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________________ ४०८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ या वासना उत्पन्न होने की सम्भावना उठ खड़ी होती है। अत: हो जाने पर अपना विपाक (फल) देकर आत्मा से अलग हो जाता साधना-मार्ग के पथिक को सदैव ही जाग्रत रहते हुए, विषय सेवनरूप है, यह यथाकाल निर्जरा कही जाती है। इसे सविपाक, अकाम और छिद्रों से आने वाले कर्मास्रव या विकार से अपनी रक्षा करनी है। अनौपक्रमिक निर्जरा भी कहते हैं। यह सविपाक निर्जरा इसलिए कही सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है कि कछुआ जिस प्रकार अपने अंगों जाती है कि इसमें कर्म अपना विपाक देकर अलग होता है अर्थात् को अन्दर में समेट कर खतरे से बाहर हो जाता है, वैसे ही साधक इसमें फलोदय (विपाकोदय) होता है। इसे अकाम निर्जरा इस आधार भी अध्यात्म योग के द्वारा अन्तर्मुख होकर अपने को पाप वृत्तियों पर कहा गया है कि इसमें कर्म के अलग करने में व्यक्ति के संकल्प से सुरक्षित रखे। मन, वाणी, शरीर और इन्द्रिय व्यापारों का संयमन का तत्त्व नहीं होता है। उपक्रम शब्द प्रयास के अर्थ में आता है, ही साधना का लक्ष्य माना गया है। सच्चे साधक की व्याख्या करते इसमें वैयक्तिक प्रयास का अभाव होता है, अत: अनौपक्रमिक भी हुए दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि जो सूत्र तथा उसके रहस्य कहा जाता है। को जानकर हाथ, पैर, वाणी तथा इन्द्रियों का यथार्थ संयम रखता २. दूसरे जब तपस्या के माध्यम से कर्मों को उनके फल देने है (अर्थात् सन्मार्ग में विवेकपूर्वक लगता है), अध्यात्म रस में ही के समय के पूर्व अर्थात् उनकी काल-स्थिति परिपक्व होने के पहिले जो मस्त रहता है और अपनी आत्मा को समाधि में लगाता है वही ही प्रदेशोदय के द्वारा भोगकर बलात् अलग-अलग कर दिया जाता सच्चा साधक है। है तो ऐसी निर्जरा को सकाम निर्जरा कहा जाता है, क्योंकि निर्जरित होने में समय का तत्त्व अपनी स्थिति को पूरी नहीं करता है। इसे निर्जरा का अर्थ अविपाक निर्जरा भी कहते हैं, क्योंकि इसमें विपाकोदय या फलोदय __आत्मा के साथ कर्म-पुद्गल का सम्बन्ध होना बन्ध है और आत्मा नहीं होता है, मात्र प्रदेशोदय होता है। से कर्मवर्गणा का अलग होना निर्जरा है। संवर नवीन आने वाले विपाकोदय और प्रदेशोदय में क्या अन्तर है, इसे निम्न उदाहरण कर्म-पुद्गल का रोकना है, परन्तु मात्र संवर से निर्वाण की प्राप्ति से समझा जा सकता है। जब क्लोरोफार्म सुंघाकर किसी व्यक्ति की सम्भव नहीं । उत्तराध्ययनसूत्र में बताया गया है कि जैसे किसी बड़े चीर-फाड़ की जाती है तो उसमें उसे असातावेदनीय (दु:खानुभूति) तालाब के जल स्रोतों (पानी के आगमन के द्वारों) को बन्द कर दिया नामक कर्म का प्रदेशोदय होता है लेकिन विपाकोदय नहीं होता है। जाए और उसके अन्दर रहे हुए जल को उलीचा जाय तथा ताप से उसमें दुःखद वेदना के तथ्य तो उपस्थित होते हैं लेकिन दुःखद वेदना सुखाया जाए तो वह विस्तीर्ण तालाब भी सूख जायेगा। प्रस्तुत रूपक की अनुभूति नहीं है। इसी प्रकार प्रदेशोदय कर्म के फल का तथ्य में आत्मा ही सरोवर है, कर्म पानी है, कर्म का आस्रव ही पानी का तो उपस्थित हो जाता है, लेकिन उसकी फलानुभूति नहीं होती है। आगमन है। उस पानी के आगमन के द्वारों को निरुद्ध कर देना संवर अत: यह अविपाक निर्जरा कही जाती है। इसे सकाम निर्जरा भी कहा है और पानी का उलीचना और सुखाना निर्जरा है। यह रूपक यह जाता है, क्योंकि इसमें कर्म-परमाणुओं को आत्मा से अलग करने बताता है कि संवर से नये कर्म रूपी जल का आगमन (आस्रव) तो का संकल्प होता है। यह औपक्रमिक निर्जरा भी कही जाती है क्योंकि रुक जाता है लेकिन पूर्व में बन्धे हुए, सत्तारूप कर्मों का जल तो इसमें उपक्रम या प्रयास होता है। प्रयास पूर्वक, तैयारी सहित, कर्मवर्गणा आत्मा रूपी तालाब में शेष रहा हुआ है जिसे सुखाना है। यह कर्म के पुद्गलों को आत्मा से अलग किया जाता है। यह कर्मों को निर्जरित रूपी जल को सुखाना निर्जरा है। (क्षय) करने का कृत्रिम प्रकार है। अनौपक्रमिक या सविपाक निर्जरा अनिच्छापूर्वक, अशान्त एवं द्रव्य और भाव निर्जरा व्याकुल चित्तवृत्ति से, पूर्व संचित कर्म के प्रतिफलों का सहन करना __निर्जरा शब्द का अर्थ है पूर्णत: जर्जरित कर देना, झाड़ देना है जबकि अविपाक निर्जरा इच्छापूर्वक समभावों से जीवन की आई अर्थात् आत्मतत्त्व से कर्म-पुद्गल का अलग हो जाना अथवा अलग हुई परिस्थितियों का मुकाबला करना है। कर देना निर्जरा है। जैनाचार्यों ने यह निर्जरा दो प्रकार की मानी है। आत्मा की वह चैतसिक अवस्था जिसके द्वारा कर्म-पुद्गल अपना फल जैन साधना में औपक्रमिक निर्जरा का स्थान देकर अलग हो जाते हैं, भाव निर्जरा कही जाती है। भाव निर्जरा आत्मा जैन साधना की दृष्टि से निर्जरा का पहला प्रकार जिसे सविपाक की वह विशुद्ध अवस्था है, जिसके कारण कर्म-परमाणु आत्मा से या अनौपक्रमिक निर्जरा कहते हैं, अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है। यह पहला अलग हो जाते हैं। यही कर्म-परमाणुओं का आत्मा से पृथक्करण द्रव्य प्रकार साधना के क्षेत्र में ही नहीं आता है, क्योंकि कर्मों के बन्ध और निर्जरा है। भाव निर्जरा कारण-रूप है और द्रव्य निर्जरा कार्य-रूप है। निर्जरा का यह क्रम तो सतत् रूप से चला आ रहा है। हम प्रतिक्षण पुराने कर्मों की निर्जरा करते रहते हैं लेकिन जब तक नवीन कर्मों सकाम और अकाम निर्जरा का सृजन समाप्त नहीं होता ऐसी निर्जरा से सापेक्षिक रूप में कोई पुन: निर्जरा के दो अन्य प्रकार भी माने गये हैं- १. कर्म लाभ नहीं होता। जैसे कोई व्यक्ति पुराने ऋण का भुगतान तो करता जितनी काल मर्यादा (अवधिकाल) के साथ बँधा है, उसके समाप्त रहे, लेकिन नवीन ऋण भी लेता रहे तो वह ऋण मुक्त नहीं होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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