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________________ डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व सत्यनिष्ठ सारस्वत : डा० सागरमल जैन डॉ० रमनलाल चि० शाह* वर्तमान युग में जैन दर्शन एवं अन्य दर्शनों के तुलनात्मक अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र में डॉ० सागरमल जैन का नाम प्रमुख है । पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी की ओर से उनका जो अभिनंदन किया जा रहा है, वह सर्वथा समय प्रशंसनीय है । इस पुनीत अनुष्ठान में मैं भी अपना स्वर पूरित कर संतोष का अनुभव करता हूँ। डॉ० सागरमल जी जैन के जीवन, अध्यापन कार्य और लेखन प्रवृत्ति पर दृष्टि डालते ही यह प्रतीति हो जाती है कि उन्होंने अपना अध्यापकीय जीवन सम्यक् रीति से सफल बनाया है । डॉ० सागरमल जी जैन का परोक्ष परिचय अनेक वर्षों पूर्व डॉ० हीराबहन बोरदिया के द्वारा मुंबई में मुझे हुआ था । हीराबहन मेरे वयोवृद्ध मित्र स्वर्गीय गणपतलाल जी जवेरी की बहन थीं। उस समय 'जैन धर्म की प्रमुख साध्वियों एवं महिलाएं' विषय पर अपना शोध कार्य कर रही थीं । मैं भी उस समय मुंबई विश्वविद्यालय में गुजराती विभाग के अध्यक्ष के रूप में पी-एच० डी० के विद्यार्थियों का मार्गदर्शन करता था । एक दिन गणपतलाल भाई हीरा बहन के साथ मेरे घर आये । उनसे चर्चा के द्वारा यह ज्ञात हुआ कि हीराबहन एक महत्त्वपूर्ण जैन विषय पर अपना शोध कार्य कर रही हैं। इसी प्रंसग में हीरा बहन ने डॉ० सागरमल जी की विद्वत्ता एवं स्वभाव की प्रशंसा की। उसे सुनकर मेरे मन में यह विचार आया कि यदि सागरमल जी से मिलने का अवसर मिले तो उत्तम होगा। मैंने शीघ्र ही एक अवसर ढूंढ लिया और मुंबई जैन युवक संघ पर्दूषण व्याख्यान माला में व्याख्यान हेतु निमत्रंण दे दिया। इस प्रकार सागरमल जी से मेरा प्रथम परिचय हुआ जो आगे क्रमश: उत्तरोत्तर वृद्धिगत होता गया। मुंबई में श्री महावीर जैन विद्यालय की ओर से ई० सन् १९७९ से जैन साहित्य समारोह की प्रवृत्ति सम्यक् प्रकार से चल रही है । सन् १९८० में यह समारोह डॉ० भोगीलाल साण्डेसरा की अध्यक्षता में सूरत में आयोजित किया गया । इस प्रसंग पर डॉ० सागरमल जी सूरत पधारे और एक विभागीय बैठक की अध्यक्षता की । पं० दलसुख भाई मालवणिया ने स्रोतागणों को डॉ० सागरमल जी का परिचय दिया । डॉ० सागरमल जी ने अध्यक्ष के रूप में 'जैन दर्शन में आत्म तत्त्व' विषय पर अत्यन्त माननीय व्याख्यान दिया। उस समय गुजरात के स्रोतागणों को डॉ० सागरमल जी की बहुश्रुतता का परिचय हुआ। उसके पश्चात् १९८३ में कच्छ के माण्डवी शहर में पाचवें जैन साहित्य समारोह का आयोजन हुआ। इसमें भी डॉ० सागरमल जी ने विभागीय अध्यक्ष का पद सुशोभित किया और 'जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में नैतिक और धार्मिक कर्तव्यता का स्वरूप' विषय पर एक मौलिक चिन्तनात्मक व्याख्यान दिया। इसी अवसर पर कच्छ के तीर्थों की दो दिवसीय यात्रा का भी आयोजन किया गया । फलत: मुझे और गुजरात के अन्य विद्वानों को डॉ० सागरमल जी के सान्निध्य का लाभ हुआ। इस प्रकार डॉ० सागरमल जी जैन साहित्यसमारोह की बीस वर्षों से चल रही इस प्रवृत्ति से पूरी तरह जुड़ गए । यद्यपि साहित्य समारोह में गुजरात के बाहर के विद्वानों को बुलाना हमारी आर्थिक सीमाओं के कारण संभव नहीं हो पाता है फिर भी श्री भंवरलालजी नाहटा एवं डॉ० सागरमलजी इसके अपवाद रहे हैं । अष्टम साहित्य समारोह सम्मेदशिखर बिहार में डा० सागरमल जी जैन की अध्यक्षता में ही सम्पन्न हुआ था। इसी प्रकार सन् १९९५ में तेरहवाँ जैन साहित्यसमारोह राजगृह, बिहार में भी डॉ० सागरमलजी जैन की ही अध्यक्षता में आयोजित किया गया । इसी प्रकार वे जैन साहित्यसमारोह के एक अनिवार्य अंग तो बने ही साथ ही गुजरात के जैन धर्म-दर्शन विषय के लेखकों एवं विद्वानों में भी प्रीति और आदर के पात्र बन गये। उनके अनेक लेखों का 'गुजराती अनुवाद' हमने 'प्रबुद्ध' जीवन में प्रकाशित किया है। इस प्रकार जैन साहित्यसमारोह और मुंबई की पर्युषण व्याख्यान माला के निमित्त मैं और डॉ० सागरमल जैन से प्रगाढ़ मैत्री में बंध गए । सहजता एवं सरलता उनके विशिष्ट गुण हैं । इतने बड़े विद्वान् होने के बाद भी उनका सान्निध्य बोझ रूप नहीं होता । चर्चाओं के प्रसंग में उनकी जैनदर्शन एवं अन्य दर्शनों की ज्ञान-गंभीरता हमें मुग्ध कर देती है किन्तु उनमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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