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________________ ५२. जैन विद्या के आयाम खण्ड - कहीं भी अपने पांडित्य-प्रदर्शन का भाव नहीं होता है। यदि उन्हें किसी तथ्य की जानकारी नहीं होती है तो वे उसे सहजता से स्वीकार भी कर लेते हैं। डॉ० सागरमल जैन का व्यक्तित्व निर्दभ और गुणग्राही है और उनमें अपने दायित्वों के प्रति सजगता तथा कर्तव्यों के प्रति निष्ठा है। प्रकृति से आप निलोभी हैं। दूसरों के साथ सद्भाव से कार्य करने की आपमें गहरी समझ और नैसर्गिक सूझ है। विद्या व्यसन ही उनकी प्रिय प्रवृत्ति है। उनका अध्ययन और मनन अधिक विशाल और गहन है। यही कारण है कि स्वल्प काल में ही उन्होंने उच्च कोटि के विपुल साहित्य का सृजन किया है। ६ डॉ० सागरमलजी के व्यक्तित्व का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष दुराग्रह और हठवादिता का अभाव है। वे दूसरों के मत और विचारों में रही हुई सत्यता के अंश को सहज ही स्वीकार कर लेते हैं और अपने आचार-विचार में कभी भी अभिनिवेश प्रदर्शित नहीं करते हैं। दूसरी ओर खुशामद करने की वृत्ति भी उनमें नहीं है। वे अपनी बात को तर्क पुरस्सर ढंग से इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि उसे सहज ही स्वीकार करने का मन होता है। कभी कोई चर्चा विवादास्पद बन जाये तो वे अपने मत को स्पष्ट रूप से शास्त्र और ग्रंथों के आधार पर स्पष्टता के साथ प्रस्तुत करते हैं। ऐसे अवसर पर वे स्वस्थतापूर्वक कटुतारहित होकर अपनी बात को सहज रूप से विश्वसनीय बना देते हैं। इसी कारण से विद्वत्सभा में उनका गौरव होता जो व्यक्ति दार्शनिक साहित्य का गंभीरता से तथा उसकी ऐतिहासिक समझपूर्वक अध्ययन कर लेता है उसमे सांप्रदायिक संकुचितता नहीं रह जाती। डॉ० सागरमलजैन को यह उदार और असांप्रदायिक दृष्टि उनके पूर्वगामी धुरन्धर पण्डित सुखलालजी एवं पं० दलसुख भाई मालवणिया से उत्तराधिकार में प्राप्त हुई। उन्होंने इस उत्तराधिकार का सम्यक् रूप से निर्वाह किया । जैनदर्शन हो या बौद्ध दर्शन अथवा हिन्दू-दर्शन हो अथवा जैनों के दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी या तेरापंथ संप्रदाय हों, वे तथ्यों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में, तटस्थता पूर्वक, सत्यनिष्ठा और समभाव से देखते हैं और इस सम्बन्ध में अपने मन्तव्य को पूर्वाग्रह रहित होकर उपस्थित करते हैं। उनके ग्रंथों में उनकी इस पारगामी दृष्टि को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। वस्तुतः जिसके जीवन में भगवान् महावीर द्वारा प्रतिबोधित अनेकान्तवाद आत्मसात् हो जाता है उसके मिथ्या मताग्रह स्वयं ही दूर हो जाते हैं । * पूर्व अध्यक्ष, गुजराती विभाग, मुम्बई विश्वविद्यालय, मुम्बई । Jain Education International डॉ० सागरमलजी ने अपने अध्यापक जीवन में कितने ही विद्यार्थियों को शोध कार्य करवा कर उन्हें पी-एच० डी० की उपाधि से अलंकृत करवाया। अजैन विद्यार्थियों से जैन विषय में शोध कार्य करवाना कितना कठिन है यह तो कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है? यदि मार्गदर्शक की स्वयं की विषय पर पकड़ न हो तो विद्यार्थी को योग्य मार्गदर्शन देना संभव नहीं होता है। मार्गदर्शक का कार्य बहुत ही श्रमपूर्ण और नीरस होता है। कितनी ही बार विद्यार्थी ऊब जाता है और विषय को छोड़ देने की बात करता है, उस समय उसे प्रोत्साहित करना पड़ता है, कभी ऐसा भी लगता है कि विद्यार्थी को मार्गदर्शन करने में, उसके प्रारम्भिक लेखन को सुधारना, संशोधित करना इस सब में इतना समय और श्रम लगता है कि इतने समय में मार्ग दर्शक स्वयं मौलिक ग्रंथ तैयार कर सकता है किन्तु ऐसे प्रलोभन में न पड़कर विद्यार्थी तैयार करने में एक संतोष होता है, यह सच्ची विद्याप्रीति के बिना संभव नहीं होता। ऐसी विद्याप्रीति हमें डॉ० सारगमलजी में देखने को मिलती है। संस्थान का संचालन करते हुए डॉ० सागरमलजी ने इतने विद्यार्थियों के मार्ग दर्शन व स्वयं इतना विपुल लेखन कार्य किया है कि उसे देखकर आश्चर्य होता है। लेखक जब तक आसन बद्ध होकर नहीं बैठता लेखन संभव नहीं होता। अध्ययन व लेखन में एकनिष्ठ होने के लिए अनेक सामाजिक व मनोरंजनात्मक प्रलोभनों को छोड़ना पड़ता है। डॉ० सागरमलजी ने यह किया है, तभी वे इतनी सिद्धियों को प्राप्त कर सके हैं। समाज उन पर गौरव कर सके, वे ऐसे सत्यनिष्ठ सारस्वत हैं। उन्होंने पार्श्वनाथ विद्यापीठ के निदेशक का पद न केवल सुशोभित किया, अपितु उसके उत्थान में अपना अमूल्य योगदान दिया है। डॉ० सागरमल जी के अभिनंदन के इस सुअवसर पर अपनी अन्तरात्मा से प्रसन्नता व हर्ष का अनुभव करता हूँ। For Private & Personal Use Only " a www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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