SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 382
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन संघ में भिक्षुणियों की शील-सुरक्षा का प्रश्न १०७ इसके अतिरिक्त भिक्षुणियों के शील-रक्षा का उत्तरदायित्व भिक्षु-संघ पर भी था। उनके शील-रक्षा के निमित्त महाव्रतों का उल्लंघन भी किसी सीमा तक उचित मान लिया गया था। संघ का यह स्पष्ट आदेश था कि भिक्षुणी की शील-रक्षा के लिये भिक्षु हिंसा का भी सहारा ले सकते थे। निशीथ चूर्णि' के अनुसार यदि कोई व्यक्ति साध्वी पर बलात्कार करना चाहता हो, आचार्य अथवा गच्छ के वध के लिए आया हो, तो उसकी हत्या की जा सकती है। इस प्रकार की हिंस करने वाले को पाप का भागी नहीं माना गया था, अपितु विशुद्ध माना गया था । मन्त्रों एवं अलौकिक शक्तियों के प्रयोग के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार के उदाहरण द्रष्टव्य हैं। कालकाचार्य ने अपनी भिक्षणी बहन को छडाने के लिये विद्या एवं मन्त्र का प्रयोग किया था एवं विदेशी शकों : सहायता ली थी। इसी प्रकार शशक एवं भसक नामक जो भिक्षुओं का उल्लेख मिलता है, जो अपनी रूपवती भिक्षुणी बहन सुकुमारिका की हर प्रकार से रक्षा करते थे। एक यदि भिक्षा को जाता था तो दूसरा सुकुमारिका की रक्षा करता था। इस प्रकार हम देखते हैं कि महाव्रतों एवं आचार के सामान्य नियमों को भंग करके भी जैन संघ भिक्षुणियों की रक्षा का प्रयत्न करता था। इसके मूल में यह भावना निहित थी कि संघ के न रहने पर वैयक्तिक साधना का क्या महत्त्व हो सकता है। वैयक्तिक साधना तभी तक सम्भव है, जब तक कि संघ का अस्तित्व है। अतः साध्वी की रक्षा एवं उसकी मर्यादा को अक्षुण्ण रखने के लिये महाव्रतों की विराधना को भी किसी सीमा तक उचित माना गया। ब्रह्मचर्य के मार्ग में आने वाली कठिनाई के निवारण के लिये जैनाचार्यों ने प्रारम्भ से ही प्रयत्न किया था। संघ में स्त्री-पुरुष के प्रवेश के समय से अर्थात् दीक्षा काल से ही इसकी सूक्ष्म छानबीन की जाती थी। संघ का द्वार सबके लिये खुला होने पर भी कुछ अनुपयुक्त व्यक्तियों को उसमें प्रवेश की आज्ञा नहीं थी। ऋणी, चोर, डाकू, जेल से भागे हुए व्यक्ति, क्लीव, नपुंसक को दीक्षा देने की अनुमति नहीं थी। जैनाचार्यों को सबसे अधिक भय नपुंसकों से था। नपुंसकों के प्रकार, संघ में उनके द्वारा किये गये कुकृत्यों का विस्तृत वर्णन बृहत्कल्प भाष्य एवं निशीथ चूणि४ में मिलता है। इन ग्रन्थों के अध्ययन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि जैनाचार्य नपुंसकों के लक्षणों का पूरा ज्ञान रखते थे। नपुंसक ऐसी अग्नि के समान माने गये थे जो प्रज्वलित तो जल्दी होती है, परन्तु रहती देर तक है" ( नपुंसकोवेदो महानगरदाहसमाना )। उनमें उभय वासना की प्रवृत्ति होता है। वखा-पुरुष दोनों को काम-वासना का आनन्द लेते है। इस कारण वे स्त्री-पुरुष दोनों की काम-वासना को प्रदीप्त करने वाले होते हैं। इनके कारण समलैंगिकता ( Homose mosexuality) को प्रोत्साहन मिलता है और भिक्षु-भिक्षणियों का चारित्रिक पतन होता है। अतः यह प्रयत्न किया गया था कि ऐसे व्यक्ति संघ में किसी प्रकार प्रवेश न पा सकें। इन सभी सावधानियों के बावजूद कोई न कोई भिक्षुणी समाज के दुराचारी व्यक्तियों के जाल में फँस जाती थी। ऐसी परिस्थिति में उन्हें सलाह दी गई थी कि वे चर्मखण्ड, शाक के पत्ते, १. निशीथ भाष्य, गाथा, 289 । २. बृहत्कल्पभाष्य, भाग पंचम, 5254-59, पृ० 1397 । ३. वही , 5139-64, पृ० 1368-1373 । ४. निशीथ भाष्य, भाग तृतीय, गाथा 3561-3624 पृ० 240-254 । ५. बृहत्कल्पभाष्य, भाग पंचम, 5148-टीका पृ० 1370 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy