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________________ ६२८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ कल्पना ही प्रतीत होती है। इस सम्बन्ध में वे कोई भी प्रमाण प्रस्तुत नहीं यह स्तूप ई०पू० दूसरी री या प्रथम शती का है। इतिहासकारों ने इसे शुंग कर सके हैं। बरण नाम का उल्लेख भी मुस्लिम इतिहासकारों ने दसवीं काल का माना है। भरहुत के स्तूप के पूर्वी तोरण पर 'वाच्छिपुत धनभूति सदी के बाद ही किया है। इतिहासकारों ने इस ऊँचागांव किले का का' उल्लेख है।१६ पुन: अभिलेखों में 'सुगनंरजे' ऐसा उल्लेख होने से सम्बन्ध तोमर वंश के राजा अहिवरण से जोड़ा है अत: इसकी अवस्थिति शुंग काल में इसका होना सुनिश्चित है।१७ अत: उच्चैर्नागर शाखा का ईसा के पांचवी-छठी शती से पूर्व तो सिद्ध ही नहीं होती है। यहाँ से स्थापना काल (लगभग ई०पू० प्राथम शती) और इस नगर का सत्ता काल मिले सिक्कों पर 'गोवितसबाराणये' ऐसा उल्लेख है।११ स्वयं कनिंघम ने समान ही है। अत: इसे उच्चैर्नागर शाखा का उत्पत्ति स्थल मानने में काल भी यह सम्भावना व्यक्त की है कि इन सिक्कों का सम्बन्ध वारणाव या की दृष्टि से कोई बाधा नहीं है। अत: ऊँचेहरा (उच्चकल्पनगर) एक प्राचीन बारणावत से रहा होगा।१२ वारणावर्त का उल्लेख महाभारत में भी है जहाँ नगर था इसमें अब कोई सन्देह नहीं रह जाता है। यह नगर वैशाली या पाण्डवों ने हस्तिनापुर से निकलकर विश्राम किया था तथा जहाँ उन्हें जिन्दा पाटलिपुत्र से वाराणसी होकर भरूकच्छ को जाने वाले अथवा श्रावस्ती जलाने के लिए कौरवों द्वारा लाक्षागृह का निर्माण करवाया गया था।१३ से कौशाम्बी होकर विदिशा, उज्जैनी और भरूकच्छ जाने वाले मार्ग पर बारणावा (बारणावत) मेरठ से१६ मील और बुलन्दशहर (प्राचीन नाम स्थित था। इसी प्रकार वैशाली-पाटलिपुत्र से पद्मावती (पवाया), गोपाद्री बरन) से ५० मील की दूरी पर हिंडोना और कृष्णा नदी के संगम पर (ग्वालियर) होता हुआ मथुरा जाने वाले मार्ग पर भी इसकी अवस्थिति स्थित है। मेरी दृष्टि में बारणावत वहीं है जहाँ से जैनों का ‘बारणगण थी। उस समय गंगा और यमुना के दक्षिण से होकर जाने वाला मार्ग ही निकला था। बारणगण का उल्लेख भी कल्पसूत्र स्थविरावली एवं मथुरा अधिक प्रचलित था क्योंकि इसमें बड़ी नदियाँ नहीं आती थीं, मार्ग पहाड़ी के अभिलेखों में उपलब्ध होता है।१४ अत: बुलन्दशहर (बरन) या होने से कीचड़ आदि भी अधिक नहीं होता था। जैन साधु प्राय: यही बारणावत (बारणावर्त) का सम्बन्ध बारणगण से हो सकता है, न कि मार्ग अपनाते थे। उच्चै गरी शाखा से जो कि कोटिकगण की शाखा थी। अत: हमें इस प्राचीन यात्रा मार्गों के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि भ्रान्ति का निराकरण कर लेना चाहिए। उच्चै गर शाखा का सम्बन्ध किसी ऊँचानगर की अवस्थिति एक प्रमुख केन्द्र के रूप में थी। यहाँ से कौशाम्बी, भी स्थिति में बुलन्दशहर से नहीं हो सकता है। प्रयाग, वाराणसी, पाटलिपुत्र, विदिशा, मथुरा आदि सभी ओर मार्ग जाते यह सत्य है कि उच्चै गर शाखा का सम्बन्ध किसी ऊँचानगर थे। पाटलिपुत्र से गंगा-यमुना आदि बड़ी नदियों को बिना पार किये जो से ही हो सकता है। इस सन्दर्भ में हमने इससे मिलते-जुलते नामों की प्राचीन स्थल मार्ग था उसके केन्द्र नगर के रूप में उच्चकल्पनगर खोज प्रारम्भ की। हमें ऊँचाहार, ऊँचडीह, ऊँचीबस्ती, ऊचौलिया, (ऊँचानगर) की स्थिति सिद्ध होती है। यह एक ऐसा मार्ग था जिसमें कहीं ऊँचाना, ऊँचेहरा आदि कुछ नाम प्राप्त हुए।१५ हमें इस नामों में ऊँचाहारा भी कोई बड़ी नदी नहीं आती थी अत: सार्थ निरापद समझकर इसे ही (उ०प्र०) और ऊँचेहरा (म०प्र०) ये दो नाम अधिक निकट प्रतीत हुए। अपनाते थे। प्राचीन काल से आज तक यह नगर धातुओं के मिश्रण के ऊँचाहार की सम्भावना भी इसलिए हमें उचित नहीं लगी कि उसकी बर्तन हेतु प्रसिद्ध रहा है। आज भी वहाँ काँसे के बर्तन सर्वाधिक मात्रा प्राचीनता के सन्दर्भ में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। अत: हमने में बनते हैं। ऊँचेहरा का उच्चैर शब्द से जो ध्वनि साम्य है वह भी हमें ऊँचेहरा को ही अपनी गवेषणा का विषय बनाना उचित समझा। ऊँचेहरा इसी निष्कर्ष के लिए बाध्य करता है कि उच्चै गर शाखा की उत्पत्ति मध्य प्रदेश के सतना जिले में सतना स्टेशन से ११ कि०मी० दक्षिण उसी क्षेत्र से हुई थी। की ओर स्थित है। ऊँचेहरा से ७ कि०मी० उत्तर पूर्व की ओर भरहुत का प्रसिद्ध स्तूप स्थित है, इससे इस स्थान की प्राचीनता का भी पता उमास्वाति का जन्म स्थान नागोद (म०प्र०) लग जाता है। वर्तमान ऊँचेहरा से लगभग दो कि०मी० की दूरी पर पहाड़ उमास्वाति ने अपना जन्म स्थान न्यग्रोधिका बताया है। इस के पठार पर यह प्राचीन नगर स्थित था, इसी से इसका ऊँचानगर सम्बन्ध में भी विद्वानों ने अनेक प्रकार के अनुमान किये हैं। चूँकि नामकरण भी सिद्ध होता है। यहाँ के नगर निवासियों ने मुझे भी बताया उमास्वाति ने तत्त्वार्थभाष्य की रचना कुसुमपुर (पटना) में की थी।१८ अत: कि पहले यह उच्चकल्पनगरी कहा जाता था और यहाँ से बहुत सी अधिकांश लोगों ने उमास्वाति के जन्मस्थल की पहचान उसी क्षेत्र में करने पुरातात्त्विक सामग्री भी मिलती थी। यहाँ से गुप्तकाल अर्थात् ईसा की का प्रयास किया है। न्यग्रोध को वट भी कहा जाता है। इस आधार पर पांचवीं शती के कई महाराजाओं के कई दानपत्र प्राप्त हुए। इन ताम्र पहाड़पुर के निकट बटगोहली जहाँ से पंचस्तूपान्वय का एक ताम्र लेख दानपत्रों में उच्चकल्प (उच्छकल्प) का स्पष्ट उल्लेख है, ये दानपत्र गुप्त मिला है, से भी इसका समीकरण करने का प्रयास किया है। मेरी दृष्टि सं०१५६ से गुप्त सं०२०९ के बीच के हैं। (विस्तृत विवरण के लिए में यह धारणाएं समुचित नहीं है। उच्चैर्नागर शाखा जो ऊँचेहरा से देखें ऐतिहासिक स्थानावली-विजेन्द्र कुमार माथुर, पृ० २६०-२६१) सम्बन्धित थी, उसमें उमास्वाति के दीक्षित होने का अर्थ यही है कि वे इससे इस नगर की गुप्तकाल में तो अवस्थिति स्पष्ट हो जाती है। पुनः उसके उत्पत्ति स्थल के निकट ही कहीं जन्मे होंगे। उच्चैनगर या ऊँचेहरा जिस प्रकार विदिशा के समीप साँची का स्तूप निर्मित हुआ था उसी प्रकार से मथुरा जहाँ उच्चनागरी शाखा के अधिकतम उल्लेख प्राप्त हुए हैं, तथा इस उच्चैनगर (ऊँचेहरा) के समीप भरहुत का स्तूप निर्मित हुआ था और पटना जहाँ उन्होंने तत्त्वार्थभाष्य की रचना की, वहां से दोनों लगभग ४५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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