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________________ जैन धर्म का लेश्या-सिद्धान्त : एक मनोवैज्ञानिक विमर्श -व्यक्ति का व्यक्तित्व उसकी मनोवृत्तियों अथवा आवेगों पर निर्भर में छाया पुद्गल से प्रभावित जीव के परिणामों (मनोभावों) को लेश्या करता है। व्यक्ति जितना आवेगों से ऊपर उठेगा, उसके व्यक्तित्व में माना है। इसी आधार पर देवेन्द्रमुनि शास्त्री ने लेश्या को एक प्रकार उतनी स्थिरता एवं परिपक्वता आती जायेगी। जिस व्यक्ति में आवेगों का पौद्गलिक पर्यावरण माना है, जो मनोवृत्तियों को निर्धारित करता (कषायों) की जितनी अधिकता एवं तीव्रता होगी, उसका व्यक्तित्व है। डॉ० शान्ता जैन ने भी अपने शोध-निबन्ध में भगवतीसूत्र (१/ उतना ही निम्नस्तरीय एवं अशान्त होगा। आवेगों (मनोवृत्तियों) की ९) की टीका के आधार पर लेश्या को औदारिक आदि शरीरों का तीव्रता और उनकी शुभाशुभता दोनों ही हमारे व्यक्तित्व को प्रभावित वर्ण माना है। वे लिखती हैं कि लेश्या एक पौद्गलिक परिणाम है। करती हैं। वस्तुत: आवेगों में जितनी अधिक तीव्रता होगी, व्यक्तित्व जैनागमों में लेश्या दो प्रकार की मानी गयी है-१. द्रव्य-लेश्या में उतनी ही अस्थिरता होगी और व्यक्तित्व में जितनी अधिक अस्थिरता और २. भाव-लेश्या। अत: हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि इनमें होगी उतनी ही चारित्रिक दृढ़ता में कमी होगी। आवेगात्मक अस्थिरता मात्र द्रव्य ही पौद्गलिक है, भाव-लेश्या नहीं। भाव लेश्या तो द्रव्य ही अनैतिकता की जननी है। इस प्रकार आवेगात्मकता, चरित्र-बल लेश्या के आधार पर बनने वाली चित्तवृत्तियाँ हैं। इन दोनों में कार्यकारण और व्यक्तित्व तीनों ही एक-दूसरे से जुड़े हैं। यहाँ हमें यह भी स्मरण भाव या निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध तो हैं किन्तु दोनों अलग-अलग हैं। रखना चाहिए कि व्यक्ति के मूल्यांकन के सन्दर्भ में न केवल आवेगों १. द्रव्य-लेश्या-द्रव्य-लेश्या सूक्ष्म भौतिक तत्त्वों से निर्मित की तीव्रता पर विचार करना चाहिए, वरन् उनकी प्रशस्तता और वह संरचना है, जो हमारे मनोभावों एवं तज्जनित कर्मों का सापेक्ष अप्रशस्तता पर भी विचार करना आवश्यक है। प्राचीन काल से ही रूप में कारण अथवा कार्य बनती है। जिस प्रकार पित्त द्रव्य की विशेषता व्यक्ति के आवेगों तथा मनोभावों के शुभत्व एवं अशुभत्व का सम्बन्ध से स्वभाव में क्रुद्धता आती है और क्रोध के कारण पित्त का निर्माण उसके व्यक्तित्व से जोड़ा जाता रहा है। व्यक्तित्व के वर्गीकरण या बहुल रूप से होता है, उसी प्रकार इन सूक्ष्म भौतिक तत्त्वों से मनोभाव. श्रेणी-विभाजन के शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक अनेक आधारों में एक बनते हैं और मनोभाव के होने पर इन सूक्ष्म संरचनाओं का निर्माण आधार व्यक्ति की प्रशस्त और अप्रशस्त मनोवृत्तियाँ भी रही हैं। जिस होता है। लेश्या-द्रव्य या द्रव्य-लेश्या-स्वरूप के सम्बन्ध में आचार्य व्यक्ति में जिस प्रकार की मनोवृत्तियाँ होती हैं, उसी आधार पर उसके राजेन्द्रसूरिजी' एवं पं० सुखलालजी ने निम्न तीन मतों को उद्धृत व्यक्तित्व का वर्गीकरण किया जाता है। मनोवृत्तियों की शुभाशुभता किया है - एवं तीव्रता और मन्दता के आधार पर व्यक्तित्व के वर्गीकरण की परम्परा (१) लेश्या-द्रव्य कर्मवर्गणा से बने हुए हैं। यह मत उत्तराध्ययन बहुत पुरानी है। जैन, बौद्ध और हिन्दू परम्परा के ग्रन्थों में ऐसा वर्गीकरण की टीका में है। या श्रेणी-विभाजन उपलब्ध है। जैन परम्परा में इस वर्गीकरण का आधार (२) लेश्या-द्रव्य बध्यमान कर्मप्रवाह रूप में है। यह मत भी उसका लेश्या-सिद्धान्त है। यद्यपि जैन परम्परा में नैतिक एवं आध्यात्मिक उत्तराध्ययन की टीका में वादिवैताल शान्तिसूरि का है। विकास के आधार पर व्यक्तित्व के वर्गीकरण के अन्य सिद्धान्त यथा- (३) लेश्या-योग परिणाम है अर्थात् शारीरिक, वाचिक और बहिरात्मा-अन्तरात्मा का सिद्धान्त एवं गुणस्थान के सिद्धान्त भी प्रचलित मानसिक क्रियाओं का परिणाम है। यह मत आचार्य हरिभद्र का है। है, किन्तु इन सबमें लेश्या-सिद्धान्त ही सबसे प्रचीन है, क्योंकि त्रिविध मेरी दृष्टि से द्रव्य-लेश्या को हम व्यक्ति का आभा मण्डल कह आत्मा की अवधारणा और गुणस्थान सिद्धान्त दोनों ही ईसा की पाँचवीं सकते है। डॉ० शान्ता जैन ने अपने शोध-प्रबन्ध में और उनसे पूर्व शती के पूर्व उपलब्ध नहीं होते हैं। जबकि लेश्या-सिद्धान्त भगवती युवाचार्य महाप्रज्ञ ने अपने ग्रन्थ आभामण्डल में इस पर विस्तार से और उत्तराध्ययन जैसे ईस्वी पूर्व के आगमों में भी उपलब्ध हैं। अन्य प्रकाश डाला है। श्रमण परम्पराओं में लेश्या-सिद्धान्त का स्थान अभिजाति की कल्पना २. भाव-लेश्या-भाव-लेश्या आत्मा का अध्यवसाय या ने लिया है। गीता में इसे दैवी एवं आसुरी सम्पदा के रूप में वर्णित अन्त:करण की वृत्ति है। पं० सुखलाल जी के शब्दों में भाव-लेश्या किया गया है। मनोभाव विशेष है, जो संक्लेश और योग से अनुगत है। संक्लेश के तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, मन्द, मन्दतर, मन्दतम आदि लेश्या-सिद्धान्त और नैतिक व्यक्तित्व अनेक भेद होने से लेश्या (मनोभाव) वस्तुः अनेक प्रकार की है तथापि जैन विचारकों के अनुसार लेश्या की परिभाषा यह है कि जो संक्षेप में छ: भेद करके (जैन) शास्त्र में उसका स्वरूप वर्णन किया आत्मा को कर्मों से लिप्त करती है या जिसके द्वारा आत्मा कर्मों से गया है। लिप्त होती है अर्थात् बन्धन में आती है, वह लेश्या है। उत्तराध्ययन उत्तराध्ययनसूत्र में लेश्याओं के स्वरूप का निर्वचन वर्ण, गन्ध, की बृहद्-वृत्ति में लेश्या का अर्थ आण्विक आभा, कान्ति, प्रभा या रस, स्पर्श, मनोभाव, कर्म आदि अनेक पक्षों के आधार पर हुआ छाया किया गया है। यापनीय आचार्य शिवार्य ने भगवती आराधना है, लेकिन हम अपने विवेचन को लेश्याओं के भावात्मक पक्ष तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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