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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ २१८ की जैन दार्शनिकों द्वारा की गई समीक्षाओं की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण विनाश होने पर देही का भी विनाश हो जाता है। साथ ही यह भी सामग्री उपलब्ध है। इन आगमों की प्राकृत एवं संस्कृत आगमिक बताया गया है कि व्यक्ति चाहे मूर्ख हो या पण्डित प्रत्येक की अपनी व्याख्याओं, यथा-नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति, टीका आदि के आत्मा होती है जो मृत्यु के बाद नहीं रहती। प्राणी औपपातिक अर्थात् अतिरिक्त जैन दार्शनिक ग्रन्थों में भी भौतिकवादी जीवन दृष्टि की पुर्नजन्म ग्रहण करने वाले नहीं है। शरीर का नाश होने पर देही अर्थात् समीक्षाएं उपलब्ध हैं। किन्तु इन सबको तो किसी एक स्वतन्त्र ग्रन्थ में आत्मा का भी नाश हो जाता है। इस लोक से परे न तो कोई लोक ही समेटा जा सकता है। अत: इस निबन्ध की सीमा मर्यादाओं का है और न पुण्य और पाप ही है। इस प्रकार सूत्रकृतांग के प्रथम ध्यान रखते हुए हम अपनी विवेचना को पूर्व निर्देशित प्राचीन स्तर के श्रुतस्कन्ध में भी चार्वाक दर्शन की मान्यताएं परिलक्षित होती है। यद्यपि प्राकृत आगमों तक ही सीमित रखेंगे। सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में चार्वाक दर्शन की समीक्षा प्रस्तुत की गई है, किन्तु विद्वानों ने उसे किंचित् परवर्ती माना है। अत: इसके आचारांग में लोकसंज्ञा के रूप में लोकायत दर्शन का निर्देश पूर्व हम उत्तराध्ययन का विवरण प्रस्तुत करेंगे। इसमें चार्वाक दर्शन को जैन आगमों में आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध अतिप्राचीन जन-श्रद्धा (जन-सद्धि) कहा गया है।१० सम्भवत: लोकसंज्ञा और जनमाना जाता है। विद्वानों में ऐसी मान्यता है कि इस ग्रन्थ में स्वयं श्रद्धा, ये लोकायत दर्शन के ही पूर्व नाम हैं। उत्तराध्ययन में स्पष्ट रूप महावीर के वचनों का संकलन हुआ है। इसका रचनाकाल चौथी-पाँचवीं से कहा गया है कि ये सांसारिक विषय ही हमारे प्रत्यक्ष के विषय हैं। शताब्दी ई.पू. माना जाता है। आचारांग में स्पष्ट रूप से लोकायत दर्शन परलोक को तो हमने देखा ही नहीं। वर्तमान के काम-भोग हस्तगत हैं का उल्लेख तो नहीं है किन्तु इस ग्रन्थ में इसकी समीक्षा की गई है। जबकि भविष्य में मिलने वाले स्वर्ग-सुख अनागत अर्थात् संदिग्ध हैं। सूत्र के प्रारम्भ में कहा गया है कि कुछ लोगों को यह ज्ञात नहीं होता कौन जानता है कि परलोक है भी या नहीं? इसलिए मैं तो जन-श्रद्धा कि मेरी आत्मा औपपातिक (पुनर्जन्म करने वाली) है। मैं कहाँ से आया के साथ होकर रहूँगा।११ इस प्रकार उत्तराध्ययन के पंचम अध्याय में हूँ और यहाँ से अपना जीवन समाप्त करके कहाँ जन्म ग्रहण करूँगा? चार्वाकों की पुर्नजन्म के निषेध की अवधारणा का उल्लेख एवं खण्डन सूत्रकार कहता है कि व्यक्ति को यह जानना चाहिए कि मेरी आत्मा किया गया है। इसी प्रकार उत्तराध्ययन के चौदहवें अध्याय में भी औपपातिक (पुनर्जन्म ग्रहण करने वाली) है जो इन दिशाओं और चार्वाकों के असत् से सत् की उत्पत्ति के सिद्धान्त का प्रस्तुतीकरण विदिशाओं में संचरण करती है और वही मैं हूँ। वस्तुत: जो यह जानता किया गया है। क्योंकि चार्वाकों का पंचमहाभूत से चेतना की उत्पत्ति है वही आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी है। इस का सिद्धान्त वस्तुत: असत् से सत् की उत्पत्ति का सिद्धान्त है यद्यपि प्रकार इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में चार्वाक दर्शन की मान्यताओं के विरुद्ध उत्तराध्ययन में असत्कार्यवाद का जो उदाहरण प्रस्तुत किया गया है, चार बातों की स्थापना की गई है.... आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद वह असत्कार्यवाद के पक्ष में न जाकर सत्कार्यवाद के पक्ष में ही जाता और क्रियावाद। आत्मा की स्वतन्त्र और नित्य सत्ता को स्वीकार करना है। उसमें कहा गया है कि जैसे- अरणि में अग्नि, दूध में घृत और आत्मवाद है। संसार को यथार्थ और आत्मा को लोक में जन्म-मरण तिल में तेल असत् होकर भी उत्पन्न होता है, उसी प्रकार शरीर में जीव करने वाला समझना लोकवाद है। आत्मा को शुभाशुभ कर्मों की कर्ता- भी असत् होकर ही उत्पन्न होता है और उस शरीर का नाश हो जाने भोक्ता एवं परिणामी (विकारी) मानना क्रियावाद है। इसी प्रकार आचारांग पर वह भी नष्ट हो जाता है।१२ सम्भवत: उत्तराध्ययन में चार्वाकों के में लोकसंज्ञा का परित्याग करके इन सिद्धान्तों में विश्वास करने का भी असत्कार्यवाद की स्थापना के पक्ष में ये सत्कार्यवाद की सिद्धि करने निर्देश दिया गया है। ज्ञातव्य है कि आचारांग में लोकायत या चार्वाक वाले उदाहरण इसीलिये दिये गये होंगे ताकि इनकी समालोचना सरलता दर्शन का निर्देश लोक-संज्ञा के रूप में हुआ है। यद्यपि इसमें इन पूर्वक की जा सके। उत्तराध्ययन में आत्मा को अमूर्त होने के कारण मान्यताओं की समालोचना तो की गई है किन्तु उसकी कोई तार्किक इन्द्रिय ग्राह्य नहीं माना गया है, अमूर्त होने से नित्य कहा गया भूमिका प्रस्तुत नहीं की गई है। है।१३ उपरोक्त विवरण से चार्वाकों के सन्दर्भ में निम्न जानकारी मिलती हैसूत्रकृतांग में लोकायत दर्शन १. चार्वाक दर्शन को “लोक-संज्ञा" और "जन-श्रद्धा" के आचारांग के पश्चात् सूत्रकृतांग का क्रम आता है। इसके नाम से अभिहित किया जाता था। प्रथम श्रुतस्कन्ध को भी विद्वानों ने अतिप्राचीन (लगभग ई.पू. चौथी २. चार्वाक दर्शन आत्मा को स्वतन्त्र तत्त्व नहीं मानता था। शती) माना है। सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्याय में हमें वह पंचमहाभूतों से चेतना की उत्पत्ति बताता था। चार्वाक दर्शन के पंचमहाभूतवाद और तज्जीवतच्छरीरवाद के उल्लेख ३. इसी कारण वह असत्कार्यवाद अर्थात् असत् से सत् की प्राप्त होते हैं। इसमें पंचमहाभूतवाद को प्रस्तुत करते हुए कहा गया है उत्पत्ति के सिद्धान्त को स्वीकार करता था। कि पृथ्वी, अप, तेजस, वायु और आकाश ऐसे पाँच महाभूत माने गये ४. शरीर के नाश के साथ आत्मा के विनाश को स्वीकार हैं। उन पाँच महाभूतों से ही प्राणी की उत्पत्ति होती है और देह का करता था, तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त को अस्वीकार करता था। पुनर्जन्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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