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________________ आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की खगोल विद्या एवं गणित सम्बन्धी मान्यताएँ खगोलविद्या खगोल शब्द ही कुछ ऐसे तथ्यों का द्योतक है, जिनका सम्बन्ध अन्तरिक्ष की गहराईयों और विश्वसंरचना की इकाईयों से है । कोई भी वस्तु कहां स्थित है, कब से स्थित है, किस दशा में है, उसकी विगत दशा क्या थी, अनागत दशा क्या होगी और दशा परिवर्तन का कारण क्या हैये प्रश्न स्वाभाविक होते हैं, हर युग के विचारकों को सर्वप्रिय होते हैं और उनकी खोज कभी नहीं मिटती है । उनके हल करने में विचारक का क्या उद्देश्य होता है, यह भी महत्त्वपूर्ण बात है । यदि वह इन प्रश्नों को किसी सीमा तक हल कर लेगा तो उसका उद्देश्य किस अनुपात तक सफल होगा, यह भी गणना कार्यकारी होती है । उपर्युक्त प्रश्नों को लेकर सबसे बड़ी क्रान्ति यूनान, भारत तथा चीन एवं गौण रूप से इसके आस-पास के देशों में दृष्टिगत होती है । विश्व के सभ्यता वाले इन क्षेत्रों में एक विचित्र उत्सुकता जगी कि विश्व की घटनाओं का सम्पादन कैसे होता है- - क्या कोई कार्य या घटना अथवा क्रिया के पीछे दैवी, आधिदैविक शक्तियाँ होती हैं, जिन पर नियंत्रण करने के लिए उन्हें प्रसन्न करना होता है ? अथवा कोई देवादि के अप्रसन्न होने से अनिष्टकारी घटनाएं होती हैं, जिन पर मानव का कोई नियंत्रण नहीं होता है ? ८३ जैन धर्म में इस नियंत्रण - योग्यता का बड़ी गहराई से अध्ययन हुआ । सभी घटनाओं को, जो पुद्गल ( matter ) से सम्बन्धित थीं, उन्हें कारणता नियम ( law of causation ) के अन्तर्गत बांधा गया । न केवल पुद्गल के बीच यह नियम लागू था, वरन् पुद्गल और जीव के बीच यह नियम कर्म के अधीन तथा कुछ और भी भावों के अधीन बांधा गया । विज्ञान की ओर बढ़ने का यह प्रयास और भी विश्व सभ्यताओं में परिलक्षित होता है । वास्तव में यह कारणता नियम तभी सार्थक होता है, जब विगत, वर्तमान और अनागत की तारतम्यता घटनाओं के बीच का सम्बन्ध राशि रूप में परिमाण पुंज रूप में तथा गणितीय कलन रूप में ठीक-ठीक व्यवस्थित किया जाता है । वैज्ञानिक अथवा उसके समूह की सफलता का आधार यही रहा है । इसके पूर्व कि हम नेमिचन्द्राचार्यं की मान्यताओं पर प्रकाश डालें, यह आवश्यक है कि विश्व की खगोलविद्या सम्बन्धी जानकारी का संक्षिप्त परिचय दिया जाये । इस जानकारी को प्राप्त करने के साधन अब अतुलनीय हैं। सूक्ष्मवीक्षण यन्त्र, दूरवीक्षण यन्त्र, रडार, लेसर, मेसर प्रक्षेप यन्त्र, स्पुतनिक अथवा प्रसिद्ध उपग्रह जो अणुशक्ति से संचालित होते हैं, इत्यादि यन्त्र जो गाइजर काउंटर, कम्प्यूटर्स आदि गणक यन्त्रों से विभिन्न प्रकार से अध्ययन की विशाल सामग्री प्रस्तुत कर रहे हैं । शोध के अभिलेख कुछ ही क्षणों में विश्व के एक भाग से दूसरे भाग में सूचित किये जा रहे हैं । इन सभी के पीछे उन वैज्ञानिकों का इतिहास है, जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन कारणता के नियमों का शोध करने, अन्वेषणों द्वारा उन्हें स्थापित करने में समर्पित कर दिया । विज्ञान की जागृति का प्रथम प्रयास थेलीज़ ( ई० पू० ६०० ) द्वारा प्रस्तुत होता है, जबकि वे गणना द्वारा यूनान ग्रहण के लगने का समय बतलाते हैं । यहाँ देवताओं की शक्ति के मत के लिए चुनौती प्रस्तुत होती है । पाइथागोरस ( ई० पू० ५४० ) विश्व में जीवों की संख्या नियत बतलाते हैं और चदुचंकमण ( tetractys ) से छूटने हेतु मांस भक्षण-निषेध एवं अहिंसा की प्रतिष्ठा करते हैं तथा हरी फलियों को भी जीवधारी मानकर भोजन की वस्तु नहीं मानते हैं । हर वस्तु और घटना को वे संख्या से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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