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________________ ३८६ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ अपहरण करने वाला एवं मात्सर्य भावों से युक्त होता है। फिर भी दृष्टि से इसने चातुर्वर्ण्य के सिद्धान्त का रूप ग्रहण किया था, जिसपर ऐसा व्यक्ति दूसरे का अहित तभी करता है, जब उससे उसकी स्वार्थ जन्मना और कर्मणा दृष्टिकोणों को लेकर श्रमण और वैदिक परम्परा सिद्धि नहीं होती है।१२ में काफी विवाद भी रहा है। साधनात्मक दृष्टिकोण से गुण-कर्म के ४. तेजो-लेश्या (शुभ मनोवृत्ति) से युक्त व्यक्तित्व के लक्षण- आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण करने का प्रयास न केवल जैन, यह मनोदशा पवित्र होती है। इस मनोभूमि में प्राणी पापभीरु होता बौद्ध और हिन्दू परम्परा ने किया है, वरन् अन्य लुप्त श्रमण परम्पराओं है। यद्यपि वह अनैतिक आचरण की ओर प्रवृत्त नहीं होता, तथापि में भी ऐसे वर्गीकरणा उपलब्ध होते हैं। दीघनिकाय में आजीवक सम्प्रदाय वह सुखापेक्षी होता है। लेकिन किसी अनैतिक आचरण द्वारा उन सुखों के आचार्य मंखलिपुत्र गोशालक एवं अंगुत्तरनिकाय में पूर्णकश्यप के की प्राप्ति या अपना स्वार्थ साधन नहीं करता। धार्मिक और नैतिक नाम के साथ ही वर्गीकरण का निर्देश हुआ है। ज्ञातव्य है कि दीघनिकाय आचरण में उसकी पूर्ण आस्था होती है। अत: उन कृत्यों के सम्पादन के सामंजफलसुत्त में गोशालक सम्बन्धी विवरण में मात्र “छस्वेवाभिमें आनन्द प्राप्त करता है, जो धार्मिक या नैतिक दृष्टि से शुभ है। जातीसु" इतना उल्लेख है, जबकि अंगुत्तरनिकाय में पूर्णकश्यप के इस मनोभूमि में दूसरे के कल्याण की भावना भी होती है। संक्षेप द्वारा प्रस्तुत विवरण में इन छहों अभिजातियों में कौन किस वर्ग में में, इस मनोभूमि में स्थित प्राणी पवित्र आचरण वाला, नम्र, निष्कपट, आता है, इसका भी उल्लेख है। किन्तु इसमें आजीवक, श्रमणों और आकांक्षारहित, विनीत, संयमी एवं योगी होता है। १३ वह प्रिय एवं आचार्यों को सर्वोच्च वर्गों में रखना यही सूचित करता है कि यह दृढ़धर्मी तथा परहितैषी होता है। इस मनोभूमि में दूसरे का अहित सिद्धान्त मूलत: आजीवकों अर्थात् मंखलि गोशालक की परम्परा का तो सम्भव होता है, लेकिन केवल उसी स्थिति में जबकि दूसरा उसके रहा है। अंगुत्तरनिकाय में या तो भ्रान्तिवश अथवा पूर्णकश्यप द्वारा हितों का हनन करने पर उतारू हो जाये। भी मान्य होने के कारण इसे उनके नामों से कहा गया है। इसकी जैन आगमों में तेजोलेश्या की शक्ति को प्राप्त करने के लिये मान्यता के अनुसार कृष्ण, नील, लोहित, हरिद्र, शुक्ल और परमशुक्ल विशिष्ट साधना-विधि का उल्लेख भी प्राप्त होता है। गोशालक ने महावीर ये छ: अभिजातियाँ है। उक्त वर्गीकरण में कृष्ण अभिजाति में निर्गन्थ से तेजोलेश्या की जो साधना सीखी थी उसका दुरुपयोग उसने स्वयं और आजीवक श्रमणों के अतिरिक्त अन्य श्रमणों को, लोहित अभिजाति भगवान् महावीर और उनके शिष्यों के प्रति किया। इस प्रकार तेजोलेश्या में निर्ग्रन्थ श्रमणों को, हरिद्र अभिजाति में आजीवक गृहस्थों को, शुक्ल का उपयोग शुभत्व और अशुभत्व दोनों ही दिशा में सम्भव हो अभिजाति आजीवक के प्रणेता आचार्य-वर्ग को रखा गया है। ज्ञातव्य सकता है। है कि चतुर्थ वर्ग के अर्थ में पूज्य आचार्य देवेन्द्रमुनिजी ने अपने ५. पद्म-लेश्या (शुभतर मनोवृत्ति) से युक्त व्यक्तित्व के लक्षण- 'पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ' में एवं डॉ० शान्ता जैन ने अपने शोधइस मनोभूमि में पवित्रता की मात्रा पिछली भूमि की अपेक्षा अधिक प्रबन्ध में जो श्वेतवस्त्रधारी या निर्वस्त्र का अर्थ लिखा है वह उचित होती है। इस मनोभूमि में क्रोध, मान, माया एवं लोभरूप अशुभ । नहीं है उसमें मूलशब्द है-"ओदात्तवसनी अचेलसावका"। इसका मनोवृत्तियाँ अतीव अल्प अर्थात् समाप्तप्राय हो जाती हैं। प्राणी संयमी अर्थ है उदात्त वस्त्र वाले अचेलकों (आजीवकों) के श्रावक। इसमें तथा योगी होता है तथा योग-साधना के फलस्वरूप आत्मजयी एवं अचेलसावका का अर्थ अचेलकों के श्रावक ऐसा है। ओदात्तवसना प्रफुल्लित होता है। वह अल्पभाषी, उपशान्त एव जितेन्द्रिय होता है।१४ यह श्रावकों का विशेषण है। ६. शुक्ल-लेश्या (परमशुभ मनोवृत्ति) से युक्त व्यक्तित्व के उपर्युक्त वर्गीकरण का जैन विचारणा के लेश्या-सिद्धान्त से बहुत लक्षण-यह मनोभूमि शुभ मनोवृत्ति की सर्वोच्च भूमिका है। पिछली कुछ शब्द साम्य है, लेकिन जैन दृष्टि से यह वर्गीकरण इस अर्थ में मनोवृत्ति के सभी शुभ गुण इस अवस्था में वर्तमान रहते हैं, लेकिन भिन्न है कि एक तो यह केवल मानव जाति तक सीमित है, जबकि उनकी विशुद्धि की मात्रा अधिक होती है। प्राणी उपशान्त, जितेन्द्रिय जैन वर्गीकरण इसमें सम्पूर्ण प्राणी वर्ग का समावेश करता है। दूसरे, एवं प्रसन्नचित्त होता है। उसके जीवन का व्यवहार इतना मृदु होता जैन दृष्टिकोण व्यक्तिपूरक है, जो साम्प्रदायिकता से ऊपर उठकर कहता है कि वह अपने हित के लिए दूसरे को तनिक भी कष्ट नहीं देना है कि प्रत्येक व्यक्ति या व्यक्ति समूह अपनी मनोवृत्तियों एवं कर्मों चाहता है। मन-वचन-कर्म से एकरूप होता है तथा उनपर उसका पूर्ण के आधार पर किसी भी वर्ग या अभिजाति में सम्मिलित हो सकता नियन्त्रण होता है। उसे मात्र अपने आदर्श का बोध रहता है। बिना है। यहाँ यह विशेष रूप से द्रष्टव्य है कि जहाँ गोशालक द्वारा दूसरे किसी अपेक्षा के वह मात्र स्व-कर्तव्य के परिपालन के प्रति जागरूक श्रमणों को नील अभिजाति में रखा गया, वहीं निर्गन्थों को लोहित रहता है। सदैव स्व-धर्म एवं स्व-स्वरूप में निमग्न रहता है। अभिजाति में रखना उनके प्रति कुछ समादर भाव का द्योतक अवश्य है। सम्भव है कि महावीर एवं गोशालक का पूर्व सम्बन्ध ही इसका लेश्या-सिद्धान्त और अन्य विचारणाएँ कारण रहा हो। जहाँ तक भगवान् बुद्ध की तत्सम्बन्धी मान्यता का भारत में व्यक्ति के मनोवृत्तियों गुणों एवं कमों के आधार पर प्रश्न है, वे पूर्णकश्यप अथवा गोशालक की मान्यता से अपने को वर्गीकरण करने की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। यह वर्गीकरण सामाजिक सहमत नहीं कर पाते हैं। वे व्यक्ति के नैतिक स्तर के आधार पर एवं साधनात्मक दोनों दृष्टिकोणों से किया जाता रहा है। सामाजिक वर्गीकरण तो प्रस्तुत करते हैं, लेकिन वे अपने वर्गीकरण को जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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