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________________ ४०३ स्त्री, अन्यतैर्थिक एवं सवस्त्र की मुक्ति का प्रश्न यह मानती हैं कि मुक्ति के लिये तीस वर्ष की आयु होना आवश्यक भी सिद्ध-क्षेत्र उल्लिखित नहीं है तो यह बात अनेक पुरुषों के सम्बन्ध नहीं है। सामान्य रूप से इसका अर्थ हुआ कि जिनकल्प अर्थात् नग्नता में भी कही जा सकती है। सभी पुरुषों के सिद्ध-क्षेत्र तो प्रसिद्ध के बिना भी मुक्ति सम्भव है, अतः स्त्रीमुक्ति सम्भव है। नहीं हैं। आगमों में संवर और निर्जरा के हेतु रूप बहुत प्रकार की तप यदि यह तर्क प्रस्तुत किया जाय कि स्त्रियों में पुरुषार्थ की कमी विधियों का निर्देश है। जिस प्रकार योग और चिकित्सा की अनेक होती है इसलिये वे मुक्ति की अधिकारिणी नहीं है, किन्तु हम देखते विधियाँ होती हैं और व्यक्ति की अपनी प्रकृति के अनुसार उनमें से हैं कि आगमों में ब्राह्मी, सुन्दरी, राजीमति, चन्दना आदि अनेक स्त्रियों कोई एक ही विधि उपकारी सिद्ध होती है, सबके लिये एक ही विधि के उल्लेख हैं जो पुरुषार्थ और साधना में पुरुषों से कम नहीं थीं। उपकारी सिद्ध नहीं होती; उसी प्रकार आचार में भी कोई जिनकल्प अत: यह तर्क भी युक्तिसंगत नहीं है। की साधना के योग्य होता है तो कोई स्थविरकल्प की साधना के। पुन: एक तर्क यह भी दिया जा सकता है कि जो व्यक्ति बहुत इसलिये वस्त्र का त्याग होने से स्त्री के लिये मोक्ष का अभाव नहीं पापी.और मिथ्यादृष्टिकोण से युक्त होता है वही स्त्री के रूप में जन्म है, क्योंकि मोक्ष के लिये तो रत्नत्रय के अतिरिक्त अन्य कोई भी बात लेता है। सम्यग्दृष्टि प्राणी स्त्री के रूप में जन्म ही नहीं लेता। तात्पर्य आवश्यक नहीं है। यह है कि स्त्री-शरीर का ग्रहण पाप के परिणामस्वरूप होता है इसलिये पुन: स्त्री की ननदीक्षा का निषेध कर देने का अर्थ भी उसकी स्त्री-शरीर मुक्ति के योग्य नहीं है। साथ ही दिगम्बर परम्परा यह भी मुक्ति की योग्यता का निषेध नहीं है, क्योंकि जिनशासन की प्रभावना मानती है कि एक सम्यग्दृष्टि व्यक्ति स्त्री, पशु-स्त्री, प्रथम नरक के के लिये उन व्यक्तियों की प्रव्रज्या का निषेध भी किया जाता है जो बाद के नरक, भूत-पिशाच आदि और देवी के रूप में जन्म नहीं लेता। रत्नत्रय के पालन में सक्षम होते हैं। तात्पर्य है कि किसी के अचेल पापी आत्मा ही इन शरीरों को धारण करता है। अत: स्त्री-शरीर मुक्ति दीक्षा के निषेध से उसकी मुक्ति का निषेध सिद्ध नहीं होता है। के योग्य नहीं है। इस सम्बन्ध में यापनीयों का कथन है कि दिगम्बर यदि यह कहा जाय कि स्त्रियाँ इसलिये सिद्ध नहीं हो सकती परम्परा की यह मान्यता प्रमाणरहित है। दूसरे जब सम्यग्दर्शन का उदय हैं क्योंकि वे मुनियों के द्वारा वन्दनीय नहीं होती, जैसा कि आगम होता है, तब सभी कर्म मात्र एक कोटाकोटि सागरोपम की स्थिति में कहा गया है कि सौ वर्ष की दीक्षिता साध्वी भी एक दिन के नव के रह जाते हैं, ६९ कोटाकोटि सागरोपम स्थिति के कर्म तो मिथ्यादृष्टि दीक्षित मुनि को वन्दन करे। इसके प्रत्युत्तर में शाकटायन कहते हैं व्यक्ति भी समाप्त कर सकता है। अत: सम्यग्दर्शन का उदय होने कि मुनि के द्वारा वन्दनीय न होने से उन्हें मोक्ष के अयोग्य मानोगे पर स्त्रियाँ अवशिष्ट मात्र एक कोटाकोटि सागरोपम के कर्मों को क्यों तो फिर यह भी मानना पड़ेगा कि अर्हत् (तीर्थङ्कर) के द्वारा वन्दनीय क्षय नहीं कर सकती? फिर भी स्त्री में कर्म-क्षय करने की शक्ति का न होने से कोई भी व्यक्ति मोक्ष का अधिकारी नहीं होगा क्योंकि अर्हत् अभाव मानना युक्तिसंगत नहीं है। तो किसी को भी वन्दन नहीं करता है। इसी प्रकार स्थविरकल्पी मुनि, पुनः आगमों में स्त्रीमुक्ति के उल्लेख भी हैं। मथुरागम में कहा जिनकल्पी मुनि के द्वारा वन्दनीय नहीं हैं, अत: यह भी मानना होगा गया है कि एक समय में अधिकतम १०८ पुरुष, २० स्त्रियाँ और कि स्थविरकल्पी मुनि भी मोक्ष के अधिकारी नहीं हैं। इसी प्रकार जिन, १० नपुंसक सिद्ध हो सकते हैं।२१ ज्ञातव्य है कि यह उल्लेख गणधर को वन्दन नहीं करते हैं, अत: गणधर भी मोक्ष के अधिकारी उत्तराध्ययनसूत्र का है, जिसकी माथुरीवाचना यापनीयों को भी मान्य नहीं हैं। यह लौकिक व्यवहार मुक्ति का कारण नहीं है। मुक्ति का कारण थी। इसके अतिरिक्त आगम में स्त्री के १४ गुणस्थान कहे गये हैं। तो व्रत-पालन है और व्रत-पालन में स्त्री-पुरुष समान ही माने सम्भवतः शाकटायन का यह निर्देश षट्खण्डागम के प्रसंग में है। गए हैं। ज्ञातव्य है कि षट्खण्डागम दिगम्बरों को भी मान्य है। इस वचन के सभी सांसारिक विषयों में तो स्त्रियाँ पुरुषों से निम्न ही मानी प्रति दिगम्बर परम्परा का यह कहना है कि यहाँ स्त्री से तात्पर्य भावस्त्री जाती हैं। अत: मोक्ष के सम्बन्ध में भी उन्हें निम्न ही क्यों नहीं माना (स्त्रीवेदी जीव) अर्थात् उस पुरुष से है जिसका स्वभाव स्त्रैण हो। इस जाना चाहिए? तीर्थङ्कर पद भी तो केवल पुरुष को ही प्राप्त होता सम्बन्ध में शाकटायन का प्रत्युत्तर यह है कि किसी शब्द का दूसरा है इसलिए पुरुष ही मुक्ति का अधिकारी है। इसके प्रत्युत्तर में यापनीयों गौण अर्थ होते हुए भी, जब तक उस सन्दर्भ में उसका प्रथम अर्थ का तर्क यह है कि तीर्थङ्कर तो केवल क्षत्रिय होते हैं, ब्राह्मण, शूद्र, उपयुक्त हो तब तक दूसरा गौण अर्थ नहीं लिया जा सकता। प्रत्येक वैश्य तो तीर्थङ्कर नहीं होते, तो फिर क्या यह माना जाय कि ब्राह्मण, शब्द का अपना एक निश्चित रूढ़ अर्थ होता है और बिना पर्याप्त शूद्र, वैश्य मुक्ति के अधिकारी नहीं होते? पुन: सिद्ध न तो स्त्री है, कारण के उस निश्चित रूढ़ अर्थ का त्याग नहीं किया जा सकता। न पुरुष। अत: सिद्ध का लिंग से कोई सम्बन्ध ही नहीं है। पुनः जब तक व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ या रूढ़ अर्थ ग्राह्य है, तब तक दूसरा यदि यह तर्क दिया जाय कि स्त्रियाँ कपटवृत्ति वाली या मायावी अर्थ लेने की आवश्यकता नहीं है। स्त्री शब्द स्त्रीशरीरधारी अर्थात् होती हैं तो इसका प्रत्युत्तर यह है कि व्यवहार में तो पुरुष भी मायावी स्तन, गर्भाशय आदि से युक्त प्राणी के लिये ही प्रयुक्त होता है। यहाँ देखे जाते हैं। (षट्खण्डागम के प्रस्तुत प्रसंग में) स्त्री शब्द का अन्य कोई अर्थ उसी पुनः याद यह कहा जाय कि पुरुष के समान स्त्रियों का कोई प्रकार निरर्थक है जैसे कोई अग्निपुत्र नामक व्यक्ति का अर्थ अग्नि से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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