SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 340
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१९ प्राचीन जैनागमों में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा की अस्वीकृति के साथ-साथ वह परलोक अर्थात् स्वर्ग-नरक की सत्ता मुक्ति पा लेता है। को भी अस्वीकार करता था। इस ग्रन्थ में चार्वाक दर्शन के सन्दर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण ५. वह पुण्य पाप अर्थात् शुभाशुभ कर्मों के शुभाशुभ फलों बात यह है कि इसमें कर्म सिद्धान्त का उत्थापन करने वालों चार्वाकों को भी अस्वीकार करता था, अत: कर्म सिद्धान्त का विरोधी था। के पाँच प्रकारों का उल्लेख हुआ है और ये प्रकार अन्य दार्शनिक ग्रन्थों ६. उस युग में दार्शनिकों का एक वर्ग अक्रियावाद का में मिलने वाले देहात्मवाद, इन्द्रियात्मवाद, मन:आत्मवाद आदि प्रकारों समर्थक था। जैनों के अनुसार अक्रियावादी वे दार्शनिक थे, जो आत्मा से भिन्न हैं और सम्भवतः अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं होते हैं। इसमें को अकर्ता और कूटस्थनित्य मानते थे। आत्मवादी होकर भी शुभाशुभ निम्न पाँच प्रकार के उक्कलों की उल्लेख है- दण्डोक्कल, रज्जूक्कल, कर्मों के शुभाशुभ फल (कर्म सिद्धान्त) के निषेधक होने से ये प्रच्छन्न स्तेनोक्कल, देशोक्कल और सब्बुक्कल।१५ इस प्रसंग में सबसे चार्वाकी ही थे। पहले तो यही विचारणीय है कि उक्कल शब्द का वास्तविक अर्थ क्या इस प्रकार आचारांग सूत्रकृतांग और उत्तराध्ययन में चार्वाक है? प्राकृत के उक्कल शब्द को संस्कृत में निम्न चार शब्दों के समीप दर्शन के जो उल्लेख हमें उपलब्ध होते हैं। वे मात्र उसकी अवधारणाओं माना जा सकता है- उत्कट, उत्कल, उत्कुल और उत्कूल। संस्कृत को संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं। उनमें इस दर्शन की मान्यताओं से साधक कोशों में उत्कट शब्द का अर्थ उन्मत्त दिया गया है। चूंकि चार्वाक को विमुख करने के लिए इतना तो अवश्य कहा गया है कि यह दर्शन आध्यात्मवादियों की दृष्टि में उन्मत्त प्रलापवत् ही था, अत: उसे विचारधारा समीचीन नहीं है। किन्तु इन ग्रन्थों में चार्वाक दर्शन की उत्कट कहा गया हो। किन्तु उक्कल का संस्कृत रूप उत्कट मानना मान्यताओं का प्रस्तुतीकरण और निरसन दोनों ही न तो तार्किक है उचित नहीं है। उसके स्थान पर उत्कल, उत्कूल या उत्कुल मानना और न विस्तृत। अधिक समीचीन है। 'उत्कल' का अर्थ है जो निकाला गया हो, इसी प्रकार 'उत्कुल' शब्द का तात्पर्य है जो कुल से निकाला गया है या ऋषिभाषित में प्रस्तुत चार्वाक दर्शन जो कुल से बहिष्कृत है।१६ चार्वाक आध्यात्मिक परम्पराओं से बहिष्कृत ऋषिभाषित का बीसवाँ "उक्कल" नामक सम्पूर्ण अध्ययन माने जाते थे, इसी दृष्टि से उन्हें उत्कल या उत्कुल कहा गया होगा। ही चार्वाक दर्शन की मान्यताओं के तार्किक प्रस्तुतीकरण से युक्त है। यदि हम इसे उत्कूल से निष्पन्न मानें तो इसका अर्थ होगा किनारे से चार्वाक दर्शन के तज्जीवतच्छरीरवाद का प्रस्तुतीकरण इस ग्रन्थ में अलग हटा हुआ। 'कूल' शब्द किनारे अर्थ में प्रयुक्त होता है, अर्थात् निम्नवत् हुआ है... “पादतल से ऊपर और मस्तक के केशान से नीचे जो किनारे से अलग होकर अर्थात् मर्यादाओं को तोड़कर अपना तथा सम्पूर्ण शरीर की त्वचापर्यन्त जीव आत्मपर्याय को प्राप्त हो प्रतिपादन करता है वह उत्कल है। चूंकि चार्वाक नैतिक मर्यादाओं को जीवन जीता है और इतना ही मात्र जीवन है। जिस प्रकार बीज के भुन अस्वीकार करते थे अत: उन्हें उत्कूल कहा गया होगा। अब हम इन जाने पर उससे पुन: अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती है, उसी प्रकार शरीर उक्कलों के पाँच प्रकारों की चर्चा करेंगेके दग्ध हो जाने पर उससे पुन: जीव की उत्पत्ति नहीं होती है। इसीलिए जीवन इतना ही है अर्थात् शरीर की उत्पत्ति से विनाश तक की दण्डोक्कल कालावधि पर्यन्त ही जीवन है न तो परलोक है न सुकृत और दुष्कृत ये विचारक दण्ड के दृष्टांत द्वारा यह प्रतिपादित करते थे कि कर्मों का फल विपाक है। जीव का पुनर्जन्म भी नहीं होता है। पुण्य जिस प्रकार दण्ड के आदि, मध्य और अन्तिम भाग पृथक-पृथक होकर और पाप जीव का संस्पर्श नहीं करते हैं और इस तरह कल्याण और दण्ड संज्ञा को प्राप्त नहीं होता है उसी प्रकार शरीर से भिन्न होकर पाप निष्फल है। ऋषिभाषित में चार्वाकों की इस मान्यता की समीक्षा जीव, जीव नहीं होता है। अत: शरीर के नाश हो जाने पर भव अर्थात् करते हुए पुनः कहा गया है कि “पादतल से ऊपर तथा मस्तक के जन्म-परम्परा का भी नाश हो जाता है। उनके अनुसार सम्पूर्ण शरीर में केशान से नीचे और शरीर की सम्पूर्ण त्वचा पर्यन्त आत्मपर्याय को व्याप्त होकर जीव जीवन को प्राप्त होता है।१७ वस्तुत: शरीर और प्राप्त यह जीव है, यह मरणशील है, किन्तु जीवन इतना ही नहीं है। जीवन की अपृथक्ता या सामुदायिकता ही इन विचारकों की मूलभूत जिस प्रकार बीज के जल जाने पर उससे पुन: उत्पत्ति नहीं होती उसी दार्शनिक मान्यता थी। दण्डोक्कल देहात्मवादी थे। प्रकार शरीर के दग्ध हो जाने पर भी उससे पुन: उत्पत्ति नहीं होती है। इसलिए जीवन में पुण्य-पाप का अग्रहण होने से सुख-दुख की रज्जूक्कल सम्भावना का अभाव हो जाता है और पाप कर्म के अभाव में शरीर के रज्जूक्कलवादी यह मानते हैं कि जिस प्रकार रज्जू तन्तुओं दग्ध होने पर पुनः शरीर की उत्पत्ति नहीं होती अर्थात् पुनर्जन्म नहीं का समुदाय मात्र है उसी प्रकार जीव भी पंचमहाभूतों का स्कन्ध मात्र है। होता है। इस प्रकार व्यक्ति मुक्ति प्राप्त कर लेता है। यहाँ हम देखते उन स्कन्धों के विच्छिन्न होने पर भव-सन्तति का भी विच्छेद हो जाता हैं कि ग्रन्थकार चार्वाकों के उनके ही तर्क का उपयोग करके यह सिद्ध है।१८ वस्तुतः ये विचारक पंचमहाभूतों के समूह को ही जगत् का मूल कर देता है कि पुण्य-पाप से ऊपर उठकर व्यक्ति पुनर्जन्म से चक्र से तत्त्व मानते थे और जीव को स्वतन्त्र तत्त्व के रूप में स्वीकार नहीं करते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy