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________________ आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की खगोल विद्या एवं गणित सम्बन्धी मान्यताएँ ! आधुनिक सन्दर्भ में लक्ष्मीचन्द्र जैन "इस बिन्दु पर एक उलझन स्वयं आ खड़ी होती है, जो सभी युगों में शंकित मस्तिष्कों को प्रेरणा प्रदान करती रही है। यह किस प्रकार सम्भव है कि गणित, अनुभूति द्वारा स्वतन्त्र मानवीय विचारों की अन्ततः उपज होते हुए भी, वस्तुओं की वास्तविकता से इतना प्रशंसनीय रूप से उपयुक्त सिद्ध हुआ है ? तब क्या मानवीय न्याय बुद्धि, बिना अनुभव के, केवल विचारों के सहारे, वास्तविक वस्तुओं के गुणों को गहराई नापने में समर्थ है ?'' -अलबर्ट आइन्स्टाइन' आचार्य नेमिचन्द्र को इस तथ्य का सर्वाधिक श्रेय है कि उन्होंने ग्यारहवीं सदी में आगे आने वाली पीढ़ियों को जैन धर्म की सारभूत कर्म सिद्धान्त विषयक अपार सामग्री के बचे हुए अंश के गणितीय विवेचन को सूत्रबद्ध रचनाओं में पिरो दिया। निस्सन्देह, उनके समक्ष उनके पूर्ववर्ती आचार्यों के न केवल मौलिक ग्रन्थ वरन् उन पर रची गईं विशाल टीकाएँ भी उपस्थित रही होंगी और उन्हीं के आधार पर वे अतीव आत्मविश्वास के साथ घोषणा कर सके . जह चक्केण य चक्की छक्खंड साहियं अविग्घेण । तह मइचक्केण मया छक्खंडं साहियं सम्मं ॥ सूत्रबद्ध की गई उनकी रचनाएँ अपने आप में परिपूर्ण, क्रमबद्ध, सरलता से ग्राह्य, संस्थोपयोगी एवं ऐतिहासिक बन पड़ीं। उनमें परम्परागत ज्ञान सामग्री भरपूर आ गई, जो सभी मतों से विलक्षण थी। जहाँ तक न्यायगत पक्ष थे वे तो तुलना की वस्तु बन गये और भारतीय न्याय के अनेक मतों से सीधी टक्कर में आ गये किन्तु नेमिचन्द्राचार्य द्वारा चुनी एवं रची हुई सामग्री सीधी गणितीय थी, विश्वरचना सम्बन्धी तथा सूक्ष्मतम जगत् के रहस्यों से भरी हुई विलक्षण थी, इसलिये वह अपने आप में भारतीय अन्य मतों से अथवा विश्व के अन्य मतों से विलग पनपती चली आई। हम इस सामग्री की तुलना क्रम से करते चलेंगे और देखेंगे कि ग्यारहवीं सदी के इस ज्ञान सामग्री के क्या मायने थे, क्या उपयोगिता थी और उससे आगे की पीढ़ी किस प्रकार प्रभावित हो सकती थी। इसके पूर्व हम उनकी रचनाओं का परिचय प्राप्त करेंगे और समसामयिक परिस्थितियों का भी अवलोकन करेंगे। १. आइडियाज़ एण्ड ओपिनिअन्स, लन्दन १९५६ । २. गोम्मटसार, गा० ३९७ क० का० । ३. देखिए, लक्ष्मीचन्द्र जैन, “आगमों में गणितीय सामग्री तथा उसका मूल्यांकन", तुलसी प्रज्ञा, जै० वि० भा०, खंड ६, अंक ९, १९८० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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