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________________ अरुण प्रताप सिंह दर्भ तथा हाथ से अपने गुप्तागों की रक्षा करें।' इतनी सावधानी रखने पर भी उस पर बलात्कार कर दिया जाता था और गर्भाधान हो जाता था। इस अवस्था में जब साध्वी का स्वयं का कोई दोष न हो, जैन संघ सच्ची मानवता के गुणों से युक्त होकर रक्षा करता हुआ उसकी सभी अपेक्षित आवश्यकताओं की पूर्ति करता था। न तो वह घृणा की पात्र समझी जाती थी और न उसे संघ से बाहर निकाला जाता था। उसे यह निर्देश दिया गया था कि ऐसी घटना घटने के बाद सर्व. प्रथम वह आचार्य या प्रतिनी से कहे। वे या तो स्वयं उसकी देखभाल करते थे या गर्भ ठहरने की स्थिति में उसे किसी श्रद्धावान श्रावक के घर ठहरा दिया जाता था। ऐसी भिक्षुणी को निराश्रय छोड़ देने पर आचार्य को भी दण्ड का भागी बनना पड़ता था। भिक्षुणी को भिक्षा के लिए नहीं भेजा जाता था, अपितु दूसरे साधु एवं साध्वी उसके लिए भोजन एवं अन्य आवश्यक वस्तुएँ लाते थे। ऐसी भिक्षुणी की आलोचना करने का किसी को अधिकार नहीं था। इस दोष के लिए जो उस पर ऊँगली उठता था या उसकी हँसी उड़ाता था, वह दण्ड का पात्र माना जाता था। इसके मूल में यह भावना निहित थी कि ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में उसकी आलोचना करने पर वह या तो निर्लज्ज हो जायेगी या लज्जा के कारण संघ छोड़ देगी। दोनों ही स्थितियों में उसका भावी जीवन के संकटपूर्ण होने तथा संघ की बदनामी का भय था। इस कारण उसके साथ सहानुभूति पूर्वक व्यवहार किया जाता था। इसके मूल में यह सूक्ष्म मनोवैज्ञानिकता थी कि बुरे व्यक्ति भी अच्छे बन सकते हैं और कोई कारण नहीं है कि एक बार सत्पथ से विचलित हुई भिक्षुणी को यदि सम्यक् मार्गदर्शन मिले तो वह सुधर नहीं सकती है। निशीथभाष्य में कहा गया है कि क्या वर्षाकाल में अत्यधिक जल के कारण अपने किनारों को तोड़ती हुई नदी, बाद में अपने रास्ते पर नहीं आ जाती है और क्या अंगार का टुकड़ा बाद में शान्त नहीं हो जाता है ? इस सम्बन्ध में जैनाचार्यों ने सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि का परिचय दिया है । यह परिकल्पना की गई कि यदि मनुष्य हमेशा कार्य में लगा रहे तो बहुत कुछ अंशों में काम पर विजय पाई जा सकती है। निशीथ चूणि में गाँव की कामातुर एक सुन्दर युवती का दृष्टान्त देकर उपर्युक्त मत को समझाने की सफल चेष्टा की गई है। वह सुन्दर युवती जो पहले अपने रूप-रंग एवं साज-शृंगार में व्यस्त रहती थी-कार्य की अधिकता के कारण काम-भावना को ही भूल जाती है, क्योंकि घर के सामान के रख-रखाव की जिम्मेदारी उसे सौंप दी गई थी। इस प्रतीकात्मक कथा के माध्यम से संघ के सदस्यों को यह सुझाव दिया गया था कि वे हमेशा ध्यान एवं अध्ययन में लीन रहें तथा मस्तिष्क को खाली न रखें। दिगम्बर साहित्य में भिक्षुणियों के शील सम्बन्धी नियम : जैनों के दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थों में भी भिक्षुणियों की शील-सुरक्षा के सम्बन्ध में अत्यन्त सतर्कता बरती गई थी। भिक्षुणियों को कहीं भी अकेले यात्रा करने की अनुमति नहीं थी। उन्हें १. खंडे पत्ते तह दब्भचीवरे तह य हत्थपिहणं तु, अद्धाणविवित्ताणं-आगाढं सेसऽणागाढं । -बृहत्कल्पभाष्य, भाग तृतीय, 2986, पृ० 843 । २. उम्मग्गेण वि गंतु, ण होति किं सोतवाहिणी सलिला, कालेण फुफुगा वि य, विलीयते हसहसेउणं'। -बृहत्कल्पभाष्य, भाग चतुर्थ, 4147 पृ० 1128 । ३. निशीथ भाष्य, भाग द्वितीय, गाथा, पृ०21 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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