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________________ २९४ २. जो अचेल होता है, वही अकिंचन धर्म के पालन में तत्पर होता है। ३. परिग्रह (वस्त्रादि) के लिये हिंसा (आरम्भ) में प्रवृत्ति होती है, जो अपरिग्रही है, वह हिंसा (आरम्भ ) नहीं करता है। अतः पूर्ण अहिंसा के पालन के लिये अचेलता आवश्यक है। जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ ४. परिग्रह के लिये ही झूठ बोला जाता है। बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह के अभाव में झूठ बोलने का कोई कारण नहीं होता, अचेल मुनि सत्य ही बोलता है। अतः ५. अचेल में लाघव भी होता है। ६. अचेलधर्म का पालन करने वाले का अदत्त-त्याग भी सम्पूर्ण होता है क्योंकि परिग्रह की इच्छा होने पर ही बिना दी हुई वस्तु के ग्रहण करने में प्रवृत्ति होती है। ७. परिग्रह के निमित्त क्रोध कषाय होता है, अतः परिग्रह के अभाव में क्षमा-भाव रहता है। ८. अचेल को सुन्दर या सम्पन्न होने का मद भी नहीं होता, अतः उसमें आर्जव (सरलता) धर्म भी होता है। ९. अचेल में माया (छिपाने की प्रवृत्ति) नहीं होती, अतः उसके आर्जव (सरलता) धर्म भी होता है। १०. अचेल शीत, उष्ण, दंश, मच्छर आदि परीषहों को सहता है, अतः उसे घोर तप भी होता है। पुनः वे अचेलकत्व की प्रशंसा करते हुए लिखते है१. अचेलता से शुद्ध संयम का पालन होता है, पसीना, धूल और मैल से युक्त वस्त्र में उसी योनि वाले और उसके आश्रय से रहने वाले स जीव तथा स्थावर जीव उत्पन्न होते है। वस्त्रधारण करने से उन्हें बाधा भी उत्पन्न होती है। जीवों से संसक्त वस्त्रधारण करने वाले के द्वारा उठने बैठने, सोने, वस्त्रको फाड़ने, काटने, बाँधने, धोने, कूटने, धूप में डालने से जीवों को बाधा (पीड़ा होती है, जिससे महान् असंयम होता है। २. अचेलता से इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होती है। जिस प्रकार सर्पों से युक्त जंगल में व्यक्ति बहुत सावधान रहता है उसी प्रकार जो अचेल होता है वह इन्द्रियों (कामवासना) पर विजय प्राप्त करने में पूर्णतया सावधान रहता है क्योंकि ऐसा नहीं करने पर शरीर में विकार (कामोत्तेजना ) उत्पन्न होने पर लज्जित होना पड़ता है। ३. अचेलता का तीसरा गुण कषायरहित होना है, क्योंकि वस्त्र के सद्भाव में उसे चोरों से छिपाने के लिये मायाचार करना होता है। वस्त्र होने पर मेरे पास सुन्दर वस्त्रै, ऐसा अहंकार भी हो सकता है, वस्त्र के छीने जाने पर क्रोध तथा उसकी प्राप्ति में लोभ भी हो सकता है, जबकि अचेलक में ऐसे दोष उत्पन्न नहीं होते हैं। ४. सवस्त्र होने पर सुई, धागा, वस्त्र आदि की खोज में तथा उसके सीने, धोने, प्रतिलेखना आदि करने में ध्यान और स्वाध्याय का समय नष्ट होता है। अचेल को ध्यान स्वाध्याय में बाधा नहीं होती। ५. जिस प्रकार बिना छिलके (आवरण) का धान्य नियम से शुद्ध होता है, किन्तु छिलकेयुक्त धान्य की शुद्धि नियम से नहीं होती, Jain Education International वह भाज्य होती है, उसी प्रकार जो अचेल है उसकी शुद्धि निश्चित होती है, किन्तु सचेल की शुद्धि भाज्य है ( एवमचेलवतिनियमादेव, भाज्या सचेले भगवती आराधना ४२३ पर विजयोदया टीका, पु० ३२२), अर्थात् सचेल की शुद्धि हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है। यहाँ दिगम्बर परम्परा और यापनीय परम्परा का अन्तर स्पष्ट है । दिगम्बर परम्परा यह मानती है कि सचेल मुक्त (शुद्ध) नहीं हो सकता, चाहे वह तीर्थङ्कर ही क्यों न हो जबकि यापनीय परम्परा यह मानती है कि स्त्री, गृहस्थ और अन्यतैर्थिक सचेल हेकर भी मुक्त सकते हैं। यहाँ भाज्य (विकल्प) शब्द का प्रयोग यापनीयों की उदार और अनेकान्तिक दृष्टि का परिचायक है। ६. अचेलता में राग-द्वेष का अभाव होता है। राग-द्वेष बाह्य द्रव्य के आलम्बन से होता है। परिग्रह के अभाव में आलम्बन का अभाव होने से राग-द्वेष नहीं होते, जबकि सचेल को मनोज्ञ वस्त्र के प्रति राग भाव हो सकता है। ७. अचेलक शरीर के प्रति उपेक्षा भाव रखता है, तभी तो वह शीत और ताप के कष्ट सहन करता है। ८. अचेलता में स्वावलम्बन होता है और देशान्तर गमन में किसी की सहायता की अपेक्षा नहीं होती। जिस प्रकार पक्षी अपने पंखों के सहारे चल देता है, वैसे ही वह भी प्रतिलेखन (पीछी) लेकर चल देता है। ९. अचेलता में चित्त- विशुद्धि प्रकट करने का गुण है। लँगोटी आदि से ढँकने से भाव -शुद्धि का ज्ञान नहीं होता है । १०. अचेलता में निर्भयता है, क्योंकि चोर आदि का भय नहीं रहता । ११. सर्वत्र विश्वास भी अचेलता का गुण है। न तो वह किसी पर शंका करता है और न कोई उस पर शंका करता है। १२. अचेलता में प्रतिलेखना का अभाव होता है। चौदह प्रकार का परिग्रह रखने वालों को जैसी प्रतिलेखना करनी होती है वैसी अचेल को नहीं करनी होती । १३. सचेल को लपेटना, छोड़ना, सीना, बाँधना, धोना, रंगना आदि परिकर्म करने होते हैं जबकि अचेल को ये परिकर्म नहीं करने होते । १४. तीर्थङ्करों के अनुरूप आचरण करना (जिनकल्प का आचरण) भी अचेलता का एक गुण है क्योंकि संहनन और बल से पूर्ण सभी तीर्थङ्कर अचेल थे और भविष्य में भी अचेल ही होंगे। जिनप्रतिमा और गणधर भी अचेल होते हैं और उनके शिष्य भी उन्हीं की तरह अचेल होते हैं जो सवस्त्र है वह जिन के अनुरूप नहीं है अर्थात् जिनकल्प का पालन नहीं करता है। १५. अचेल ही निर्ग्रन्थ कहला सकता है। यदि अपने शरीर को वस्त्र से वेष्टित करके भी अपने को निर्मन्थ कहा जा सकता है, तो फिर अन्य परम्परा के साधु निर्मन्थ क्यों नहीं कहे जायेंगे अर्थात् उन्हें भी निर्मन्य मानना होगा। इस प्रकार हम देखते हैं कि यापनीय परम्परा स्पष्ट रूप से For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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