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________________ अङ्ग आगमों के विषयवस्तु-सम्बन्धी उल्लेखों का तुलनात्मक विवेचन - ६३ २. धवला में'- इसमें २ लाख २८ हजार पदों के द्वारा क्या जीव है ? क्या जीव नहीं है ? इत्यादि रूप से ६० हजार प्रश्नों के व्याख्यान हैं। ३. जयधवला में- इसमें ६० हजार प्रश्नों तथा ९६ हजार छिन्नच्छेदों से जनित शुभाशुभों का वर्णन है। ४. अङ्गप्रज्ञप्ति में३-इसे मूल गाथा में "विवायपण्णत्ति" कहा है तथा इसकी संस्कृत छाया में "विपाकप्रज्ञप्ति" कहा है। इसमें जीव है, नहीं है, नित्य है, अनित्य है आदि ६० हजार गणि प्रश्न हैं। पदसंख्या २२८००० है। (ग) वर्तमान रूप इसमें गौतम गणधर प्रश्नकर्ता हैं तथा भगवान महावीर उत्तर प्रदाता हैं। इस शैली का स्पष्ट उल्लेख तत्त्वार्थवार्तिक में मिलता है -“एवं हि व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकेषु उक्तम्"इति गौतमप्रश्ने भगवता उक्तम्"। इस ग्रन्थ का प्रारम्भ मंगलाचरण पूर्वक होता है। ऐसा किसी अन्य अङ्ग ग्रन्थ में नहीं है। प्रारम्भ के २० शतक प्राचीन हैं। वेबर के अनुसार बाद के २१ शतक पीछे से जोड़े गए हैं। रायपसेणीय, पन्नवणा आदि अङ्ग बाह्य ग्रन्थों के भी उल्लेख इसमें मिलते हैं। भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यों की भी चर्चा है। जयन्ति श्राविका का भी कथन है। इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति गणधरों के तो नाम हैं परन्तु सुधर्मा गणधर का नाम नहीं है। पौधे, लेश्या, कर्मबन्ध, समवसरण, त्रेता, द्वापर, कलियग, ब्राह्मी-लिपि आदि का वर्णन है। __ व्याख्यात्मक कथन होने से इसे व्याख्याप्रज्ञप्ति कहते हैं तथा पूज्य और विशाल होने से इसे "भगवती" भी कहते हैं। (घ) तुलनात्मक विवरण इसके पद प्रमाण के सम्बन्ध में दिगम्बर प्रन्थों में तो एकरूपता है, परन्तु श्वेताम्बरों के समवायाङ्ग और नन्दीसूत्र में एकरूपता नहीं है। इस तरह पदप्रमाण के सम्बन्ध में ३ मत हैं(१) दिगम्बर ग्रन्थों का, (२) समवायाङ्ग का और (३) नन्दीसूत्र का। नन्दी में आचाराङ्ग से व्याख्याप्रज्ञप्ति तक स्पष्ट रूप से क्रमशः दुगुना-दुगुना पद-प्रमाण बतलाया गया है; परन्तु समवायाङ्ग में यहाँ ऐसा नहीं किया गया है। समवायाङ्ग में दो स्थानों पर पदसंख्या उल्लिखित हई है और दोनों स्थानों पर ८४ हजार पद बतलाए हैं। प्रश्नों के उत्तरों की संख्या के सन्दर्भ में भी ३ मत मिलते हैं-(१) श्वेताम्बर ग्रन्थों में ३६ हजार, (२) तत्त्वार्थवार्तिक, धवला और अङ्गप्रज्ञप्ति में ६० हजार और (३) जयधवला में ६० हजार प्रश्नोत्तरों के साथ ९६ हजार छिन्नच्छेद । वर्तमान १. धवला १.१.२, पृ० १०२. २. जयधवला गाथा १, पृ० ११४. ३. अङ्गप्रज्ञप्ति गाथा ३६-३८, पृ० २६४. ४. तत्त्वार्थ० ४.२६. ५. जैन साहित्य इ० पूर्वपीठिका , पृ० ६५७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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