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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६ डॉ० सागरमल जैन: एक संस्मरण डॉ० हरिहर सिंह* डॉ० सागरमल जैन से मेरा पहला सम्पर्क उस समय हुआ जब वे सन् १९७९ ई० में पार्श्वनाथ विद्यापीठ के निदेशक होकर आये। उनके आने से पूर्व पार्श्वनाथ विद्यापीठ के कार्यकारी निदेशक के रूप में मैं ही कार्यरत था और संस्थान के सम्पूर्ण कार्यों के दायित्व के बोझ से लदा हुआ था। अत: आप के आते ही मुझे राहत मिली। आमतौर पर नये व्यक्ति को समझनेपरखने में थोड़ा वक्त तो लगता ही है । लेकिन डॉ० जैन इतने सरल स्वभाव के थे कि उनके साथ कार्य करने में कोई समस्या या कठिनाई उत्पन्न ही नहीं हुई। डॉ० जैन के साथ मुझे मात्र चार-पाँच महीने तक ही कार्य करने का सुअवसर मिला, क्योंकि सन् १९८० के मार्च महीने में मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग में प्रवक्ता के पद पर नियुक्त होकर चला गया। इस अल्पावधि में मुझे डॉ० जैन के प्रतिभावान व्यक्तित्व और विद्वत्ता का परिचय प्राप्त हुआ । वे किसी भी समस्या के समाधान हेतु हमेंशा तत्पर दिखे और मेरे तथा अन्य कर्मचारियों के प्रति उनका व्यवहार सदाशयता पूर्ण रहा । वे उदारता के प्रतीक हैं । कभी भी प्रतिशोधात्मक रवैया नहीं अपनाते हैं। उन्होंने पार्श्वनाथ विद्यापीठ का जैन समाज से निकट सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया ताकि जैनलोग संस्था के उत्थान में भागीदार बन सकें। इस हेतु उन्होंने न केवल वाराणसी के प्रत्युत अन्य स्थानों के प्रभावशाली व्यक्तियों का आह्वान किया जिसमें उन्हें पर्याप्त सफलता भी मिली। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में जाने के बाद भी मैं डॉ० जैन से हमेशा मिलता रहा और संस्था के समृद्ध पुस्तकालय का उपयोग करता रहा । मुझे जब भी किसी पुस्तक की आवश्यकता हुई उन्होंने तत्काल उसे उपलब्ध कराया और आवश्यकता पड़ने पर उसे बाजार से भी खरीदवाया । जब कभी भी मैंने जैन धर्म-दर्शन से सम्बन्धित किसी समस्या को उनके समक्ष प्रस्तुत किया उन्होंने बहुत तत्परता से उसे हल करने का प्रयास किया। इसके लिये मैं उन्हें साधुवाद देता हूं। डॉ० जैन पार्श्वनाथ विद्यापीठ को जैनविद्या के अध्ययन अध्यापन के महान् केन्द्र के रूप में देखना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अथक प्रयास भी किया। उनके तथा संस्था के अन्य पदाधिकारियों के अध्यवसाय से इसे मान्य विश्वविद्यालय का दर्जा भी मिलने वाला था परन्तु दुर्भाग्यवश यह कार्य पूरा न हो सका और वे संस्था को छोड़कर चले भी गये। मैं कामना करता हूँ कि वे दीर्घायु हों और इस संस्था के उन्नयन में अपना योगदान देते रहें। *प्रवक्ता प्रा० भा० इति० सं० एवं पुरातत्व विभाग, का०हि०वि०वि०, वाराणसी जैन धर्म दर्शन के गहन अध्येता: डॉ० सागरमल जैन डॉ० लालचन्द जैन* जैन धर्म-दर्शन के गहन अध्ययन, मनन और निदिध्यासन वाले मनीषी विद्वान् के मैंने सर्वप्रथम दर्शन सागर विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग में आयोजित संगोष्ठी के सुअवसर पर सन् १९७८ में किये थे । उसी समय उनसे विचार-विमर्श कर मैने अनुभव किया था कि डॉ० सागरमल जी जैन सरलता की मूर्ति हैं । सादगी उनका अलंकार है । उनकी कृतियों-निबन्धों के अध्ययन से उनके विचारों में भी सरलता झलकती है। साथ ही भावुक होने के कारण दुःखी जनों को देख कर स्वयं दुःखी होकर उसके दुःखों को दूर करने रूप अनुकम्पा से भर जाते हैं । अत: मेरी मंगल कामना है कि डॉ० साहब सतत दीर्घायु हो कर जैन वाङ्मय की सेवा करते रहें । *पूर्व निदेशक, रिसर्च इन्स्टीट्यूट आफ प्राकृत, जैनोलाजी एण्ड अहिंसा, वैशाली। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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