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________________ १४० काजी अञ्जम सैफी शब्द-संकेतों के ज्ञान, अभिनय के समय शब्दायमान अत्यन्त हृदयहारी पाश्व-संगोत और चतुर्विध अभिनय से उत्पन्न सजीवता निमित्तभूत होती है इस प्रकार प्रेक्षक अनुकर्ता में ही मूल अनुकार्य का अध्यवसाय कर उसके सुख-दुःख में तन्मय होकर उसकी सुख-दुःखात्मक अवस्थाओं का अनुभव करता है।' रामचन्द्र-गुणचन्द्र स्पष्टतः विभाव आदि रूप कवि-निबद्ध अनुकार्य का निविशेषीकरण अथवा सामान्यीकरण उस रूप में स्वीकार नहीं करते, जिस रूप में धनञ्जय को स्वीकार्य है और इस भ्रान्तिवश उनकी दृष्टि में तत्पश्चात् ही प्रेक्षक अनुकार्य के सुख दुःख में तन्मयीभाव को प्राप्त हो जाता है। वस्तुतः यदि रामचन्द्र-गुणचन्द्र के विचारों को दृष्टि में रखकर संस्कृताचार्यों की सम्पूर्ण परम्परा पर दृष्टिपात करें तो हम सहसा ही अन्तिम प्रौढ़ आचार्य पण्डितराज जगन्नाथ पर रुक जाते हैं। जगन्नाथ स्पष्टरूपेण साधारणीकरण का विरोध कर तादात्म्य सिद्धान्त को स्थानि हैं। उनके अनुसार साधारणीकरण भी दोष विशेष की कल्पना के बिना सम्भव नहीं है। अतः साधारणीकरण और दोष विशेष रूप दो हेतुओं की स्वीकृति के स्थान पर भावना रूप के आधार पर प्रमाता की आश्रय के साथ अभेद-बुद्धि को स्वीकार करना ही अधिक श्रेयस्कर प्रतीत होता है। इस प्रक्रिया में साधारणीकरण का सरलतया परिहार हो जाता है। इस दृष्टि से पण्डितराज जगन्नाथ को रामचन्द्र-गुणचन्द्र की परम्परा में रखा जा सकता है। परन्तु यदि रसानुभूति के सम्बन्ध में रामचन्द्र-गुणचन्द्र की नियतविषयक और अनियत अर्थात् सामान्य विषयक अवधारणा का अवलोकन करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि वह साधारणीकरण व्यापार को स्वीकार करते हैं, क्योंकि उनका स्पष्ट कथन है कि वास्तविक न होने पर भी काव्य एवं अभिनय के माध्यम से विद्यमान-से प्रतीत होने वाले विभाव अनुसन्धाता, प्रेक्षक और श्रोता के सामान्य स्थायीभाव को ही रस के रूप में उबुद्ध करते हैं। काव्य अथवा नाटक आदि में सीता के प्रति राम के शृंगारभाव का अनुकरण किये जाने पर सामाजिक में सीता विषयक शृंगार का समुल्लास नहीं होता है, अपितु उसको सामान्य स्त्री विषयक रसास्वाद ही होता है। डॉ० के० एच० त्रिवेदी' और डॉ० सुलेखचन्द्र शर्मा भी रामचन्द्र-गुणचन्द्र द्वारा साधारणीकरणव्यापार की स्वीकृति का कथन करते हैं। निश्चित रूप से उनकी यह अवधारणा उनकी ही मल अनुकार्य के साथ अध्यवसाय अथवा तादात्म्य की मान्यता के विरुद्ध प्रतीत होती है। साधारणीकरण और मूल अनुकार्य के साथ तादात्म्य के विचारों पर यदि दृष्टिपात करें तो रामचन्द्र-गुणचन्द्र को आचार्य विश्वनाथ की श्रेणी में रखा जा सकता है। विश्वनाथ भी साधारणीकरण और अनुकार्य से अभेद अर्थात् तादात्म्य को एक साथ स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार १. विवृत्ति, ना द० पृ० १६७-१६८ । २. यद्यपि विभावादीनां साधारण्यं प्राचीनेरुक्तम, तदपि काव्येन शकुन्तलादिशब्दैः शकुन्तलात्वादि प्रकाशक बोधजनकैः प्रतिपाद्यमानेषु शकुन्तलादिषु दोषाविशेषकल्पनं विना दुरूपपादनम् । अतोऽवश्यकल्प्ये दोषविशेषे, तेनैव स्वात्मनि दुष्यन्ताद्यभेदबुद्धिरपि सूपपादा। रसगं० १० ११४ । ३. विवृत्ति, ना द० पृ० १४२-१४३ । ४. दि नाट्यदर्पण ऑफ रामचन्द्र एण्ड गुण चन्द्र : ए क्रिटिकल स्टडी पृ० १४७ । ५. अभिनवोत्तर संस्कृत-काव्यशास्त्र में साधारणीकरण-विमर्श १० ६५ । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012015
Book TitleAspect of Jainology Part 1 Lala Harjas Rai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages170
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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