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________________ स्त्री, अन्यतैर्थिक एवं सवस्त्र की मुक्ति का प्रश्न की सम्भावना स्वीकार कर प्रकारान्तर से उसकी तद्भव मुक्ति स्वीकार विशेषावश्यकभाष्य (छठी शती) और आवश्यकचूर्णि (सातवीं शती) की गई है। इस प्रकार हम देखते हैं कि स्त्रीमुक्ति के निर्देश हमें ईस्वी में हमें अचेलकत्व और सचेलकत्व के प्रश्न को लेकर आर्य शिवभूति पूर्व के आगमिक ग्रन्थों से लेकर ईसा की सातवीं शती तक की आगमिक और आर्य कृष्ण के मध्य हुए विवाद के पक्ष और प्रतिपक्ष के विविध व्याख्याओं में मिलते हैं। फिर भी उनमें कहीं भी स्त्रीमुक्ति की तार्किक तर्कों का उल्लेख तो मिलता है, किन्तु चूर्णि के काल तक अर्थात् सिद्धि का कहीं कोई प्रयत्न नहीं देखा जाता। इसकी तार्किक सिद्धि सातवीं शताब्दी के अन्त तक हमें एक भी संकेत ऐसा नहीं मिलता, की आवश्यकता तो तब होती, जब किसी ने उसका निषेध किया होता। जिसमें श्वेताम्बर आचार्यों ने स्त्रीमुक्ति का तार्किक समर्थन किया हो। स्त्रीमुक्ति का निषेध कुन्दकुन्द के पूर्व किसी भी आचार्य ने किया हो, इससे ऐसा लगता है कि सातवीं शताब्दी तक उन्हें इस तथ्य की जानकारी ऐसा एक भी प्रमाण नहीं है। यद्यपि यह विवाद का विषय रहा है भी नहीं थी कि स्त्रीमुक्ति के सन्दर्भ में कोई प्रतिपक्ष भी है। स्त्री की कि सुत्तपाहुड कुन्दकुन्द की रचना है या नहीं। फिर भी एक बार यदि प्रव्रज्या (महाव्रतारोपण) और स्त्रीमुक्ति का निषेध सर्वप्रथम आचार्य हम यह मान भी लें कि सुत्तपाहुड कुन्दकुन्द की ही रचना है, तो कुन्दकुन्द ने लगभग छठी शताब्दी में किया और उस सम्बन्ध में अपने भी उस ग्रन्थ एवं उसके कर्ता का काल छठी शताब्दी के पूर्व का कुछ तर्क भी दिये। पूज्यपाद ने स्त्रीमुक्ति का निषेध तो किया, फिर तो नहीं हो सकता, क्योंकि कुन्दकुन्द की रचनाओं में गुणस्थान और भी उन्होंने स्त्रीमुक्ति के खण्डन के सन्दर्भ में कोई तर्क प्रस्तुत नहीं सप्तभंगी की अवधारणाएँ स्पष्ट रूप से उल्लिखित हैं जो लगभग पाँचवीं- किया। आचार्य कुन्दकुन्द ने ही सर्वप्रथम सुत्तपाहुड में यह कहा है छठी शती में अस्तित्व में आ चुकी थी। एम० ए० ढाकी ने कुन्दकुन्द कि जिन-मार्ग में सवस्त्र की मुक्ति नहीं हो सकती चाहे वह तीर्थङ्कर के समय पर पूर्व मान्यताओं की समीक्षा करते हुए विस्तार से विचार ही क्यों न हों? सवस्त्र की मुक्ति के निषेध में स्त्रीमुक्ति का निषेध किया है और वे उन्हें छठी शताब्दी के पूर्व का किसी भी स्थिति में गर्भित है, क्योंकि स्त्री निर्वस्त्र नहीं हो सकती है। स्त्री का महाव्रतारोपण स्वीकार नहीं करते हैं। __अर्थात् प्रव्रज्या क्यों नहीं हो सकती इसके सन्दर्भ में यह कहा गया तत्त्वार्थभाष्य (लगभग चतुर्थ शती) में सिद्धों के अनुयोगद्वार की है कि इसके कुक्षि (गर्भाशय), नाभि और स्तन में सूक्ष्म जीव होते चर्चा करते हुए लिंगानुयोगद्वार की दृष्टि से भी विचार किया गया है।६ हैं, इसलिए उसकी प्रव्रज्या कैसे हो सकती है? १० पुन: यह भी कहा भाष्य की विशेषता यह है कि वह लिंग शब्द पर उसके दोनों अर्थों गया है कि उसमें मन की पवित्रता नहीं होती, वे अस्थिरमना होती की दृष्टि से विचार करता है। अपने प्रथम अर्थ में लिंग का तात्पर्य हैं तथा उनमें रजस्राव होता है इसलिये उनका ध्यान चिन्तारहित नहीं है-पुरुष, स्त्री या नपुंसक रूप शारीरिक रचनाएँ। लिंग के इस प्रथम हो सकता। ११ । अर्थ की दृष्टि से उसमें उत्तराध्ययन के समान ही स्त्री, पुरुष और नपुंसक इस प्रकार हम देखते हैं कि सर्वप्रथम कुन्दकुन्द के सुत्तपाहुड तीनों लिगों से मुक्ति का उल्लेख है। साथ ही यह भी उल्लेख है कि में ही स्त्रीमुक्ति का तार्तिक खण्डन उपलब्ध होता है। दूसरे शब्दों में प्रत्युत्पन्नभाव अर्थात् वर्तमान में काम-वासना की उपस्थिति की दृष्टि दिगम्बर परम्परा में स्त्रीमुक्ति का तार्किक निषेध छठी शताब्दी से प्रारम्भ से अवेद अर्थात् काम-वासना से रहित व्यक्ति की ही मुक्ति होती है। हुआ। इसके पूर्व इस परम्परा में इस सम्बन्ध में क्या मान्यता थी, किन्तु पूर्व भव की अपेक्षा से तो तीनों वेदों से सिद्धि होती है। साथ यह जानने का हमारे पास कोई स्रोत नहीं है। श्वेताम्बर परम्परा में ही उसमें लिंग का अर्थ वेश करते हुए कहा गया है प्रत्युत्पन्न भव सातवीं शताब्दी तक स्त्रीमुक्ति के इस तार्किक निषेध का कहीं कोई अर्थात् वर्तमान भव की अपेक्षा से तो अलिंग अर्थात् लिंग के प्रति खण्डन किया गया हो, ऐसी सूचना भी उपलब्ध नहीं होती। सम्भवत: ममत्व से रहित व्यक्ति ही सिद्ध होते हैं, किन्तु पूर्व भव-लिंग की सातवीं शताब्दी तक श्वेताम्बर आचार्य किसी ऐसी परम्परा से अवगत अपेक्षा से स्व-लिंग ही सिद्ध होते हैं। पुन: द्रव्य-लिंग अर्थात् बाह्य ही नहीं थे जो स्त्रीमुक्ति का निषेध करती थी। स्त्रीमुक्ति के निषेधक वेश की अपेक्षा से स्व-लिंग, अन्य-लिंग और गृह-लिंग तीनों ही विकल्प तर्कों का सर्वप्रथम उत्तर श्वेताम्बरों ने नहीं, अपितु अचेलकत्व की समर्थक से सिद्ध होते हैं। यापनीय परम्परा ने ही दिया। चूँकि कुन्दकुन्द दक्षिण में हुए थे और तत्त्वार्थभाष्य के पश्चात् तत्त्वार्थ की दिगम्बर परम्परा की टीकाओं यापनीय भी दक्षिण में ही उपस्थित थे, अत: पहली चोट भी उन्हीं में सर्वप्रथम सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है कि वेद की दृष्टि से तीनों पर हुई थी और पहला प्रत्युत्तर भी उन्हें ही देना पड़ा था। इस प्रकार वेदों के अभाव में ही सिद्धि होती है। द्रव्य-लिंग अर्थात् शारीरिक सर्वप्रथम लगभग सातवीं शती में यापनीयों ने इसका प्रत्युत्तर दिया संरचना की दृष्टि से पुल्लिंग ही सिद्ध होते हैं किन्तु भूतपूर्व नय की था। यापनीय सम्प्रदाय के इन तर्कों का अनुसरण परवर्ती श्वेताम्बर अपेक्षा से तो सग्रन्थलिंग से भी सिद्धि होती है। इस प्रकार हम देखते आचार्यों ने भी किया। श्वेताम्बर आचार्यों में सर्वप्रथम हरिभद्र ने आठवीं हैं कि सर्वप्रथम सर्वार्थसिद्धि में इस बात का प्रतिपादन किया गया शती में ललितविस्तरा में स्त्रीमुक्ति का समर्थन किया है, किन्तु उन्होंने है कि मुक्ति पुरुष लिंग से ही प्राप्त हो सकती है। उसके पश्चात् भी अपनी ओर से कोई तर्क न देकर इस सम्बन्ध में यापनीयतन्त्र राजवार्तिककार अकलंक भी सर्वार्थसिद्धि के उल्लेख का ही समर्थन नामक (वर्तमान में अनुपलब्ध) किसी यापनीय प्राकृत ग्रन्थ को उद्धृत करके रह जाते हैं। उससे अधिक वे भी कुछ नहीं कहते हैं। मात्र किया है। इससे ऐसा लगता है कि कुन्दकुन्द ने लगभग छठी श्वेताम्बर परम्परा में आवश्यकमूलभाष्य (पाँचवीं शती), शताब्दी में स्त्रीमुक्ति के निषेध के सन्दर्भ में जो तर्क दिये थे, उसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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