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________________ डॉ० सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व से मुक्त है । आपके सरस ज्ञानवर्धक लेख जैन धार्मिक पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर निकलते रहते हैं । अपनी साहित्य साधना में इन्होंने जो कुछ पाया है उसे मुक्त हृदय से बांटा है । संप्रदायों की संकीर्णता से आप ऊपर हैं ! विद्वान् बौद्ध हो या वैदिक पंरपरा का, पार्श्वनाथ विद्याश्रम में सर्वथा खुले दिल से स्वागत करते हैं । वाराणसी नगरी में श्वेताम्बर और दिगम्बर संप्रदायों के ३०० वर्षों से चले आ रहे वैमनस्य को आपने इस सौहार्द पूर्ण ढंग से सुलझाया कि आज भी दोनों ही संप्रदाय आपका सम्मान करते हैं । सामाजिक कुरीतियों को दूर करने में आप सदैव प्रयत्नशील रहते हैं । जैसा कि पूज्य भाभी जी से पता चलता है पर्दाप्रथा का निवारण करने वालों में शाजापुर के जैन समाज में आपका परिवार अग्रगण्य था । युवावर्ग में धार्मिक निष्ठा पैदा करने में आपके लेख और व्याख्यान बड़े प्रभावी रहे हैं । अदम्य-उत्साही, कर्मनिष्ठ, प्रखर बुद्धि और त्यागमय संयमी जीवन के धनी आप स्वयं तो ज्योर्तिमय हुये ही, आपकी प्रेरणा और वात्सल्य से मेरे जैसे सैकड़ों लाभान्वित हुये हैं। इनके व्यक्तित्व का सौरभ केवल भारत में ही नहीं विदेशों में भी अनेकानेक परिवारों को सुरभित करता रहा है । इस मालव की शष्य श्यामला भूमि में पुष्पवत् खिलकर निरपेक्ष भाव से अपनी सुगन्ध चारों ओर बिखरने वाले आपके व्यक्तित्व की प्रतिध्वनियाँ समाज के कण-कण को आलोकित कर रही हैं । *पूर्व प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी । भव्यमूर्ति एवं श्रुत ज्ञाता : डॉ० सागरमल जैन डॉ० सुदर्शन लाल जैन* प्रो० सागरमल जैन के बहुमुखी व्यक्तित्व से कौन परिचित नहीं है। आपसे मेरा सर्व प्रथम परिचय १९६५ ई० में हुआ जब मैं और आप शोधोपाधि हेतु शोध कार्य कर रहे थे । आप में ज्ञान की अगाधता तो है परन्तु अहंकार का अत्यन्ताभाव है । श्वेताम्बर स्थानकवासी जाति में उत्पन्न हैं परन्तु जाति गत संकीर्ण विचारों से अछूते हैं । पारिवारिक प्रेम से अभिभूत हैं परन्तु अपनों के द्वारा उत्पन्न किये गये अनेक झंझावातों को झेलते रहते हैं और फिर भी उनका उपकार करते रहते हैं । बाह्य शरीरगत स्वास्थ्य के साथ न देने पर भी आत्मबल के कारण सतत् क्रियाशील रहते हैं । गृहस्थ जीवन जीते हुये भी जल से भिन्न कमल की तरह तप साधना में लीन रहते हैं । स्वतन्त्र विचारक हैं परन्तु आगम का आधार स्वीकार करते हैं । वाणी में माधुर्य है । ज्ञान दान की तीव्र इच्छा है, सादगी और सदाचार से प्रेम है । संचरिणी ज्ञान शिखा की तरह चलत-फिरते जैन सिद्धान्त के अनुपम कोश हैं । कुशल प्रवक्ता हैं, और लेखन सम्पादन की कला में प्रवीण हैं । देश-विदेश में अच्छी ख्याति अर्जित की है । छाया की तरह साथ देने वाली सेवा भावी धर्मपत्नी आपकी प्रेरणास्रोत हैं । ऐसे भव्य मूर्ति श्रुतज्ञाता प्रोफेसर साहब के दीर्घायुष्य की मंगल कामना करते हैं । तथा आशा करते हैं कि आप जिनवाणी की सेवा में निरन्तर तत्पर रहकर स्व० पर का कल्याण करते रहेंगे । *पूर्व अध्यक्ष-संस्कृत विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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