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________________ जैन आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न २९५ अचेलकत्व की समर्थक है। किन्तु उनके सामने एक समस्या यह थी कारण अंगों के ग्लानियुक्त होने पर देह के जुंगित (वीभत्स) होने पर कि वे श्वेताम्बर-परम्परा में स्वीकृत उन आगमों की माथुरी वाचना को अथवा परीषह (शीतपरीषह) सहन करने में असमर्थ होने पर वस्त्र धारण मान्य करते थे, जिनमें वस्त्रपात्रादि ग्रहण करने के स्पष्ट उल्लेख थे। करे। पुनः आचारांग" में यह भी कहा गया है, यदि ऐसा जाने की अत: उनके समक्ष दो प्रश्न थे-एक ओर अचेलकत्व का समर्थन शीतऋतु (हेमन्त) समाप्त हो गयी है तो जीर्ण वस्त्र प्रतिस्थापित कर करना और दूसरी ओर आगमिक उल्लेखों की अचेलकत्व के सन्दर्भ दे अर्थात् उनका त्याग कर दे। इस प्रकार (आगमों में) कारण की में सम्यक् व्याख्या करना। अपराजित सूरि ने इस सम्बन्ध में अपेक्षा से वस्त्र का ग्रहण कहा है। जो उपकरण कारण की अपेक्षा भगवतीआराधना की विजयोदया टीका में जो सम्यक् दृष्टिकोण प्रस्तुत से ग्रहण किया जाता है उसके ग्रहण करने की विधि और गृहीत किया है वह अचेलकत्व के आदर्श के सम्बन्ध में यापनीयों की यथार्थ- उपकरण का त्याग अवश्य कहा जाता है। अत: आगम में वस्त्र-पात्र दृष्टि का परिचायक है। की जो चर्या बतायी गयी है वह कारण की अपेक्षा से अर्थात् ___ अपराजित ने सर्वप्रथम आगमों के उन सन्दर्भो को प्रस्तुत किया आपवादिक है। है, जिनमें वस्त्र-पात्र सम्बन्धी उल्लेख हैं, फिर उनका समाधान प्रस्तुत इस प्रकार हम देखते हैं कि यापनीय संघ मात्र आपवादिक स्थिति किया है। वे लिखते हैं-'आचारप्रणिधि' अर्थात् दशवैकालिक के में वस्त्र-ग्रहण को स्वीकार करता था और उत्सर्ग मार्ग अचेलता को आठवें अध्याय में कहा गया है कि पात्र और कम्बल की प्रतिलेखना ही मानता था। आचारांग के 'भावना' नामक अध्ययन में महावीर के करनी चाहिए। यदि पात्रादि नहीं होते तो उनकी प्रतिलेखना का कथन एक वर्ष तक वस्त्रयुक्त होने के उल्लेख को वह विवादास्पद मानता क्यों किया जाता? पुन: आचारांग५ के 'लोक-विचय' नामक दूसरे था। अपराजित ने इस सम्बन्ध में विभिन्न प्रवादों का उल्लेख भी किया अध्ययन के पाँचवें उद्देशक में कहा गया है कि प्रतिलेखन (पडिलेहण), है- जैसे कुछ कहते हैं कि वह छ: मास में काँटे, शाखा आदि पादपोंछन (पायपुच्छन), अवग्रह (उग्गह), कटासन (कडासण), चटाई से छिन्न हो गया। कुछ कहते हैं कि एक वर्ष से कुछ अधिक होने आदि की याचना करे। पुन: उसके 'वस्त्रैषणा'३६ अध्ययन में कहा गया पर उस वस्त्र को खण्डलक नामक ब्राह्मण ने ले लिया। कुछ कहते है कि जो लज्जाशील है वह एक वस्त्र धारण करे, दूसरा वस्त्र प्रतिलेखना है कि वह वस्त्र वायु से गिर गया और भगवान् ने उसकी उपेक्षा कर हेतु रखे। जुंगित (देश-विशेष) में दो वस्त्र धारण करे और तीसरा दी। कोई कहते हैं कि विलम्बनकारी ने उसे जिन के कन्धे पर रख प्रतिलेखना हेतु रखे, यदि शीत परीषह सहन नहीं हो तो तीन वस्त्र दिया आदि। इस प्रकार अनेक विप्रतिपत्तियों के कारण अपराजित की धारण करे और चौथा प्रतिलेखना हेतु रखे। पुन: उसके पात्रैषणारे७ दृष्टि में इस कथन में कोई तथ्य नहीं है। पुन: अपराजित ने आगम में कहा गया है कि लज्जाशील, जुंगित अर्थात् जिसके लिंग आदि से अचेलता के समर्थक अनेक सूत्र भी उद्धृत किये हैं.६, यथाहीनाधिक हो तथा पात्रादि रखता हो उसे वस्त्र रखना कल्पता है। पुनः “वस्त्रों का त्याग कर देने पर भिक्षु पुनः वस्त्र-ग्रहण नहीं करता तथा उसमें कहा गया है तुम्बी का पात्र, लकड़ी का पात्र अथवा मिट्टी का अचेल होकर जिन-रूप धारण करता है। भिक्षु यह नहीं सोचे कि सचेलक पात्र यदि जीव, बीजादि से रहित हो तो ग्राह्य है। यदि वस्त्र-पात्र ग्राह्य सुखी होता है और अचेलक दुःखी होता है, अत: मैं सचेलक हो नहीं होते तो फिर ये सूत्र आगम में क्यों आते? पुन: आचारांग८ जाऊँ। अचेल को कभी शीत बहुत सताती है, फिर भी वह धूप का के 'भावना' नामक अध्ययन में कहा गया है कि भगवान् एक वर्ष विचार न करे। मुझ निरावरण के पास कोई छादन नहीं है, अत: मैं तक चीवरधारी रहे, उसके बाद अचेल हो गये। साथ ही सूत्रकृतांग९ अग्नि का सेवन कर लूँ, ऐसा भी नहीं सोचे।" इसी प्रकार उन्होंने के 'पुण्डरीक' नामक अध्ययन में कहा गया है कि भिक्षु, वस्त्र और उत्तराध्ययन के २३ वें अध्ययन की गाथायें उद्धृत करके यह बताया पात्र के लिये धर्मकथा न कहे। निशीथ ° में कहा गया है कि जो भिक्षु कि पार्श्व का धर्म सान्तरुत्तर था। महावीर का धर्म तो अचेलक ही अखण्ड-वस्त्र और कम्बल धारण करता है उसे मास-लघु (प्रायश्चित्त था। पुन: दशवैकालिक में मुनि को नग्न और मुण्डित कहा गया है। का एक प्रकार) प्रायश्चित्त आता है। इस प्रकार आगम में वस्त्र-ग्रहण इससे भी आगम में अचेलता ही प्रतिपाद्य है, यह सिद्ध होता है। की अनुज्ञा होने पर भी अचेलता का कथन क्यों किया जाता है? इस समग्र चर्चा के आधार पर यापनीय संघ का वस्त्र-सम्बन्धी इसका समाधान करते हुए स्वयं अपराजितसूरि कहते है कि आगम दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाता है। उनके इस दृष्टिकोण को संक्षेप में निम्न मैं कारण की अपेक्षा से आर्यिकाओं को वस्त्र की अनुज्ञा है, यदि रूप में प्रस्तुत किया जा सकता हैभिक्षु लज्जालु हैं अथवा उसकी जननेन्द्रिय त्वचारहित हो या अण्डकोष १. श्वेताम्बर परम्परा, जो जिनकल्प के विच्छेद की घोषणा के लम्बे हों अथवा वह परीषह (शीत) सहन करने में अक्षम हो तो उसे द्वारा वस्त्र आदि के सम्बन्ध में महावीर की वैकल्पिक व्यवस्था को वस्त्रधारण करने की अनुज्ञा है। आचारांग २ में ही कहा गया है कि समाप्त करके सचेलकत्व को ही एक मात्र विकल्प बना रही थी, यह संयमाभिमुख स्त्री-पुरुष दो प्रकार के होते हैं-सर्वश्रमणागत और बात यापनीयों को मान्य नहीं थी। नो-सर्वश्रमणागता। उनमें सर्वश्रमणागत स्थिरांग वाले पाणि-पात्र भिक्षु २. यापनीय यह मानते थे कि जिनकल्प का विच्छेद सुविधावादियों को प्रतिलेखन के अतिरिक्त एक भी वस्त्र धारण करना या छोड़ना की अपनी कल्पना है। समर्थ साधक इन परिस्थितियों में या इस युग नहीं कल्पता है। बृहत्कल्पसूत्र४३ में भी कहा गया है कि लज्जा के में भी अचेल रह सकता है। उनके अनुसार अचेलता (नग्नता) ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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