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________________ जैन धर्म का लेश्या-सिद्धान्त : एक मनोवैज्ञानिक विमर्श ३८५ सीमित रखना उचित समझेंगे। मनोदशाओं में संक्लेश की न्यूनाधिकता विचार अत्यन्त निम्न कोटि के एवं क्रूर होते हैं। वासनात्मक पक्ष जीवन अथवा मनोभावों की अशुभत्व से शुभत्व की ओर बढ़ने की स्थितियों के सम्पूर्ण कर्मक्षेत्र पर हावी रहता है। प्राणी अपनी शारीरिक, मानसिक के आधार पर ही उनके विभाग किये गये हैं। अप्रशस्त और प्रशस्त एवं वाचिक क्रियाओं पर नियन्त्रण करने में अक्षम रहता है। वह अपनी इन द्विविध मनोभावों के उनकी तरतमता के आधार पर छ: भेद इन्द्रियों पर नियन्त्रण न रख पाने के कारण बिना किसी प्रकार के शुभाशुभ वर्णित हैं विचार के सदैव इन्द्रियों के विषयों की पूर्ति में निमग्न रहता है। इस अप्रशस्त मनोभाव प्रशस्त मनोभाव प्रकार भोग-विलास में आसक्त हो, वह उनकी पूर्ति के लिए हिंसा, १. कृष्ण-लेश्या-तीव्रतम अप्रशस्त मनोभात | ४. तेजो-लेश्या - मंद प्रशस्त मनोभाव चोरी, व्यभिचार और संग्रह में लगा रहता है। स्वभाव से वह निर्दयी २. नील-लेश्या-तीव्र अप्रशस्त मनोभाव |५. पद्म-लेश्या- तीव्र प्रशस्त मनोभाव व नृशंस होता है और हिंसक कार्य करने में उसे तनिक भी अरूचि ३. कापोत-लेश्या-मंद अप्रशस्त मनोभाव ६ शुक्ल-लेश्या-तीव्रतमप्रशस्त मनोभाव नहीं होती तथा अपने छोटे से स्वार्थ के निमित्त दूसरे का बड़ा से बड़ा अहित करने में वह संकोच नहीं करता। मात्र यही नहीं वह लेश्याएं एवं व्यक्तित्व का श्रेणी-विभाजन दूसरों को निरर्थक पीड़ा या त्रास देने में आनन्द मानता है। कृष्ण लेश्याएं मनोभावों का वर्गीकरण मात्र नहीं हैं, वरन् चरित्र के लेश्या से युक्त प्राणी वासनाओं के अन्धप्रवाह से ही शासित होता आधार पर किये गये व्यक्तित्व के प्रकार भी हैं। मनोभाव अथवा संकल्प है, इसलिए भावावेश में उसमें स्वयं के हिताहित का विचार करने आन्तरिक तथ्य ही नहीं हैं, वरन् वे क्रियाओं के रूप में बाह्य अभिव्यक्ति की क्षमता भी नहीं होती। वह दूसरे का अहित मात्र इसलिए नहीं भी चाहते हैं। वस्तुत: संकल्प ही कर्म में रूपान्तरित होते हैं। बेडले करता कि उससे उसका स्वयं का कोई हित होगा, वरन् वह तो अपने का यह कथन उचित है कि कर्म संकल्प का रूपान्तरण है। मनोभूमि क्रूर स्वभाव के वशीभूत हो, अपने हित के अभाव में भी दूसरे का या संकल्प व्यक्ति के आचरण का प्रेरक सूत्र है, लेकिन कर्मक्षेत्र में अहित करता रहता है। संकल्प और आचरण दो अलग-अलग तत्त्व नहीं रहते हैं। आचरण २. नील-लेश्या (अशुभतर मनोभाव) से युक्त व्यक्तित्व के से संकल्पों की मनोभूमि का निर्माण होता है और संकल्पों की मनोभूमिका लक्षण-व्यक्तित्व का यह प्रकार पहले की अपेक्षा कुछ ठीक होता पर ही आचरण स्थित होता है। मनोभूमि और आचरण (चरित्र) का है, लेकिन होता अशुभ ही है। इस अवस्था में भी प्राणी का व्यवहार घनिष्ठ सम्बन्ध है । इतना ही नहीं, मनोवृत्ति स्वयं में भी एक आचरण वासनात्मक पक्ष से शासित होता है। लेकिन वह अपनी वासनाओं है। मानसिक कर्म भी कर्म ही है। अत: जैन विचारकों ने जब लेश्या की पूर्ति में अपनी बुद्धि का प्रयोग करने लगता है। अत: इसका व्यवहार परिणाम की चर्चा की तो, वे मात्र मनोदशाओं की चर्चाओं तक ही प्रकट रूप में तो कुछ परिमार्जित सा रहता है, लेकिन उसके पीछे सीमित नहीं रहे, वरन् उन्होंने उस मनोदशा से प्रत्युत्पन्न जीवन के कुटिलता ही काम करती है। यह विरोधी का अहित अप्रत्यक्ष रूप कर्म क्षेत्र में घटित होने वाले बाह्य व्यवहारों की चर्चा भी की और से करता है। ऐसा प्राणी ईर्ष्यालु, सहिष्णु, असंयमी, अज्ञानी, कपटी, इस प्रकार जैन लेश्या-सिद्धान्त व्यक्तित्व के वर्गीकरण का व्यवहारिक निर्लज्ज,लम्पट, द्वेष-बुद्धि से युक्त, रसलोलुप एवं प्रमादी होता है।११ सिद्धान्त बन गया। जैन विचारकों ने इस सिद्धान्त के आधार पर यह वह अपनी सुख-सुविधा का सदैव ध्यान रखता है और दूसरे का अहित बताया कि मनोवृत्ति एवं आचरण की दृष्टि से व्यक्ति का व्यक्तित्व अपने हित के निमित्त करता है, यहाँ तक कि वह अपने अल्प हित या तो शुभ (नैतिक) होगा या अशुभ (अनैतिक)। इन्हें धार्मिक और के लिए दूसरे का बड़ा अहित भी कर देता है। जिन प्राणियों से उसका अधार्मिक अथवा शुक्ल-पक्षी और कृष्ण-पक्षी भी कहा गया है। वस्तुतः स्वार्थ सधता है उन प्राणियों का अज-पोषण-न्याय के अनुसार वह एक वर्ग वह है जो नैतिकता या शुभत्व की ओर उन्मुख है। दूसरा कुछ ध्यान अवश्य रखता है, लेकिन मनोवृत्ति दूषित ही होती है। वर्ग वह है जो अनैतिकता या अशुभत्व की ओर उन्मुख है। इस प्रकार जैसे बकरा पालने वाला बकरे को इसलिए नहीं खिलाता कि उस बकरे गुणात्मक अन्तर के आधार पर व्यक्तित्व के ये दो प्रकार बनते हैं। का हित होगा वरन् इसलिए खिलाता है कि उसे मारने पर अधिक लेकिन जैन विचारक मात्र गुणात्मक वर्गीकरण से सन्तुष्ट नहीं हुए और मांस मिलेगा। ऐसा व्यक्ति दूसरे का बाह्य रूप में जो भी हित करता उन्होंने उन दो गुणात्मक प्रकारों को तीन-तीन प्रकार के मात्रात्मक अन्तरों दिखाई देता है, उसके पीछे उसका गहन स्वार्थ रहता है। (जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट) के आधार पर छ: भागों में विभाजित ३. कापोत-लेश्या (अशुभ मनोवृत्ति) से युक्त व्यक्तित्व के किया। जैन लेश्या-सिद्धान्त का ट्विध वर्गीकरण इसी आधार पर लक्षण-यह मनोवृत्ति भी दूषित है। इस मनोवृत्ति में प्राणी का व्यवहार हुआ है। जैन विचारकों ने इन मात्रात्मक अन्तरों के तीन, नौ, इक्यासी मन, वचन, कर्म से एकरूप नहीं होता। उसकी करनी-कथनी और दो सौ तैंतालिस उपभेद भी गिनायें है, लेकिन प्राचीन ट्विध भिन्न होती है। मनोभावों में सरलता नहीं होती, कपट और अहंकार वर्गीकरण ही अधिक प्रचलित रहा है। निम्न पंक्तियों में हम इन छः होता है। वह अपने दोषों को सदैव छिपाने की कोशिश करता है। प्रकार के व्यक्तियों की चर्चा करेंगे उसका दृष्टिकोण अयथार्थ एवं व्यवहार अनार्य होता है। वह वचन १. कृष्ण-लेश्या (अशुभ भाव) से युक्त व्यक्तित्व के लक्षण- से दूसरे की गुप्त बातों को प्रकट करने वाला अथवा दूसरे के रहस्यों यह व्यक्तित्व का सबसे निकृष्ट रूप है। इस अवस्था में प्राणी के को प्रकट करके उससे अपने हित साधने वाला, दूसरे के धन का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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