समवायाङ्ग में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों के समवाय का वर्णन है । शेष कथन प्रायः धवला के समान है ४. अङ्गप्रज्ञप्ति में -समवायाङ्ग में १ लाख ६४ हजार पद हैं। संग्रहनय से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों की अपेक्षा पदार्थों के सादृश्य का कथन है । शेष कथन प्रायः धवला के समान है। (ग) वर्तमान रूप यह अङ्गग्रन्थ भी स्थानाङ्ग की शैली में लिखा गया कोश ग्रन्थ है। इसमें १ से वृद्धि करते हुए १०० समवायों का वर्णन है। एक प्रकीर्ण समवाय है जिसमें १०० से आगे की संख्याओं का समवाय बतलाया गया है। इसके अन्त में १२ अङ्ग ग्रन्थों का परिचय दिया गया है जो नन्दीसूत्रोक्त श्रुतपरिचय से साम्य रखता है। जिससे इसके कुछ अंशों की परवर्तिता सिद्ध होती है। (घ) तुलनात्मक समीक्षा _ दिगम्बर और श्वेताम्बर ग्रन्थों में बतलाई गई इसकी पदसंख्या में कुछ अन्तर है । दिगम्बरों के सभी ग्रन्थों में इस ग्रन्थ का विषय एक जैसा बतलाया है। उदाहरण में यत्किञ्चित् अन्तर है । समवायाङ और नन्दी में १०० समवायों तथा श्रतावतार का उल्लेख है जो वर्तमान आगम में देखा जाता है। वर्तमान आगम में एक प्रकीर्ण समवाय भी है जिसमें १०० से अधिक के समवायों का कथन है। विधिमार्गप्रपा में अध्ययनादि के विभाजन का निषेध है। उसमें १०० समवाय और श्रुतावतार का भी उल्लेख नहीं है जो चिन्त्य है। दिगम्बर ग्रन्थों में भी १०० समवाय तथा श्रुतावतार का उल्लेख नहीं है। वहाँ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से ४ प्रकार के समवाय द्वारा सभी पदार्थों के विवेचन का निर्देश है। इस तरह उपलब्ध आगम की शैली दिगम्बर-ग्रन्थोक्त शैली से भिन्न है। उपलब्ध आगम को शैली उपलब्ध स्थानाङ्ग जैसी (संग्रह-पधान ) हो है। वस्तुतः स्थानाङ्ग और समवायाङ्ग की शैली में अन्तर होना चाहिए था। दिगम्बर ग्रन्थोक्त स्थानाङ्ग और समवायाङ्ग की शैलो में अन्तर है। दिगम्बर ग्रन्थोक्त स्थानाङ्ग और समवायाङ्ग की दो शैलियों से उपलब्ध स्थानाङ्ग और समवायाङ्ग की शैली भिन्न प्रकार की है। १. धवला० १.१.२, पृ० १०२. २. जयधवला गाथा १, पृ० ११३. ३. अङ्गप्रज्ञप्ति गाथा २९-३५, पृ० २६३-२६४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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