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________________ जैन विचारणा के अनुसार यह सविपाक निर्जरा तो आत्मा अनादिकाल से करता आ रहा है, लेकिन निर्वाण का लाभ प्राप्त नहीं कर सका। आचार्य कुन्दकुन्द " कहते हैं - यह चेतन आत्मा कर्म विपाक काल में सुखद और दुःखद फलों की अनुभूति करते हुए पुनः दुःख के बीज रूप आठ प्रकार के कर्मों का बन्ध कर लेता है, क्योंकि कर्म जब अपना विपाक देते हैं तो किसी निमित्त से देते हैं और अज्ञानी आत्मा शुभ निमित्त पर राग और अशुभ निमित्त पर द्वेष करके नवीन बन्ध कर लेता है। बन्धन से मुक्ति की ओर अतः साधना मार्ग के पथिक के लिए पहले यह निर्देश दिया गया कि वह प्रथम ज्ञान युक्त हो कर्मास्स्रव का निरोध कर अपने आपको संवृत करे। संवर के अभाव में जैन साधना में निर्जरा का कोई मूल्य नहीं, वह तो अनादिकाल से होती आ रही है किन्तु भव परम्परा को समाप्त करने में सहायक नहीं हुई। दूसरे यदि आत्मा संवर का समाचरण करता हुआ भी इस यथाकाल होने वाली निर्जरा की प्रतीक्षा में बैठा सन्दर्भ संकेत १. तत्त्वार्थसूत्र, विवे० पं० सुखलक संघवी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९७६, ९/१ २. स्थानांगसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८१, ५/२/४२७/ ३. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० साध्वी चन्दना, प्रका० वीरायतन प्रकाशन, आगरा, १९७२, २९ / २६ । धम्मपद, अनु० पं० राहुल सांकृत्यायन, प्रका० बुद्धविहार, लखनऊ, ३९०-३९३। ५. द्रव्य संग्रह। ६. समवायांगसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८२, ५/५/ ७. स्थानांगसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ४. Jain Education International ४०९ रहे तो भी वह शायद ही मुक्त हो सके, क्योंकि जैन मान्यता के अनुसार प्राणी के साथ बन्ध इतना अधिक है कि वह अनेक जन्मों में ही शायद इस कर्मबन्ध से स्वाभाविक निर्जरा के माध्यम से मुक्त हो सके। लेकिन इतनी लम्बी समयावधि में संवर से स्खलित होकर नवीन कर्मों के बन्ध की सम्भावना भी तो रही हुई है। अतः साधना मार्ग के पथिक के लिए जो मार्ग बताया गया है, वह है औपक्रमिक या अविपाक निर्जरा का महत्त्व इसी तप जन्य निर्जरा का है। ऋषिभाषितसूत्र १२ में ऋषि कहता है कि संसारी आत्मा प्रतिक्षण नए कर्मों का बन्ध और पुराने कर्मों की निर्जरा कर रहा है, लेकिन तप से होने वाली निर्जरा ही विशेष (महत्त्वपूर्ण ) है । बन्ध और निर्जरा का प्रवाह अविराम गति से बह रहा है किन्तु (जो) साधक संवर द्वारा नवीन आस्रव को निरुद्ध कर तपस्या द्वारा पुरातन कर्मों को क्षीण करता चलता है, वह अन्त में पूर्ण रूप से निष्कर्म बन जाता है, मुक्ति को प्राप्त कर लेता है । १३ ब्यावर, १९८१, ८/३/५९८ । सूत्रकृताङ्गसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८२, १/८/१६ । ९. दशवैकालिकसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८५, १०/१५ । ८. १०. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० साध्वी चन्दना, प्रका० वीरायतन प्रकाशन, आगरा, १९७२, ३० / ५-६ । ११. समयसार, कुन्दकुन्द प्रका० अहिंसा प्रकाशन मन्दिर, दरियागंज, देहली, १९५९, ३८९। १२. ऋषिभाषित सं० महोपाध्याय विनयसागर जी प्रका० प्राकृत अकादमी, जयपुर। १३. जैनधर्म, मुनि सुशील कुमार, प्रका० श्री अ० भा० श्वे० स्थानकवासी, जैन कान्फरेन्स, देहली, पृ० ८७ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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