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________________ ४७८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ हुई थी। हैं तो यह स्पष्ट लगता है कि उस पर अन्य भारतीय ध्यान एवं योग की पुनर्स्थापित करना था। भगवान् बुद्ध की ध्यान- साधना की विपश्यना परम्पराओं का प्रभाव आया है, जो हरिभद्र के पूर्व से ही प्रारंभ हो गया पद्धति की जो एक जीवित परम्परा किसी प्रकार से बर्मा में बची रही थी, था। हरिभद्र उनकी ध्यान-विधि को लेकर भी उसमें अपनी परम्परा के वह सत्यनारायणजी गोयनका के माध्यम से पुन: भारत में अपने जीवंत अनुरूप बहुत कुछ परिवर्तन किये थे। पूर्व मध्ययुग की जैन ध्यान- रूप में लौटी। उस ध्यान की जीवंत परम्परा के आधार पर जैनों को, साधना-विधि उस युग की योग-साधना-विधि से पर्याप्त रूप से प्रभावित भगवान महावीर की ध्यान-साधना की पद्धति क्या रही होगी, इसका आभास हुआ। जैन समाज का यह भी सद्भाग्य है कि कुछ जैन मुनि एवं मध्ययुग में ध्यान-साधना का प्रयोग भी बदला। प्राचीन काल साध्वियां उनकी विपश्यना की साधना-पद्धति से जुड़े। संयोग से मुनि श्री में ध्यान-साधना का प्रयोजन मात्र आत्म-विशुद्धि या चैतसिक समत्व नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ) जैसे प्राज्ञ साधक विपश्यना साधना से जुड़े था, किन्तु उमास्वाति (ईसा की तीसरी-चौथी शती) के युग में उसके और उन्होंने विपश्यना ध्यान-पद्धति तथा हठयोग की प्राचीन ध्यानसाथ विभिन्न ऋद्धियों और लब्धियों की चर्चा भी जुड़ी और यह माना पद्धति को आधुनिक मनोविज्ञान एवं शरीरविज्ञान के आधारों पर परख जाने लगा कि ध्यान-साधना से विविध अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त की जा और उन्हें जैन साधना परम्परा से आपूरित करके प्रेक्षाध्यान की जैनधारा सकती हैं। तत्त्वार्थभाष्य में उमास्वाति ने ध्यान से सिद्ध होने वाली विधि को पुनर्जीवित किया है। यह स्पष्ट है कि आज प्रेक्षाध्यान प्रक्रिया जैन लब्धियों की विस्तृत चर्चा की है जिनका उल्लेख हम सूरिमन्त्र की ध्यान की एक वैज्ञानिक पद्धति के रूप में अपना अस्तित्व बना चुकी है। साधना के प्रसंग में कर चुके है। उसकी वैज्ञानिकता और उपयोगिता पर भी कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगाया ध्यान की प्रभावशीलता को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक जा सकता है, किन्तु उसके विकास में सत्यनारायणजी गोयनका द्वारा तो था, किन्तु इसके अन्य परिणाम भी सामने आये। जब अनेक साधक भारत लायी गयी विपश्यना ध्यान की साधना-पद्धति के योगदान को भी इन हठयोगी साधनाओं के माध्यम से ऋद्धि या लब्धि प्राप्त करने में विस्मृत नहीं किया जा सकता। आज प्रेक्षाध्यान पद्धति निश्चित रूप से असमर्थ रहे तो उन्होंने यह मान लिया कि वर्तमान युग में ध्यान-साधना विपश्यना की ऋणी है। गोयनका जी का ऋण स्वीकार किए बिना हम संभव ही नहीं है। ध्यान-साधना की सिद्धि केवल उत्तम संहनन के धारक अपनी प्रामाणिकता को सिद्ध नहीं कर सकेंगे। साथ ही इस नवीन पद्धति मुनियों अथवा पूर्वधरों को ही संभव थी। ऐसे भी अनेक उल्लेख उपलब्ध के विकास में आचार्य महाप्रज्ञजी का जो महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है, उसे होते हैं जिनमें कहा गया है कि पंचमकाल में उच्चकोटि का धर्मध्यान या भी नहीं भुलाया जा सकता। उन्होंने विपश्यना से बहुत कुछ लेकर भी शुक्लध्यान संभव नहीं है। मध्ययुग में ध्यान प्रक्रिया में कैसे-कैसे उसे प्राचीन हठयोग की षट्चक्र भेदन आदि की अवधारणा से तथा परिवर्तन हुए, यह बात प्राचीन आगमों में तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं, आधुनिक मनोविज्ञान और शरीर विज्ञान से जिस प्रकार समन्वित और दिगम्बर जैन पुराणों, श्रावकाचारों एवं हरिभद्र, शुभचन्द्र, हेमचन्द्र आदि परिपुष्ट किया है, वह उनकी अपनी प्रतिभा का चमत्कार है। यहाँ विस्तार के ग्रंथों के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाती है। मध्यकाल में ध्यान से न तो विपश्यना के सन्दर्भ में और न प्रेक्षाध्यान के सन्दर्भ में कुछ कह की निषेधक और समर्थक दोनों धाराएं साथ-साथ संभव न हो, किन्तु पाना संभव है, किन्तु यह सत्य है कि ध्यान-साधना की इन पद्धतियों धर्मध्यान की साधना तो संभव है। मात्र यह ही नहीं, मध्ययुग में को अपना कर जैन साधक न केवल जैन ध्यान-पद्धति के प्राचीन स्वरूप धर्मध्यान के स्वरूप में काफी कुछ परिर्वतन किया गया और उसमें अन्य का कुछ आस्वाद करेंगे, अपितु तनावों से परिपूर्ण जीवन में आध्यात्मिक परम्पराओं की अनेक धारणाएं सम्मिलित हो गयीं। जैसे पिण्डस्थ, शान्ति और समता का आस्वाद भी ले सकेंगे। पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान, पार्थिवी, आग्नेयी, वायवीय, सम्यक् जीवन जीने के लिए विपश्यना और प्रेक्षाध्यान पद्धतियों वारुणीय एवं तत्त्ववती धारणाएँ, मातृकापदों एवं मंत्राक्षरों का ध्यान, का अभ्यास और अध्ययन आवश्यक है। हम आचार्य महाप्रज्ञ के प्राणायाम, षट्चक्रभेदन आदि इस युग में ध्यान संबंधी स्वतंत्र साहित्य इसलिए भी ऋणी हैं कि उन्होंने न केवल प्रेक्षाध्यान-पद्धति का विकास का भी पर्याप्त विकास हुआ। झाणाज्झयण (ध्यानशतक) से लेकर किया अपितु उसके अभ्यास केन्द्रों की स्थापना भी की। साथ ही जीवन ज्ञानार्णव, ध्यानस्तव, योगशास्त्र आदि अनेक स्वतंत्र ग्रंथ भी ध्यान पर विज्ञान ग्रंथमाला के माध्यम से प्रेक्षाध्यान से संबंधित लगभग ४८ लिखे गये। मध्ययुग तन्त्र, हठयोग और जैन ध्यान के समन्वय का युग लघुपुस्तिकाएं लिखकर उन्होंने जैन ध्यान-साहित्य को महत्त्वपूर्ण अवदान कहा जा सकता हैं। इस काल में जैन ध्यान-पद्धति योग परम्परा से, भी दिया है। विशेष रूप से हठयोग की परम्परा से एवं तांत्रिक परम्परा से पर्याप्त रूप यह भी प्रसन्नता का विषय है कि विपश्यना और प्रेक्षा की से प्रभावित और समन्वित हुई। ध्यान-पद्धतियों से प्रेरणा पाकर आचार्य नानालालजी ने समीक्षण ध्यान___आधुनिक युग तक यही स्थिति चलती रही। आधुनिक युग में विधि को प्रस्तुत किया और इस संबंध में एक-दो प्रारंभिक पुस्तिकाएं भी जैन ध्यान-साधना की पद्धति में पुनः एक क्रान्तिकारी परिवर्तन आया है। निकाली हैं; किन्तु प्रेक्षाध्यान-विधि की तुलना में उनमें न तो प्रतिपाद्य इस क्रान्ति का मूलभूत कारण तो श्री सत्यनारायणजी गोयनका द्वारा विषय की स्पष्टता है और न वैज्ञानिक प्रस्तुतीकरण ही। अभी-अभी क्रोध बौद्धों की प्राचीन विपश्यना साधना-पद्धति को बर्मा से लाकर भारत में समीक्षण आदि एक-दो पुस्तकें और भी प्रकार में आयी हैं किन्तु इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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