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________________ डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व श्रमण-संस्कृति के सारस्वत साधक : डॉ० सागरमल जैन डॉ० महेन्द्र सागर प्रचण्डिया श्रमण संत जंगम तीर्थ होते हैं। उनमें ज्ञानगरिमा की गोदावरी और चारित्रिक महिमा की मंदाकिनी की अजस्र धारा प्रवाहित होती है। उनका प्रवास अथवा वर्षावास बेजोड़ संगम का रूप धारण करता है । यहाँ पर विरल विभूतियों के सहज में अभिदर्शन हो जाते हैं। श्रमण-संत परम्परा में आचार्य हस्तीमल जी महाराज अपने समय के पहले और अकेले तेजस्वी और प्रभावंत महामनीषी सुधी संत थे। लगभग दो-ढाई दशक पूर्व आचार्य हस्तीमल जी महाराज के जलगाँव में वर्षावास हेतु अत्यल्प अवधि में नवनिर्मित विशाल महावीर भवन में जैन विद्वत् परिषद् का विशेष आयोजन किया गया था। मेरे विद्वान् मित्र डॉ० नरेन्द्र भानावत (अब दिवंगत) उसके लोकप्रिय कर्मठ मंत्री थे और उनके ही कारण मुझे भी आमंत्रित किया गया था, वस्तुतः बात तब की है । तत्समय विद्वत् परिषद् के उपाध्यक्ष, श्रमण संस्कृति के सारस्वत साधक डॉ० सागरमल जैन के पहलेपहल दर्शन कर आनंदित हुआ। आचार्य श्री की चर्या में विद्युत उपकरणों के प्रयोग का निषेध था। बिना माइक के इतनी विशाल जन-सभा में बोलना मेरे लिए सम्भव नहीं था पर पूज्य महाराज साहब के निर्देश को टालने की भला मुझमें साहस और शक्ति कहाँ ? आचार्यश्री से आशीर्वाद प्राप्त कर उनके पवित्र सान्निध्य एवं प्रशांत वातावरण में मुझे सुनकर श्रोताओं ने अनुशंसा की थी और डॉ० जैन प्रशंसकों में सबसे अग्रगण्य थे। __डॉ० जैन आर्ष वाङ्मय के सुधी अध्येता हैं । उस समय आचार्य श्री के द्वारा डॉ० जैन की सारस्वत वार्ता को बड़े मनोयोग पूर्वक सुना और सराहा गया था । वे गम्भीर से गम्भीर विषय-विवेचन को सरलता पूर्वक उपन्यस्त करने में गजब की सिद्धता रखते हैं। ___ कालान्तर में एक और अन्य सारस्वत सभा का आयोजन पीपाड़ शहर में सम्पन्न हुआ था। अनेक विद्वानों, सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा साधक समुदाय के अभूतपूर्व समायोजन में सम्मिलित होने का मुझे भी सुअवसर मिला था । इस बार मुझे मंत्री महोदय ने दो बार वक्तव्य देने का सुयोग दिया था किन्तु संयोग से डा० जैन विलम्ब से पधारने के कारण मुझे सुनने से वंचित रहे, ऐसा उन्होंने अपने प्रभावी वक्तव्य में अफसोस जाहिर किया था । 'प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा के उद्भव और विकास', विषयक उनके वैदुष्यपूर्ण वक्तव्य ने श्रोताओं को आकर्षित किया था । डॉक्टर जैन की देहयष्टि जहाँ आकर्षक है, वहाँ वे वाणी व्यवहार में अत्यन्त आर्जवी और अहिंसक हैं । वे प्रायः सोचने और समझने में अपनी प्रामाणिक पटुता का भरपूर उपयोग करते हैं। उनमें गवेषणात्मक गहराई और विनय-वात्सल्य तथा गुणग्राह्यता जैसी आत्मिक गुणों की ऊँचाई का उत्तम उजागरण हुआ है। . आप 'श्रमण' के सफल और सिद्धहस्त सम्पादक हैं । गतदशाब्दियों से लेखक और पाठक के रूप में उनसे मेरा जुड़ाव रहा है। श्रमण के अंकों में डॉक्टर जैन के अमूल्य सोच और विचार के अभिदर्शन होते रहे हैं । अनेक ग्रंथों का प्रणयन, सम्पादन कर उन्होंने श्रमण-साहित्य और संस्कृति की श्री वृद्धि किया है। 'डॉक्टर सागरमल जैन, जैन विद्या और संस्कृति की इसी प्रकार सेवा करते रहें। वे शतायु हों । ऐसी मेरी अनंत मंगल कामनाएँ और भावनाएँ सादर सप्रेम समर्पित हैं। इत्यलम् ! *निदेशक- जैन शोध अकादमी, अलीगढ़ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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