SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 527
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०० जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ खण्डन यापनीयों ने लगभग सातवीं शताब्दी में किया और यापनीयों गई। अचेल परम्परा में भी कुन्दकुन्द के पूर्व स्त्रियाँ दीक्षित होती थीं के तर्कों को गृहीत करके ही आठवीं शताब्दी से श्वेताम्बर परम्परा में और उनको महाव्रत भी प्रदान किये जाते थे। दिगम्बर परम्परा में कुन्दकुन्द भी स्त्रीमुक्ति निषेध दिगम्बर परम्परा का खण्डन किया जाने लगा। ही ऐसे प्रथम आचार्य प्रतीत होते हैं जिन्होंने स्पष्ट रूप से स्त्री की यापनीयतन्त्र के पश्चात् स्त्रीमुक्ति के समर्थन में सर्वप्रथम यापनीय आचार्य प्रव्रज्या का निषेध किया था और यह तर्क दिया था कि स्त्रियाँ स्वभाव शाकटायन ने लगभग नवीं शती में 'स्त्री-निर्वाण-प्रकरण' नामक स्वतन्त्र से ही शिथिल परिणाम वाली होती हैं, इसलिये उनके चित्त की विशद्धि ग्रन्थ की रचना की और उस पर स्वोपज्ञवृत्ति भी लिखी। इसके बाद सम्भव नहीं है। साथ ही यह भी कहा गया कि स्त्रियाँ मासिक धर्म दोनों ही परम्पराओं में स्त्रीमुक्ति के पक्ष एवं विपक्ष में लिखा जाने वाली होती हैं, अत: स्त्रियों में नि:शंका ध्यान सम्भव नहीं है। यह लगा। स्त्रीमुक्ति के पक्ष में श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्र (आठवीं शती) सत्य है कि शारीरिक तथा सामाजिक कारणों में पूर्ण नग्नता स्त्री के के पश्चात् अभयदेव (ई० सन् १०००), शान्तिसूरि (ई० सन् ११२०), लिये सम्भव नहीं है और जब सवस्त्र की प्रव्रज्या एवं मुक्ति का निषेध मलयगिरि (ई० सन् ११५०), हेमचन्द्र (ई० सन् ११६०), वादिदेव कर दिया गया तो स्त्रीमुक्ति का निषेध तो उसका अनिवार्य परिणाम (ई० सन् ११७०), रत्नप्रभ (ई० सन् १२५०), गुणरत्न (ई० सन् था ही। पुन: आचार्य कुन्दकुन्द ने अपरिग्रह के साथ-साथ स्त्री के द्वारा १४००), यशोविजय (ई० सन् १६६०), मेघविजय (ई० सन् अहिंसा का पूर्णत: पालन भी असम्भव माना। उनका तर्क है कि स्त्रियों १७००) ने अपनी कलम चलाई। दूसरी ओर स्त्रीमुक्ति के विपक्ष में के स्तनों के अन्दर में, नाभि एवं कुक्षि (गर्भाशय) में सूक्ष्मकाय जीव दिगम्बर परम्परा में वीरसेन (लगभग ई० सन् ८००), देवसेन (ई० होते हैं। इसलिये उनकी प्रव्रज्या कैसे हो सकती है।१६ यहाँ यह स्मरणीय सन् ९८०), नेमिचन्द (ई० सन् १०५०), प्रभाचन्द (ई० सन् ९८०- है कि कुन्दकुन्द ने जो तर्क प्रस्तुत किये हैं वे वस्तुत: स्त्री की प्रव्रज्या १०६५), जयसेन (ई ० सन् ११५०), भावसेन (ई० सन् १२७५) । के निषेध के लिये हैं। स्त्रीमुक्ति का निषेध तो उसका अनिवार्य फलित आदि ने अपनी लेखनी चलाई।१२ यहाँ हमारे लिये उन सबकी विस्तृत अवश्य है क्योंकि जब अचेलता ही एकमात्र मोक्ष-मार्ग है और स्त्री चर्चा करना सम्भव नहीं है। इस सन्दर्भ में हम यापनीय आचार्यों के के लिये अचेलता सम्भव नहीं है तो फिर उसके लिये न तो प्रव्रज्या कुछ प्रमुख तों का उल्लेख करके इस विषय को विराम देंगे। जो सम्भव होगी और न ही मुक्ति। पाठक इस सम्बन्ध में विशेष जानने को इच्छुक हों, उन्हें प्रो० पद्मनाभ हम देखते हैं कि कुन्दकुन्द के इन तर्कों का सर्वप्रथम उत्तर सम्भवत: जैनी के ग्रन्थ (Gender Salvation) को देखना चाहिये। यापनीय परम्परा के 'यापनीयतन्त्र' (यापनीय-आगम) नामक ग्रन्थ में जैसा कि हमने पूर्व में सूचित किया है, श्वेताम्बर मान्य आगम दिया गया है। वर्तमान में यह ग्रन्थ अनुपलब्ध है किन्तु इसका साहित्य में स्त्रीमुक्ति के उल्लेख तो मिलते हैं किन्तु उनमें कहीं भी वह अंश जिसमें स्त्रीमुक्ति का समर्थन किया गया है, हरिभद्र के उसका तार्किक समर्थन नहीं हुआ है। दिगम्बर परम्परा में स्त्रीमुक्ति का ललितविस्तरा में उद्धृत होने से सुरक्षित है। उसमें कहा गया है कि सर्वप्रथम तार्किक खण्डन कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में मिलता है। कुन्दकुन्द स्त्री अजीव नहीं है, न वह अभव्य है, न सम्यग्दर्शन के अयोग्य है, ने इस सम्बन्ध में सर्वप्रथम तो यही तर्क दिया था कि जिनशासन न अमनुष्य है, न अनार्यक्षेत्र में उत्पन्न है, न असंख्यात आयष्यवाली में वस्त्रधारी सिद्ध नहीं हो सकता चाहे वह तीर्थङ्कर ही क्यों न हो? १३ है, न वह अतिक्रूरमति है, न उपशान्त-मोह है, न अशुद्धाचारी है, इससे ऐसा लगता है कि स्त्रीमुक्ति के निषेध की आवश्यकता तभी न अशुद्धशरीरा है, न वह वर्जित व्यवसायवाली है, न अपूर्वकरण हुई जब अचेलता को ही एक मात्र मोक्षमार्ग मान लिया गया। हमें की विरोधी है, न नवें गुणस्थान से रहित है, न लब्धि से रहित है यहां कहने में संकोच नहीं है कि अचेलता के एकान्त आग्रह ने ही और न अकल्याण भाजन है तो फिर वह उत्तम धर्म अर्थात् मोक्ष की इस अवधारणा को जन्म दिया, क्योकि शारीरिक आवश्यकता एवं आराधक क्यों नहीं हो सकती? १७ । सामाजिक मर्यादा के कारण स्त्री नग्न नहीं रह सकती। नग्न हुए बिना आचार्य हरिभद्र ने उक्त यापनीय सन्दर्भ की विस्तृत व्याख्या भी मुक्ति नहीं होती, इसलिये स्त्री मुक्त नहीं हो सकती। इसी आग्रह के की है। वे लिखते हैं-जीव ही सर्वोत्तम धर्म, मोक्ष की साधना कर कारण गृहस्थलिंगसिद्ध और अन्यलिंगसिद्ध (सग्रन्थ-मुक्ति) की आगमिक सकता है और स्त्री जीव है, इसलिये वह सर्वोत्तम धर्म की आराधक अवधारणा का निषेध भी आवश्यक हो गया। आगे चलकर जब स्त्री क्यों नहीं हो सकती? यदि यह कहा जाय कि सभी जीव तो मुक्ति को प्रव्रज्या के अयोग्य बताने के लिये तर्क आवश्यक हुए, तो यह के अधिकारी नहीं है जैसे अभव्य, तो इसका उत्तर यह है कि सभी कहा गया कि यदि स्त्री, दर्शन से शुद्ध तथा मोक्षमार्ग से मुक्त होकर स्त्रियाँ तो अभव्य भी नहीं होती। पुन: यह तर्क भी दिया जा सकता घोर चारित्र का पालन कर रही हो, तो भी उसे प्रव्रज्या नहीं दी जा है कि सभी भव्य भी तो मोक्ष के अधिकारी नहीं है। जैसे-मिथ्यादृष्टिसकती। १४ वास्तविकता यह है कि जब प्रव्रज्या को अचेलता से भी भव्यजीव, तो इसका उत्तर यह है कि सभी स्त्रियाँ तो सम्यक् दर्शन जोड़ दिया गया तब यह कहना आवश्यक हो गया कि स्त्री पंचमहाव्रत के अयोग्य भी नहीं कही जा सकती। यदि इस पर यह कहा जाय रूप दीक्षा की अधिकारिणी नहीं है। यह भी प्रतिपादन किया गया कि स्त्री के सम्यग्दृष्टि होने से क्या होता है, पशु भी सम्यग्दृष्टि हो कि जो सवस्त्रलिंग है वह श्रावकों का है। अत: क्षुल्लक एवं ऐलक सकता है, किन्तु वह तो मोक्ष का अधिकारी नहीं होता है। इस पर के साथ-साथ आर्यिका की गणना भी श्रावक/श्राविका के वर्ग में की यापनीयों का प्रत्युत्तर यह है कि स्त्री पशु नहीं, मनुष्य है। पुन: यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy