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________________ दशरूपक और नाट्यदर्पण में रस-स्वरूप एवं निष्पत्ति एक तुलनात्मक विवेचन १४१ साधारणीकृत विभाव आदि के प्रभाव से ही प्रमाता हनुमान् आदि समुद्र-लङ्घन आदि रूप अलौकिक कार्यों के साथ अभेद सम्बन्ध स्थापित कर लेता है और तब वह हनुमान् आदि के उत्साह आदि का अनुभव करने लगता है ।' यहाँ विश्वनाथ के मत में यह आशङ्का सम्भव है कि साधारणीकृत होने पर तो हनुमान् आदि विशिष्ट नहीं अपितु सामान्य हो जाते हैं, तब पुनः उनके विशिष्ट रूप के साथ माता अभेद सम्बन्ध किस प्रकार स्थापित कर सकता है । रामचन्द्र पुरी इस विरोधाभास का समाधान प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि यदि विचारपूर्वक देखा जाये तो विश्वनाथ का साधारणीकरण से तात्पर्य यही था कि प्रमाता के लिए नाट्य-काव्य निबद्ध पात्रों का साधारणीकरण हो जाता है अर्थात् रामादि अलौकिक पात्र प्रमाता आदि के लिए अगम्य नहीं रह जाते । वह उनके स्तर पर पहुँच जाता है तो उसके प्रभाव से वह उनके साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है ऐसी व्याख्या करने पर विश्वनाथ और जगन्नाथ एक ही सिद्धान्त के स्थापक कहे जा सकते हैं। क्या उनके इस स्पष्टीकरण को रामचन्द्र - गुणचन्द्र के प्रसङ्ग में स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि आचार्य विश्वनाथ का साधारणीकरण भी तो प्रमाता के मूल अनुकार्य के साथ तादात्म्य में पूर्व सोपान का कार्य करता है । । ? आचार्य भरत का कथन है कि सामान्य गुणयोग से रस निष्पन्न होते हैं । साधारणीकरण और तादात्म्य सिद्धान्तों के मध्य उनके बीजरूप का अनुसन्धान भरत के इन शब्दों में सम्भव है । इसी प्रकार धनञ्जय द्वारा स्वीकृत साधारणीकरण और रामचन्द्र- गुणचन्द्र द्वारा स्वीकृत तादात्म्य अथवा अध्यवसान के औचित्य अनौचित्य विषयक चर्चा में लिप्त होना उचित प्रतीत नहीं होता, तथापि इतना कथन अनुचित न होगा कि साधारणीकरण को स्वीकार करने पर भी तादात्म्य को किसी न किसी रूप में स्वीकार अवश्य करना होगा । भट्ट नायक द्वारा निरूपित साधारणीकरण सिद्धान्त के संशोधक अभिनवगुप्त के विचारों में भी तादात्म्य की प्रतिध्वनि का श्रवण सम्भव है । रामचन्द्र पुरी का कथन है कि आचार्य भरत तथा भट्टनायक को भी आश्रय के साथ प्रमाता के तादात्म्य का सिद्धान्त स्वीकार्य था ।" यदि यही वस्तुस्थिति है तो धनञ्जय के सम्बन्ध में भी यह कल्पना सहज सम्भव है । १. व्यापारोऽस्ति विभावादेर्नाम्ना साधारणी कृतिः । यस्यासन्पाथोधिप्लवनादयः ॥ ९ ॥ तत्प्रभावेण, प्रमाता तदभेदेन स्वात्मानं प्रतिपद्यते । उत्साहादिसमुद्बोधः साधारण्याभिमानतः ॥ १० ॥ नृणामपि समुद्रादिलंघनादौ न दुष्यति ॥ ११३ सा० द० २. साधारणीकरण और तादात्म्य पृ० ६७ । ३. एभ्यश्च सामान्यगुणयोगेन रसा निष्पद्यन्ते । ना० शा० भाग - १ पृ० ३४८ । ४. तथाहि — लौकिकानुमानेन संस्कृतः प्रमदादिना तत्स्थ्येन प्रतिपद्यते । अपितु हृदयसंवादात्मक सहृदयत्व - बलात्पूर्णीभविष्यद्रसास्वादाङ्कुरीभावेनानुमानस्मृत्यादिसोपानमारुह्य व तन्मयीभावोचितचर्वणाप्राणतया । अभि० भा० ( ना० शा ० भाग - १ ) पृ० २८४ ॥ ५. साधारणीकरण और तादात्म्य पृ० ६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012015
Book TitleAspect of Jainology Part 1 Lala Harjas Rai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages170
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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