SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व 'डॉ० सागर मल जैन: मेरे मन के आईने में' शितिकंठ मिश्र यह सार्वभौम नियम है कि संसारी प्राय: स्वार्थ के आधार पर संबंध जोड़ते हैं, 'हरे चरिह तापहिं वरे फेर पसारहि हाथ, तुलसी स्वारथमीत सब परमारथ रघुनाथ ।' यहां मैं डॉ० जैन की रघुनाथ से तुलना नहीं करने जा रहा हूँ परन्तु उन्हें सामान्य स्वार्थी मनुष्यों की अपेक्षा एक निस्वार्थ और परमार्थी व्यक्ति अवश्य मानता हूँ । सन् १९८५ में सेवानिवृत्त होकर मैं पार्श्वनाथ विद्यापीठ के पड़ोस में पर्णकुटी बना कर बस गया । उन्होंने स्वयं मुझे संस्थान के प्रति अपने सद्व्यवहार से आकृष्ट किया । क्रमश: आना-जाना बढ़ा, परिचय-प्रेम प्रगाढ़ हुआ। इस मानवीय नाते को जोड़ने में डॉ० साहब का कोई स्वार्थ नहीं था और न मैं उन्हें किसी प्रकार उपकृत करने की स्थिति में था । जब उन्हें ज्ञात हुआ कि अब तक मेरी पेंशन नहीं मिली है और मैं कुछ काम करना चाहता हूँ तो उन्होंने मुझे संस्थान के साधु-साध्वियों को हिन्दी पढ़ाने का सम्मानजनक दायित्व सौंप दिया । जैन संघ में जब सामान्यतया एक संप्रदाय का श्रावक दूसरे सम्प्रदाय के साधु को मुश्किल से अपना गुरु बनाता है तब उन्होंने मुझ अजैनी को जैन साधु-साध्वियों को पढ़ाने का सम्मान देकर अपनी असांप्रदायिक उदारता का मार्मिक उदाहरण रखा । आजकल शिक्षण संस्थानों में 'अहा रूपो महा ध्वनि:' की परंपरा है । एक दूसरे को लाभ पहुंचाने का व्यवसाय चालू है, ऐसे वातावरण में डॉ० साहब का यह कार्य उनकी निस्पृह मानवता का नमूना है । उनके संपर्क में आकर जैन धर्म, दर्शन विशेषतया साहित्य के प्रति मेरा रुझान हुआ । उनका पुस्तकालय नगर के समृद्धतम पुस्तकालयों में से एक है । मैंने अनेक दुर्लभ पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएं पढ़ी । इस स्वाध्याय से मैं जैन विद्या का पारगत विद्वान् तो नहीं हो गया पर उस क्षेत्र में मेरा चंचु-प्रवेश अवश्य हो गया । जब डॉ० साहब की प्रेरणा से विद्यापीठ की प्रबंधसमिति ने 'हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास' पाँच खण्डों में प्रकाशित करने का स्वागतार्ह निर्णय लिया तो उन्होंने उसके लेखन का दायित्व अत्यन्त विश्वासपूर्वक मुझे सौंपा । मुझे यह कहने में रंचमात्र भी संकोच नहीं है कि उनके मार्गदर्शन के बिना यह कार्य इतना उत्तम ढंग से संपन्न न हो पाता जैसा हो रहा है । विगत सात-आठ वर्षों में इस बृहद इतिहास के तीन खण्ड प्रकाशित हो चुके हैं और चौथे खण्ड (१९वीं वि०) की पाण्डु लिपि किश्तों में प्रेस में जा रही है। कहते हैं कि विद्यार्थीगांधी को उनके अध्यापक ने कक्षा में डबल प्रमोशन दिला दिया, पर विद्यार्थी ने इतना श्रम किया कि वह केवल उत्तीर्ण ही नहीं बल्कि अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुआ। मुझे भी यह बराबर ध्यान था कि डॉ० साहब के विश्वास की रक्षा होनी ही चाहिए, अत: मैंने विगत पूरे दशक अपने को जैन साहित्य की सेवा में लगाकर यथासंभव उत्तम कार्य करने का प्रयत्न किया है। अपनी पीठ स्वयं ठोकने से क्या लाभ ? पर इतना अवश्य कहूँगा कि हिन्दी में इतना विशाल और नाना विधाओं में जैन साहित्य इसके माध्यम से आया है कि इसके अभाव में न हिन्दी साहित्य का कोई सर्वांगपूर्ण इतिहास लिखा जा सकता है और न ही हिन्दी का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन सही ढंग से हो सकता है और न लल्लू पूर्व के हिन्दी गद्य के प्रामाणिक नमूने मिल सकते हैं । यह कार्य डॉ० साहब ने किसी व्यावसायिक स्वार्थ से या सांप्रदायिक प्रेरणा से नहीं अपति ज्ञान प्रसार की भावना से करके हिन्दी भाषा साहित्य का महान उपकार किया है । हिन्दी वाले यह चाहते हैं कि हिन्दी सारे विश्व की भाषा बने, सब पढ़े, जाने पर स्वयं हिन्दीतर प्रदेशों में लिखा हिन्दी साहित्य यदि दूसरे संप्रदाय या धर्म से संबंधित है तो उसे पढ़ना बेकार समझते हैं । इस साम्राज्यवादी मनोवृत्ति से हिन्दी का अपकार हो रहा है । इस योजना द्वारा उन्होंने हिन्दी भाषा-भाषियों का बड़ा उपकार किया है । परन्तु वे तो मुझे भी यह एहसास नहीं होने देते कि इस योजना द्वारा उन्होंने मेरे ऊपर कोई एहसान किया है । यह मानवोचित उदारता आज के संकीर्ण स्वार्थ परम्परा युग में दुर्लभ होती जा रही है। जैन धर्म जब अनेकांतवादी और अहिंसावादी के स्थान पर अनेकवादी और परस्पर वाद-विवादी होने लगा था तब प्राकृतिक विकास प्रक्रिया द्वारा विकसित दिगंबर, श्वेताम्बर, मूर्तिपूजक, स्थानकवासी, तेरापंथी और इनके नाना अन्वयों-गच्छों के बीच सौमनस्य एवं सामंजस्य स्थापित करने की आवश्यकता का अनुभव किया जाने लगा। इस दिशा में पहले दिगंबर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy