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________________ अरुण प्रताप सिंह डण्डे से पीटती थीं। पहले वृद्धा भिक्षुणी ( स्थविरा), फिर युवती भिक्षुणी, फिर वृद्धा-इस क्रम से वे अपने शील की रक्षा के लिए व्यूह रचना करती थीं। अनावृत द्वार वाले उपाश्रय में भिक्षुणियों को जोर-जोर से पढ़ने के लिए कहा गया था। उपर्युक्त विवेचन से ऐसा प्रतीत होता है कि कभी दुराचारी पुरुष स्त्री-वेष धारण कर भिक्षुणियों के उपाश्रय में पहुँच जाते थे। इसके निराकरण हेतु हो यह व्यवस्था की गयी थी। इसके अतिरिक्त ऐसे उपाश्रयों या शून्यागारों में भिक्षु को भी बाहर से साध्वियों की रक्षा करने को कहा गया था। युवती साध्वी की सुरक्षा का विशेष ध्यान रखा जाता था । उपाश्रय में पहले वृद्धा (स्थविरा) भिक्षुणी, फिर तरुणी भिक्षुणी, उसके पश्चात् पुनः वृद्धा भिक्षुणी, फिर तरुणी भिक्षुणी, इस क्रम से उनके शयन करने का विधान था | इसका तात्पर्य यह था कि प्रत्येक युवती भिक्षुणी के आस-पास वृद्धा भिक्षुणियाँ शयन करें ताकि उसके शील को सुरक्षा की सुदृढ़ व्यवस्था रहे । उपाश्रय में भिक्षुणी को कभी अकेला नहीं छोड़ा जाता था। गच्छाचार के अनुसार गच्छ में रहने वाली साध्वी रात्रि में दो कदम भी बाहर नहीं जा सकती थी। उन्हें आहार, गोचरी या शौच के लिये भी अकेले जाना निषिद्ध था ।४ वस्त्र के सम्बन्ध में अत्यन्त सतर्कता रखी ज थी। बृहत्कल्पभाष्य तथा ओघनियुक्ति में भिक्षुणियों द्वारा धारण किये जाने वाले ग्यारह वस्त्रों का उल्लेख है। रूपवती साध्वियों को "खज्जकरणी" नामक वस्त्र धारण करने की सलाह दी गई थी ताकि वे कुरूप सी दीखने लगें।" भिक्षुणियाँ अपने प्रयोग के लिये डण्ठल युक्त तुम्बी तथा डण्डेवाला पाद पोंछन नहीं रख सकती थी। इसी प्रकार भोजन में अखण्ड केला आदि ( तालप्रलम्ब) ग्रहण करना निषिद्ध था । यह विश्वास किया गया था कि इस प्रकार के लम्बे फलों के फलक को देखकर भिक्षुणियों में काम-वासना उद्दिप्त हो सकती है। भिक्षुणियों के लिये पुरुष स्पर्श सर्वथा निषिद्ध था । अपवाद अवस्था में भी उन्हें यह निर्देश दिया गया था कि पुरुष-स्पर्श से उद्भूत आनन्द का आस्वाद न लें । साध्वी को बीमारी से कमजोर हो जाने के कारण या कहीं गिर जाने के कारण यदि पिता-भ्राता-पुत्र अथवा अन्य कोई पुरुष उठावे तो ऐसे पुरुष-स्पर्श को पाकर अथवा मल-मूत्र का त्याग करते समय यदि पशु-पक्षी उसके अंगों को छू लें तो ऐसे स्पर्श को पाकर, उससे उत्पन्न काम-वासना के आनन्द से विरत रहने को कहा गया था; अन्यथा उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित्त के दण्ड का भागी बनना पड़ता था। संक्षेप में भिक्षुणियों को यह कठोर निर्देश दिया गया था कि वे किसी भी परिस्थिति में पुरुष के स्पर्श का आनन्द या आस्वाद न लें। १. "बहिरक्खियाउवसहेहि" -बृहत्कल्पभाष्य, भाग तृतीय, 2324, पृ० 6 58 । २. गच्छाचार, 123, पृ० 52 । ३. वही, 108, पृ० 46। ४. बृहत्कल्प सूत्र, 5/16-17, पृ० 149 । ५. "खुज्जकरणी उ कीरइ रूववईणं कुडहहेउं"-ओघनियुक्ति, 319 । ६. बृहत्कल्प सूत्र, 5/38-44, पृ० 153-155 । ७. वही, 1/1, पृ० 1 । ८. वही 4/14, पृ० 138 । ९. वही, 5/13-14, पृ० 147-148 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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