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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६ अगाध विद्वत्ता के धनी : डॉ० सागरमल जैन डॉ० भागचन्द जैन 'भास्कर" डॉ० सागरमल जी से मेरा परिचय लगभग पन्द्रह वर्ष पहले वाराणसी में हुआ जब वे पार्श्वनाथ विद्याश्रम के निदेशक के रूप में विद्वज्जगत् में उतरे । मैं स्वयं पार्श्वनाथ विद्याश्रम का विद्यार्थी रहा हूँ इसलिए डॉ० मेहता के बाद उनकी कुर्सी पर कौन बैठ रहा है, यह सहज उत्सुकता बनी रहती थी । देखा-सामने अहाते से एक आकर्षक व्यक्तित्व पुस्तकालय में प्रवेश कर रहा है । टिनोपाल से धुला सफेद खादी का कुर्ता-पायजामा, पैरों में साधारण-सी चप्पल, सपाट मूछों से खिलतादमकता गौरवर्ण, भरा हुआ चेहरा और बिन टोपी के खुला हुआ सिर । परिचय कराया गया कि ये सागरमल जी हैं । व्यावहारिक आवभगत के बीच चाय की चुस्कियों के साथ वहीं अनेक विषयों पर विचार-विमर्श हुआ। हम लोग नाम से एक-दूसरे के साहित्यिक कार्यों से पहले ही परिचित हो चुके थे । इसलिए इस प्रात्यक्षिक परिचय में कोई विशेष नयापन नहीं लगा। ऐसा लगा जैसे इस परिचय ने पुरानी मित्रता की माला में एक और सुगन्धित पुष्प गूंथ दिया हो । __ इतने बड़े शोध संस्थान के निदेशक में जो अपेक्षित गुण होना चाहिए वे सारे गुण उनमें उस समय मैंने पाये । संस्थान की अभ्युन्नति की परिधि में जो भी बिन्दु आ सकते थे, उनपर खुली चर्चा हुई और हमने पाया कि सागरमल जी एक विशिष्ट उद्देश्य के साथ संस्थान में आये हैं । उनकी सरलता, आत्मीयता, स्नेहिलता और शैक्षणिक जागरुकता ने संस्थान को अन्तर्राष्ट्रीय नक्से पर लाकर खड़ा कर दिया। आज उसकी विराटता और विशालता पर सागरमल जी के पदचिह्न बड़ी सघनता पूर्वक उभरे हुए हैं । उसके कैनवस पर उनका व्यक्तित्व अंकित है। डॉ० सागरमल जी ने वाराणसी के जितने सुनहले बसन्त देखे हैं उनमें विपदाओं की काली रेखायें भी प्रतिबिम्बित होती रही हैं। इन रेखाओं ने उन्हें नयी ऊर्जा और नया उत्साह दिया । सुख के साथ दुःख की बदलियां होनी भी चाहिए, तभी व्यक्तित्व में निखार आता है । ऐसे समय अन्यमनस्कता आना और खेद खिन्न होना स्वाभाविक है पर उसमें से अपना रास्ता निकाल लेना एक विशेष कला होती है। यह कला सागरमल जी में है । उन्होंने विपत्तियों में भी अपना साहस नहीं खोया । एक जुझारू शासक के रूप में उनकी प्रतिष्ठा देखकर प्रसन्नता होती है । संस्थान के निदेशन काल में ही सागरमल जी की विद्वत्ता में अगाधता बढ़ी । उन्होंने संस्कृत-प्राकृत का गहरा अभ्यास कर आगमों के मूल रूप तक पहंचने की शक्ति अर्जित की और यापनीय आदि जैसे ढेर सारे विवादास्पद विषयों पर सयुक्तिक कलम चलाई । उनके दर्जनों ग्रन्थों में सतार्किक चिन्तन और तलस्पर्शिता झलक रही है । यद्यपि उनकी प्रस्तुति पर लोगों ने साम्प्रदायिकता की सील जड़ दी है पर उसे निर्मूल करने में डॉ० सागरमल ने जो व्यावहारिक कदम उठाये हैं वे अपने आप में निश्चित ही अभिनन्दनीय हैं । आज जब संस्थान अपनी पूरी ऊंचाइयों को छू रहा है, सागरमल जी निवृत्ति की ओर बढ़ रहे हैं। मान्य विश्वविद्यालय के रूप में संस्थान को देखने की उनकी आकांक्षा, किसी भी कारणवश हो, पूरी नहीं हो सकी । उन्होंने उसके लिए जो भी गहरे प्रयत्न किये वे कारगर इस मायने में हुए कि संस्थान आर्थिक दृष्टि से पूरी तरह अपने पैरों पर खड़ा हो गया । शैक्षणिक दृष्टि से उसने समाज के विकास में जो योगदान दिया है और साहित्य जगत में जो अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाया है उसकी पृष्ठभूमि में डॉ० सागरमल जी का अहर्निश परिश्रम और बेदाग संयोजनशीलता ही रही है । उनके इस समूचे व्यक्तित्व को निखारने में भाभी जी का भी अमूल्य योगदान रहा है । उनके हंस-मुख चेहरे पर अतिथि सत्कारवृत्ति सभी को प्रसन्न कर देती अभिनन्दन समारोह के इस सुनहले अवसर पर मैं अपनी ओर से और अपनी पत्नी प्रो० डा० पुष्पलता जैन की ओर से इस अनूठे दम्पत्ति के निरामयी शतायु होने की कामना करता हूँ । *न्यू एक्सटेंशन एरिया, सदर, नागपुर । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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