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________________ जैन साधना में ध्यान ४७९ पद्धति को वैज्ञानिक और प्रायोगिक बनाने के लिए अभी उन्हें बहुत कुछ ओर भी विद्वानों का ध्यान आकर्षित हुआ है। ध्यानशतक, ध्यानस्तव, करना शेष रहता है। ज्ञानार्णव आदि ध्यान और योग संबंधी ग्रंथों की समालोचनात्मक भूमिका तथा हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशन इस दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयत्न वर्तमान युग और ध्यान कहा जा सकता है। पुनः हरिभद्र के योग संबंधी ग्रंथों का स्वतंत्र रूप से वर्तमान युग में जहां एक ओर योग और ध्यान संबंधी साधनाओं योग चतुष्टय के रूप में प्रकाशन इस कड़ी का एक अलग चरण है। पं० के प्रति आकर्षण बढ़ा है, वहीं दूसरी ओर योग और ध्यान के अध्ययन सुखलालजी का 'समदर्शी हरिभद्र' अर्हदास बंडोबा दिघे का पार्श्वनाथ और शोध में भी विद्वानों की रुचि जागृत हुई है। आज भारत की अपेक्षा विद्याश्रम शोध संस्थान से प्रकाशित -जैन योग का आलोचनात्मक पाश्चात्य देशों में योग और ध्यान के प्रति विशेष आकर्षण देखा जाता है, अध्ययन', मंगला सांड का 'भारतीय योग' आदि गवेषाणात्मक दृष्टि से क्योंकि भौतिक आकांक्षाओं के कारण जीवन में जो तनाव आ गये हैं, महत्त्वपूर्ण प्रकाशन कहे जा सकते हैं। अंग्रेजी भाषा में विलियम जेम्स का वे उससे मुक्ति चाहते हैं। आज भारतीय योग और ध्यान की साधना- 'जैन योग', डॉ० नथमल टाटिया की 'Studies in Jaina Philosoपद्धतियों को अपने-अपने ढंग से पश्चिम के लोगों की रुचि के अनुकूल phy', पद्मनाभ जैनी का 'Jain Path of Purification' आदि भी इस बनाकर विदेशों में निर्यात किया जा रहा है। योग और ध्यान की साधना क्षेत्र की महत्त्वपूर्ण कृतियां हैं जैन ध्यान और योग को लेकर लिखी गई में शारीरिक विकृतियों और मानसिक तनावों को समाप्त करने की जो मुनिश्री नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ) की 'जैन योग 'चेतना का ऊर्ध्वारोहरण', शक्ति रही हुई है, उसके कारण भोगवादी और मानसिक तनावों से 'किसने कहा मन चंचल है', 'आभामण्डल' आदि तथा आचार्य तुलसी संत्रस्त पश्चिमी देशों के लोग चैतसिक शान्ति का अनुभव करते हैं और की प्रेक्षा-अनुप्रेक्षा आदि कृतियां इस दृष्टि से अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण हैं। यही कारण है कि उनका योग और ध्यान के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है। उनमें पाश्चात्य मनोविज्ञान और शरीर-विज्ञान का तथा भारतीय हठयोग इन साधना-पद्धतियों का अभ्यास कराने के लिए भारत से परिपक्व एवं की षट्चक्र की अवधारणा को भी अपने ढंग से समन्वित किया है। अपरिपक्व दोनों ही प्रकार के गुरु विदेशों की यात्रा कर रहे हैं। यद्यपि उनकी ये कृतियां जैन योग और ध्यान-साधना के लिए अवश्य मील का अपरिपक्व, भोगाकांक्षी तथाकथित गुरुओं के द्वारा ध्यान और योग- पत्थर साबित होगी। साधना का पश्चिम में पहुंचना भारतीय ध्यान और योग परम्परा की मूल्यवत्ता एवं प्रतिष्ठा दोनों ही दृष्टि से खतरे से खाली नहीं है। आज संदर्भ जहां पश्चिम में भावातीत ध्यान, साधना भक्ति वेदान्त, रामकृष्ण मिशन १. Mohenjodaro and Indus Civilization, John marshall आदि के कारण भारतीय ध्यान एवं योग-साधना की लोकप्रियता बढ़ी है Pub.- Indological Book House, Delhi, 1973 Vol. I. वहीं रजनीश आदि के कारण उसे एक झटका भी लगा है। आज श्री Page 52चित्तमुनिजी, स्वर्गीय आचार्य सुशीलकुमारजी, डॉ० हुकमचन्द्र भारिल्ल २. Dictonary of Pali Proper Names, By G.P. Malalaआदि ने जैन ध्यान और साधना-विधि से पाश्चात्य देशों में बसे हुए जैनों Sekhara Pub.- John Murray, Albemarle Street, को परिचित कराया है। तेरापंथ की कुछ जैन समणियों ने भी विदेशों मे London, (1937) Vol. I. P. 382-83. जाकर प्रेक्षाध्यान-विधि से उन्हें परिचित कराया है। यद्यपि इनमें कौन ३. सूत्रकृतांग सूत्र, संपा, मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन कहां तक सफल हुआ है यह एक अलग प्रश्न हैं, क्योंकि सभी के समिति, व्यावर, १९८२, १/३/४/२-३ अपने-अपने दावे हैं। फिर भी इतना तो निश्चित है कि आज पूर्व और ४.. स्थानांगसूत्र, संपा, मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन पश्चिम दोनों में ही ध्यान और योग-साधना के प्रति रुचि जागृत हुई है। समिति, व्यावर, १९८१, १०/१३३ (इसमें अन्तकृत्दशा की अत: आवश्यकता इस बात की है कि योग और ध्यान की जैन विधि प्राचीन विषय वस्तु का उल्लेख है) सुयोग्य साधकों और अनुभवी लोगों के माध्यम से ही पूर्व-पश्चिम में ५. इसिभसियाई- (ऋषिभाषित) संपा०- महोपाध्याय विनयसागर, विकसित हो, अन्यथा जिस प्रकार मध्ययुग में हठयोग और तंत्र साधना प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, १९८८ अध्याय २३ से प्रभावित होकर भारतीय योग और ध्यान परम्परा विकृत हुई थी उसी ६. वही, अध्याय २३ । प्रकार आज भी उसके विकृत होने का खतरा बना रहेगा और लोगों की वही २२/१४ उससे आस्था उठ जायेगी। ८. उत्तराध्ययनसूत्र संपा०- साध्वी चन्दना, प्रका० वीरायक्त प्रकाशन, आगरा, १९७२; २६/१८ ध्यान एवं योग संबंधी साहित्य ९. श्रमणसूत्र (उपाध्याय अमरमुनि), प्रका०- सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, इस युग में गवेषणात्मक दृष्टि से योग और ध्यान संबंधी सं० २००७ प्रथम संस्करण पृ० १३३-१३४ साहित्य को लेकर पर्याप्त शोधकार्य हआ है। जहां भारतीय योग साधना १०. उत्तराध्ययनसूत्र संपा०- साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन प्रकाशन, और पतञ्जलि के योगसूत्र पर पर्याप्त कार्य हुए हैं, वहीं जैन योग की आगरा, १९७२; २३/५५-५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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