SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ डॉ० सागरमल जैन व्यक्तित्व एवं कृतित्व : डॉ० सागरमल जैन : मेरी दृष्टि में जैन धर्म में कहा गया है कि 'अनन्त धर्मात्मकं वस्तु' अर्थात् वस्तु अथवा द्रव्य के अनेक धर्म होते हैं। उसी प्रकार मानवव्यक्तित्त्व के अनेक पक्ष होते हैं। उन सभी पक्षों पर विचार करना किसी मानव के लिए सहज नहीं है। इसलिए मेरी दृष्टि में जैन साहब का जो पक्ष उजागर हुआ है, उन्हीं पक्षों पर विचार करना मेरी अपेक्षा है । डॉ० अजित शुकदेव शमी करीब सन् १९६८-६९ की घटना है, जब मैं पीएच. डी. की डिग्री प्राप्त कर पोस्ट डॉक्टरल के शोध-प्रबन्ध पर कार्यरत था तो डॉ० मोहन लाल मेहता, जो पार्श्वनाथ विद्याश्रम के निदेशक थे, उनके पास जैन साहब का शोध-प्रबन्ध परीक्षण के लिए आया । परीक्षणोपरान्त डॉ० मेहता साहब ने मुझे जैन साहब का शोध-प्रबन्ध पढ़ने के लिए दिया और कहा कि देखो कितना अच्छा शोध-प्रबन्ध है उस शोध-प्रबन्ध को पढ़ने के बाद मेरी भी धारणा जैन साहब के प्रति स्पष्ट हुई कि वस्तुतः शोध-प्रबन्ध का लेखक कितना गम्भीर अध्येता, मननशील विचारक और समन्वयन दृष्टि का परिचायक है। क्योंकि वह शोध-प्रबन्ध गीता, धम्मपद के परिप्रेक्ष्य में जैन आचारशास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करता है। उस समय तो उनसे साक्षात्कार नहीं हुआ था लेकिन यह धारणा बनी थी कि जैन साहब वस्तुतः अध्ययनशीलता एवं मर्मी - विद्वत्ता के धनी हैं। - Jain Education International जैन साहब से प्रथम मुलाकात पार्श्वनाथ विद्याश्रम में ही हुई, जब वे पार्श्वनाथ विद्याश्रम के निदेशक के रूप में आये। मैं भी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एक संगोष्ठी में भाग लेने के लिए शांतिनिकेतन से बनारस गया हुआ था। मेरे मन में उनके प्रति निष्ठा थी ही और मैं उनसे मुलाकात करने के लिए विद्याश्रम में गया। बड़ी सहजता और सहृदयता से वे मिले और कई प्रकार की लेखन-पाठन की चर्चायें हुईं। इसके बाद तो कितनी बार उनसे मिला और जैन विद्या के पठन-पाठन के सम्बन्ध में चर्चायें होती रहीं। कई बार तो मैं अपने परिवार एवं बच्चों के साथ जैनाश्रम चला आता और वहीं १५-२० दिनों के लिए आश्रम में ठहरता। उनकी श्रीमती जी भी बहुत उदारमना और सहज स्नेह देने वाली हैं और ऐसा लगता कि मेरे परिवार उनके अपने परिवार हैं। मुझे भी जैनाश्रम के प्रति अपार प्रेम एवं स्नेह रहा है क्योंकि मेरे व्यक्तित्व का विकास वहीं से प्रारम्भ होता है । मैं जो कुछ भी हूँ, वह पार्श्वनाथ विद्याश्रम की ही देन है। वहाँ के आश्रमवासी मेरे अपने परिवार जैसे हैं । जैन साहब की कृतियों के प्रति मेरा आकर्षण रहा है और उनकी करीब-करीब सभी कृतियों को मैंने पढ़ा है और पाया है कि उन कृतियों के द्वारा उन्होंने कुछ-न-कुछ नयी दृष्टियों का उद्घाटन किया है। कई बार भारत के विभिन्न भागों में संचालित गोष्ठियों में भी उनके शोध प्रबन्ध को सुनने और चर्चा करने का मौका मिला है। फिलहाल उनकी पुस्तक 'जैन भाषा - दर्शन' को पढ़कर बहुत प्रसन्नता हुई है और मेरी धारणा है कि वह पुस्तक निश्चय ही जैन भाषा दर्शन के क्षेत्र में अमूल्य निधि है। आगे आने वाली पीड़ी निश्चय ही इसका आधार मानकर जैन विद्या के क्षेत्र में और अधिक परिष्कृत भाषा दर्शन के आयाम को प्रस्तुत कर सकेगी। मुझे आशा एवं विश्वास है कि जैन साहब स्वस्थ रहकर जैन विद्या के क्षेत्र में और अधिक योगदान दे सकेंगे । प्रोफेसर, दर्शन एवं धर्म विभाग, विश्वभारती, शान्ति निकेतन ७३१२३५ ( पश्चिम बंगाल ) For Private & Personal Use Only ५३ www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy