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________________ २९६ जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ जिन का आदर्श मार्ग है, अतः मुनि को अचेल या नग्न ही रहना चाहिये। ३. यापनीय आपवादिक स्थितियों में ही मुनि के लिये वस्त्र की ब्राह्मता को स्वीकार करते थे, उनकी दृष्टि में ये आपवादिक स्थितियाँ निम्नलिखित थीं (क) राज परिवार आदि अतिकुलीन घराने के व्यक्ति जन साधारण के समक्ष नग्नता छिपाने के लिये वस्त्र रख सकते हैं। (ख) इसी प्रकार वे व्यक्ति भी जो अधिक लज्जाशील हैं अपनी नग्नता को छिपाने के लिये वस्त्र रख सकते हैं। (ग) वे नवयुवक मुनि जो अभी अपनी काम वासना को पूर्णतः विजित नहीं कर पाये हैं और जिन्हें लिंगोत्तेजना आदि के कारण निर्ग्रन्थ संघ में और जनसाधारण में प्रवाद का पात्र बनना पड़े, अपवाद रूप में वस्त्र रख सकते हैं। (घ) वे व्यक्ति जिनके लिंग और अण्डकोष विद्रूप हैं, वे संलेखना के अवसर को छोड़कर यावज्जीवन वस्त्रधारण करके ही रहें। (ङ) वे व्यक्ति जो शीतादि परीषह सहन करने में सर्वथा असमर्थ हैं, अपवाद रूप में वस्त्र रख सकते हैं। (च) वे मुनि जो अर्श, भगन्दर आदि की व्याधि से ग्रस्त हों, बीमारी की स्थिति में वस्त्र रख सकते हैं। ४. जहाँ तक साध्वियों का प्रश्न था यापनीय संघ में स्पष्ट रूप से उन्हें वस्त्र रखने की अनुज्ञा थी। यद्यपि साध्वियों भी एकान्त में संलेखना के समय जिन-मुद्रा अर्थात् अचेलता धारण कर सकती थीं। इस प्रकार वापनीयों का आदर्श अचेलकत्व ही रहा, किन्तु अपवाद मार्ग में उन्होंने वस्त्र पात्र की ग्राह्यता भी स्वीकार की। वे यह मानते हैं कि कषायत्याग और रागात्मकता को समाप्त करने के लिये सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग, जिसमें वख त्याग भी समाहित है, आवश्यक है. किन्तु वे दिगम्बर परम्परा के समान एकान्त रूप से यह घोषणा नहीं करते हैं कि वस्त्रधारी चाहे वह तीर्थङ्कर ही क्यों नहीं हो, मुक्त नहीं हो सकता। वे सवस्त्र में भी आध्यात्मिक विशुद्धि और मुक्ति की भजनीयता अर्थात् सम्भावना को स्वीकार करते हैं। इस प्रकार वे अचेलकत्व सम्बन्धी मान्यता के सन्दर्भ में दिगम्बर परम्परा के निकट खड़े होकर भी अपना भिन्न मत रखते हैं। वे अचेलकत्व के आदर्श को स्वीकार करके भी सवस्त्र मुक्ति की सम्भावना को स्वीकार करते हैं। पुनः मुनि के लिये अबेलकत्व का पुरजोर समर्थन करके भी वे यह नहीं कहते हैं कि जो आपवादिक स्थिति में वस्त्र धारण कर रहा है, वह मुनि नहीं है जहाँ हमारी वर्तमान दिगम्बर परम्परा मात्र लँगोटधारी ऐलक, एक चेलक या दो वस्त्रधारी, क्षुल्लक को मुनि न मानकर उत्कृष्ट श्रावक ही मानती है, वहाँ यापनीय परम्परा ऐसे व्यक्तियों की गणना मुनिवर्ग के अन्तर्गत ही करती है। अपराजित आचारांग का एक सन्दर्भ देकर, जो वर्तमान आचारांग में नहीं पाया जाता है, कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति नो-सर्वश्रमणागत हैं तात्पर्य यह है कि सवस्त्र मुनि अंशतः भ्रमणभाव को प्राप्त हैं। इस प्रकार यापनीय आपवादिक स्थितियों में परिस्थितिवश वस्त्र प्रहण करने वाले श्रमणों को श्रमण ही मानते हैं, Jain Education International गृहस्थ नहीं। यद्यपि यापनीय और दिगम्बर दोनों ही अचेलकत्व के समर्थक हैं, फिर भी वत्र के सम्बन्ध में यापनीयों का दृष्टिकोण अपेक्षाकृत उदार एवं यर्थाथवादी रहा है आपवादिक स्थिति में वस्त्र-ग्रहण, सचेल की मुक्ति की सम्भावना, सचेल स्त्री और पुरुष दोनों में श्रमणत्व या मुनित्व का सद्भाव - उन्हें अचेलता के प्रश्न पर दिगम्बर परम्परा से भिन्न करता है, जबकि आगमों में वख पात्र के उल्लेख मात्र आपवादिक स्थिति के सूचक हैं और जिनकल्प का विच्छेद नहीं है, यह बात उन्हें सेताम्बरों से अलग करती है। जिनकल्प एवं स्थविरकल्प अचेलकत्व एवं सचेलकत्व सम्बन्धी इस चर्चा के प्रसंग में जिनकल्प और स्थाविरकल्प की चर्चा भी अप्रासंगिक नहीं होगी। वेताम्बर मान्य आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं में जिनकल्प और स्थविरकल्प की जो चर्चा मिलती है, उससे यह फलित होता है कि प्रारम्भ में अचेलता अर्थात् नग्नता को जिनकल्प का प्रमुख लक्षण माना गया था, किन्तु कालान्तर में जिनकल्प शब्द की व्याख्या में क्रमशः परिवर्तन हुआ है जिनकल्पी की कम से कम दो उपाधि (मुखयस्त्रिका और रजोहरण) मानी गई किन्तु ओघनियुक्ति के लिये जिनकल्प शब्द का सामान्य अर्थ तो जिन के अनुसार आचरण करना है। जिनकल्प की बारह उपाधियों का भी उल्लेख है। कालान्तर में श्वेताम्बर आचार्यों ने उन साधुओं को जिनकल्पी कहा जो गच्छ का परित्याग करके एकाकी विहार करते थे तथा उत्सर्ग मार्ग के ही अनुगामी होते थे। वस्तुतः जब श्वेताम्बर परम्परा में अचेलता का पोषण किया जाने लगा तो जिनकल्प की परिभाषा में भी अन्तर हुआ निशीथचूर्णि में जिनकल्प और स्थविरकल्प की परिभाषा देते हुए कहा है कि जिनकल्प में मात्र उत्स मार्ग का ही अनुसरण किया जाता है। अतः उसमें कल्पप्रतिसेवना और दर्पप्रतिसेवना दोनों का अर्थात् किसी भी प्रकार के अपवाद के अवलम्बन का ही निषेध है जबकि स्थविरकल्प में उत्सर्ग और अपवाद दोनों ही मार्ग स्वीकार किये गए हैं। यद्यपि अपवाद मार्ग में भी मात्र कल्पप्रतिसेवना को ही मान्य किया गया है। दर्पप्रतिसेवना को किसी भी स्थिति में मान्य नहीं किया गया है। श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगमों में प्रारम्भ में तो भगवान् महावीर के समान नग्नता को ग्रहण कर, कर पात्र में भोजन ग्रहण करते हुए अपवादरहित जो मुनिधर्म की कठिन साधना की जाती है, उसे ही जनकल्प कहा गया है किन्तु कालान्तर में इस परिभाषा में परिवर्तन हुआ। यापनीय परम्परा में जिनकल्प का उल्लेख हमें भगवती आराधना और उसकी विजयोदया टीका में मिलता है उसमें कहा गया है कि "जो राग-द्वेष और मोह को जीत चुके हैं, उपसर्ग को सहन करने में समर्थ हैं, जिन के समान एकाकी विहार करते हैं. वे जिनकल्पी कहलाते हैं" क्षेत्र आदि की अपेक्षा से विवेचन करते हुए उसमें आगे कहा गया है कि जिनकल्पी सभी कर्मभूमियों और सभी कालों में होते हैं। इसी प्रकार चारित्र की दृष्टि से वे सामायिक और छेदोपस्थापनीय चारित्र वाले होते हैं। वे सभी तीर्थङ्करों के तीर्थ में पाए जाते हैं और " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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