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________________ स्त्री. अन्यतैर्थिक एवं सवस्त्र की मुक्ति का प्रश्न ४०१ आपत्ति उठाई जा सकती है कि सभी मनुष्य भी तो सिद्ध नहीं होते, इसके प्रत्युत्तर में यह कहा गया है कि स्त्रियाँ कल्याण-भाजन होती जैसे अनार्य-क्षेत्र में या भोगभूमि में उत्पन्न मनुष्य। इसका प्रत्युत्तर यह हैं, क्योंकि वे तो तीर्थङ्करों को जन्म देती हैं। अत: स्त्री उत्तम धर्म है कि स्त्रियाँ आर्य देश में भी तो उत्पन्न होती हैं। यदि यह कहा जाय अर्थात् मोक्ष की अधिकारिणी हो सकती है। हरिभद्र ने इसके अतिरिक्त कि आर्य देश में उत्पन्न होकर भी असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले सिद्धों के पन्द्रह भेदों की चर्चा करते हुए सिद्धप्राभृत का भी एक सन्दर्भ अर्थात् योगलिक मुक्ति के योग्य नहीं होते, तो इसका प्रत्युत्तर यह प्रस्तुत किया है। सिद्धप्राभृत में कहा गया है कि सबसे कम स्त्री-तीर्थङ्कर है कि सभी स्त्रियाँ असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाली भी नहीं होती। (तीर्थङ्करी) सिद्ध होती हैं।१८ उनकी अपेक्षा स्त्री तीर्थङ्कर के तीर्थ में पुन: यदि यह तर्क दिया जाय कि संख्यात वर्ष की आयु वाले होकर नौ तीर्थङ्कर सिद्ध असंख्यातगुणा अधिक होते हैं। उनकी अपेक्षा स्त्री भी जो अतिक्रूरमति हों, वे भी मुक्ति के पात्र नहीं होते तो इसका तीर्थङ्कर के तीर्थ में नौ तीर्थङ्करी सिद्ध (स्त्री शरीर से सिद्ध) असंख्यातगुणा उत्तर यह है कि सभी स्त्रियाँ अतिक्रूरमति भी नहीं होती क्योंकि स्त्रियों अधिक होते हैं। सिद्धप्राभृत (सिद्धपाहुड) एक पर्याप्त प्राचीन ग्रन्थ में तो सप्तम नरक की आयुष्य बाँधने योग्य तीव्र रौद्रध्यान का अभाव है, जिसमें सिद्धों के विभिन्न अनुयोगद्वारों की चर्चा हुई है। ज्ञातव्य होता है। यह उसमें अतिक्रूरता के अभाव का तथा उसके करुणामय है कि हरिभद्र के समकालीन सिद्धसेनगणि ने अपने तत्त्वार्थभाष्य की स्वभाव का प्रमाण है और इसलिये उसमें मुक्ति के योग्य प्रकृष्ट शुभभाव वृत्ति में सिद्धप्राभृत का एक सन्दर्भ दिया है। यह ग्रन्थ अनुमानत: का अभाव नहीं माना जा सकता। पुन: यदि यह कहा जाय कि स्वभाव नन्दीसूत्र के पश्चात् लगभग सातवीं शती में निर्मित हुआ होगा। से करुणामय होकर भी जो मोह को उपशान्त करने में समर्थ नहीं इस प्रकार यापनीय परम्परा में ही सर्वप्रथम स्रीमुक्ति का तार्किक होता, वह भी मुक्ति का अधिकारी नहीं होता, तो ऐसा भी नहीं है, समर्थन करने का प्रयास हुआ है। यह हम पूर्व में ही कह चुके हैं क्योकि कुछ स्त्रियाँ मोह का उपशमन करती हुई देखी जाती हैं। यदि कि श्वेताम्बर आचार्यों ने स्त्रीमुक्ति के समर्थन में जो तर्क दिये हैं वे यह कहा जाय कि मोह का उपशान्त करने पर भी यदि कोई व्यक्ति मुख्यतः यापनीयों का ही अनुसरण हैं। ललितविस्तरा में अपनी ओर अशुद्धाचारी है, तो वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता तो इसके निराकरण से एक भी नया तर्क नहीं दिया गया है, मात्र यापनीयतन्त्र के कथन के लिये कहा गया है कि सभी स्त्रियाँ अशुद्धाचारी (दुराचारी) नहीं का स्पष्टीकरण किया गया है । इसका कारण यह है कि श्वेताम्बरों होती। इस पर यदि कोई तर्क करे कि शुद्ध आचार वाली होकर भी को स्त्रीमुक्ति निषेधक परम्परा का ज्ञान यापनीयों के माध्यम से ही हुआ, स्त्रियाँ शुद्ध शरीर वाली नहीं होती, इसलिये वे मोक्ष की अधिकारिणी क्योंकि कुन्दकुन्द की स्त्रीमुक्ति निषेधक परम्परा सुदूर दक्षिण में ही नहीं हैं, तो इसके प्रत्युत्तर में यह कहा गया है कि सभी स्त्रियाँ तो प्रस्थापित हुई थी। अत: उसका उत्तर भी दक्षिण में अपने पैर जमा अशुद्ध शरीर वाली नहीं होती। पूर्व कर्मों के कारण कुछ स्त्रियों की रही यापनीय परम्परा को ही देना पड़ा। कुक्षि, स्तन-प्रदेश आदि अशुचि से रहित भी होते हैं। यह तर्क कुन्दकुन्द यापनीय आचार्य शाकटायन ने तो स्री-निर्वाण-प्रकरण नामक की अवधारणा का स्पष्ट प्रत्युत्तर है। पुनः शुद्ध शरीर वाली होकर स्वतन्त्र ग्रन्थ की ही रचना की है। वे अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ मे ही भी यदि स्त्री परलोक हितकारी प्रवृत्ति से रहित हो तो मोक्ष की अधिकारिणी कहते हैं कि शक्ति और मुक्ति के प्रदाता निर्मल अर्हत् के धर्म को नहीं हो सकती, परन्तु ऐसा भी नहीं देखा जाता। कुछ स्त्रियाँ परलोक प्रणाम करके मैं संक्षेप में स्त्री-निर्वाण और केवली-भुक्ति को कहूँगा।२० सुधारने के लिये प्रयत्नशील भी देखी जाती हैं। यदि यह कहा जाय इसी ग्रन्थ में शाकटायन कहते हैं कि रत्नत्रय की सम्पदा से युक्त होने कि परलोक हितार्थ प्रवृत्ति करने वाली स्त्री भी यदि अपूर्वकरण आदि के कारण पुरुष के समान ही स्त्री का भी निर्वाण सम्भव है। यदि से रहित हो, तो मुक्ति के योग्य नहीं हैं। किन्तु शास्त्र में स्त्री भाव यह कहा जाय कि स्त्रीत्व, रत्नत्रय की उपलब्धि में वैसे ही बाधक के साथ अपूर्वकरण का भी कोई विरोध नहीं दिखलाया गया है। इसके है, जैसे देवत्व आदि, तो यह तुम्हारा अपना कथन हो सकता है। विपरीत शास्त्र में स्त्री में भी अपूर्वकरण का सद्भाव प्रतिपादित है। आगम में और अन्य ग्रन्थों में इसका कोई प्रमाण नहीं है। एक साध्वी पुन: यदि यह कहा जाय कि अपूर्वकरण से युक्त होकर भी यदि कोई जिन-वचनों को समझती है, उन पर श्रद्धा रखती है और उनका निर्दोष स्त्री नवम गुणस्थान को प्राप्त करने में अयोग्य हो तो वह मुक्ति की रूप से पालन करती है, इसलिये रत्नत्रय की साधना का स्त्रीत्व से अधिकारिणी नहीं हो सकती। किन्तु आगम में स्त्री में नवम गुणस्थान कोई भी विरोध नहीं है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि रत्नत्रय का भी सद्भाव प्रतिपादित है। पुन: यदि यह तर्क दिया जाय कि की साधना स्त्रीत्व के लिये अशक्य है तथा जो अदृष्ट अर्थात् अशक्य नवम गुणस्थान को प्राप्त करने में समर्थ होने पर भी यदि स्त्री में लब्धि है उसके साथ असंगति बताने का तो कोई अर्थ ही नहीं है। यदि प्राप्त करने की योग्यता नहीं है तो वह कैवल्य आदि को प्राप्त नहीं यह कहा जाय कि स्त्री में सातवें नरक में जाने की योग्यता का अभाव कर पाती है। इसके प्रत्युत्तर में कहा गया है कि वर्तमान में भी स्त्रियों है, इसलिये वह निर्वाण-प्राप्ति के योग्य नहीं है। किन्तु ऐसा अविनाभाव में आमर्ष-लब्धि अर्थात् शरीर के मलों का औषधि रूप में परिवर्तित या व्याप्ति सम्बन्ध द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि जो सातवें हो जाना आदि लब्धि स्पष्ट रूप से देखी जाती है। अत: वह लब्धि नरक में नहीं जा सकता वह निर्वाण को प्राप्त नहीं कर सकता। चरम से रहित भी नहीं है। यदि यह कहा जाय कि स्त्री लब्धि योग्य होने शरीरी जीव तद्भव में भी सातवें नरक में नहीं जा सकते, किन्तु तद्भव पर भी कल्याण-भाजन न हो तो वह मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकेगी। मोक्ष जाते हैं। पुनः ऐसा कोई नियम नहीं है कि जो जितना निम्न www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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