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________________ ४०२ जैन विद्या के. आयाम खण्ड-६ गति में जा सकता है, उतना ही उच्च गति में जा सकता है। कुछ प्रति कोई ममत्व नहीं हो तो वह अपरिग्रही कहा जायेगा। इसके विपरीत प्राणी ऐसे हैं जो निम्न गति में बहुत निम्न स्थिति तक नहीं जाते, किन्तु एक व्यक्ति जो नग्न रहता है किन्तु उसमें ममत्व और मूर्छा का भाव वे सभी उच्च गति में भी समान रूप से जाते हैं, जैसे सम्मूर्छिम है तो वह अचेल होकर भी परिग्रही ही कहा जायेगा। साध्वी इसलिये जीव प्रथम नरक से आगे नहीं जा सकते, परिसर्प आदि द्वितीय नरक वस्त्र धारण नहीं करती है कि उसमें वस्त्र के प्रति कोई ममत्व है अपितु से आगे नहीं जा सकते, पक्षी तृतीय नरक से आगे नहीं जा सकते, ___ वह वस्त्र को जिनाज्ञा मानकर ही धारण करती है। पुनः वस्त्र उसके चतुष्पद चतुर्थ नरक से आगे नहीं जा सकते, सर्प पंचम नरक से लिये उसी प्रकार परिग्रह नहीं है, जिस प्रकार यदि किसी ध्यानस्थ आगे नहीं जा सकते। इस प्रकार निम्न गति में जाने से इन सब में नग्नमुनि के शरीर पर उपसर्ग के निमित्त से डाला गया वस्त्र उस मुनि भिन्नता है, किन्तु उच्चगति में ये सभी सहस्रार स्वर्ग तक बिना किसी के लिये परिग्रह नहीं होता। इसके विपरीत एक नग्न व्यक्ति भी यदि भेदभाव के जा सकते हैं। इसलिये यह कहना कि जो जितनी निम्न अपने शरीर के प्रति ममत्व भाव रखता है तो वह परिग्रही ही कहा गति तक जाने में सक्षम होता है, वह उतनी ही उच्च गति तक जाने जायेगा और ऐसा व्यक्ति नग्न होकर भी मोक्ष-प्राप्ति के अयोग्य ही में सक्षम होता है, तर्कसंगत नहीं है। अधोगति में जाने की अयोग्यता होता है। जबकि वह व्यक्ति जिसमें ममत्वभाव का पूर्णत: अभाव है, से उच्च गति में जाने की अयोग्यता सिद्ध नहीं होती। शरीर धारण करते हुए भी अपरिग्रह ही कहा जायगा। अत: जिनाज्ञा यदि यह कहा जाय कि वाद आदि की लब्धि से रहित, दृष्टिवाद के कारण संयमोपकरण के रूप में वस्त्र धारण करते हए भी नियमवान के अध्ययन से वंचित, जिनकल्प को धारण करने में असमर्थ और स्त्री अपरिग्रही ही है और मोक्ष की अधिकारिणी भी। मनःपर्यय ज्ञान को प्राप्त न कर पाने के कारण स्त्री की मुक्ति नहीं जिस प्रकार जन्तुओं से व्याप्त इस लोक में मुनि के द्वारा द्रव्यहो सकती, तो फिर यह मानना होगा कि जिस प्रकार आगम में जम्बूस्वामी हिंसा होती रहने पर भी कषाय के अभाव में वह अहिंसक ही माना के पश्चात् इन जिन बातों के विच्छेद का उल्लेख किया गया है, उसी जाता है, उसी प्रकार वस्त्र के सद्भाव में भी निर्ममत्व के कारण साध्वी प्रकार स्त्री के लिये मोक्ष के विच्छेद का भी उल्लेख होना चाहिये था। अपरिग्रही मानी जाती है। यह ज्ञातव्य है कि यदि हम हिंसा और अहिंसा यदि यह माना जाय कि स्त्री दीक्षा की अधिकारिणी न होने के की व्याख्या बाह्य घटनाओं अर्थात् द्रव्य-हिंसा (जीवघात) के आधार कारण मोक्ष की अधिकारिणी नहीं है,तो फिर आगमों में दीक्षा के अयोग्य पर न करके व्यक्ति के मनोभावों अर्थात् कषायों की उपस्थिति के आधार व्यक्तियों की सूची में जिस प्रकार शिशु को दुध पिलाने वाली स्त्री पर करते हैं, तो फिर परिग्रह के लिये भी यही कसौटी माननी होगी। तथा गर्भिणी स्त्री आदि का उल्लेख किया गया, उसी प्रकार सामान्य यदि हिंसा की घटना घटित होने पर भी कषाय एवं प्रमाद का अभाव स्त्री का भी उल्लेख किया जाना चाहिये था। होने से मुनि अहिंसक ही रहता है, तो फिर वस्त्र के होते हुए भी पुन: यदि यह कहा जाय कि वस्त्र धारण करने के कारण स्त्री मूर्छा के अभाव में साध्वी अपरिग्रही क्यों नहीं मानी जा सकती है। मोक्ष-प्राप्ति की अधिकारिणी नहीं है अथवा दूसरे शब्दों में वस्त्ररूपी स्त्री का चारित्र वस्त्र के बिना नहीं होता ऐसा अर्हत् ने कहा है। परिग्रह ही उसकी मुक्ति में बाधक है तो फिर प्रतिलेखन का ग्रहण तो फिर स्थविरकल्पी आदि के समान उसकी मुक्ति क्यों नहीं हो सकती? आदि भी मुक्ति में बाधक क्यों नहीं होंगे? यदि प्रतिलेखन का ग्रहण, ज्ञातव्य है कि स्थविरकल्पी मुनि भी जिनाज्ञा के अनुरूप वस्त्र-पात्र आदि उसका संयम उपकरण होने के कारण परिग्रह के अन्तर्गत नहीं माना ग्रहण करते हैं। पुन: अर्श, भगन्दर आदि रोगों में जिनकल्पी अचेल जाता है तो स्त्री के लिये वस्त्र भी जिनोपदिष्ट संयमोपकरण है, अतः । मुनि को भी वस्त्र ग्रहण करना होता है अत: उनकी भी मुक्ति सम्भव उसे परिग्रह कैसे माना जा सकता है? नहीं हो सकती। यद्यपि वस्त्र परिग्रह है, फिर भी भगवान् ने साध्वियों के लिये पुन: अचेलकत्व उत्सर्ग-मार्ग है, यह बात जब तक सिद्ध नहीं संयमोपकरण के रूप में उसको ग्रहण करने की अनुमति दी है, क्योकि होगी तब तक सचेल मार्ग को अपवाद मार्ग नहीं माना जायेगा। उत्सर्ग वस्त्र के अभाव में उनके लिये सम्पूर्ण चारित्र का ही निषेध हो जायेगा,अतः भी अपवाद सापेक्ष है । अपवाद के अभाव में उत्सर्ग, उत्सर्ग नहीं वस्त्र धारण करने में अल्प दोष होते हुए भी संयम पालन हेतु उसकी रह जाता। यदि अचेलता उत्सर्ग-मार्ग है तो सचेलता भी अपवादअनुमति दी गई है। जो संयम के पालन में उपकारी होता है, वह मार्ग है, दोनों ही मार्ग हैं, अमार्ग कोई भी नहीं हैं। अत: दोनों से धमोंपकरण या संयमोपकरण कहा जाता है, परिग्रह नहीं। अत: निम्रन्थी ही मुक्ति माननी होगी। का वस्त्र संयमोपकरण है, परिग्रह नहीं। पुन: जिस तरह आगमों में आठ वर्ष के बालक आदि की दीक्षा आगमों में साध्वी के लिये निर्ग्रन्थी शब्द का प्रयोग सर्वत्र हुआ का निषेध किया गया है, उसी प्रकार आगमों में यह भी कहा गया है। यदि यह माना जाय कि वस्त्र ग्रहण परिग्रह ही है तो फिर आगम है कि जो व्यक्ति तीस वर्ष की आयु को पार कर चुका हो और जिसकी में उसके लिये इस शब्द का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिये था, क्योंकि दीक्षा को उन्नीस वर्ष व्यतीत हो गये हों, वही जिनकल्प की दीक्षा निर्ग्रन्थ का अर्थ है परिग्रह से रहित। यदि संयमोपकरण परिग्रह है का अधिकारी है। यदि मुक्ति के लिये जिनकल्प अर्थात् नग्नता आवश्यक तो फिर कोई मुनि भी निर्ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता। यदि एक व्यक्ति होती, तो यह भी कहा जाना चाहिए था कि तीस वर्ष मे कम उम्र वस्त्र और आभूषणों से सुसज्जित भी है किन्तु उसके मन में उनके का व्यक्ति मुक्ति के अयोग्य है। किन्तु सभी परम्पराएँ एक मत से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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