SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राचीन जैनागमों में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा २१७ ४२. तत्त्वार्थसूत्र, १/४ ५१. वही, १/८/३ ४३. इसिभासियाई (ऋषिभाषित), ९/२ ५२. आचारांगसूत्र, १/४/२/१ ४४. समयसार (कुन्दकुन्द), १४५-१४६ ५३. सागरमल जैन-जेन कर्मसिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. ४५. प्रवचनसार टीका (अमृतचन्द्र), १/७२ की टीका ५२-५५ ४६. समयसार वचनिका, जयचन्द छाबड़ा, गाथा १४५-१४६ की ५४. वही, पृ. ६१-६७ वचनिका पृ.२०७ ५५. वही, पृ. ५७ ४७. भगवद्गीता, ४/१६ ५६. (अ) वही, पृ. ६७-७९ ४८. सूत्रकृतांग, १/८/२२-२४ (ब) प्रस्तुत विवरण तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ६ एवं ८, कर्मग्रन्थ ४९. भगवद्गीता ४/१६ प्रथम, (कर्मविपाक) पृ. ५४-६२, समवायांग ३०/१ तथा ५०. सूत्रकृतांगसूत्र, १/८/१-२ स्थानांग १/४/४/३७३ पर आधारित है। प्राचीन जैनागमों में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा चार्वाक या लोकायत दर्शन का भारतीय दार्शनिक चिन्तन सिद्धसेनगणि, मलयगिरि और मुनिचन्द्रसूरि ने राजा प्रसेनजित को में भौतिकवादी दर्शन के रूप में विशिष्ट स्थान है। भारतीय चिन्तन ही माना है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से अधिक प्रामाणिक लगता है। में भौतिकवादी जीवनदृष्टि की उपस्थिति के प्रमाण अति प्राचीन प्रसेनजित को श्वेताम्बिका (सेयविया) नगरी का राजा बताया गया है काल से ही उपलब्ध होने लगते हैं। भारत की प्रत्येक धार्मिक एवं जो इतिहास-सिद्ध है। उनका सारथि चित्त केशीकुमार को श्रावस्ती से दार्शनिक चिन्तन धारा में उसकी समालोचना की गई है। जैन-धर्म यहाँ केवल इसीलिये लेकर आया था कि राजा की भौतिकवादी जीवन एवं दर्शन के ग्रन्थों में भी इस भौतिकवादी जीवनदृष्टि का प्रतिपादन दृष्टि को परिवर्तित किया जा सके। कथावस्तु की प्राचीनता, प्रामाणिकता एवं समीक्षा अति प्राचीन काल से ही मिलने लगती है। जैन धार्मिक तथा तार्किकता की दृष्टि से ही हमने इसे भी प्रस्तुत विवेचन में एवं दार्शनिक साहित्य में महावीर के युग से लेकर आज तक समाहित किया है। लगभग २५०० वर्ष की सुदीर्घ कालावधि में इस विचारधारों की प्रस्तुत विवेचना में मुख्यरूप से चार्वाक दर्शन के समालोचना होती रही है। इस समग्र विस्तृत चर्चा को प्रस्तुत निबन्ध तज्जीवतच्छरीरवाद एवं परलोक तथा पुण्य-पाप की अवधारणाओं के में समेट पाना सम्भव नहीं है, अतः हम प्राकृत आगम साहित्य तक उसके द्वारा किये गये खण्डनों के प्रस्तुतीकरण के साथ-साथ उनकी ही अपनी इस चर्चा को सीमित रखेंगे। इन आगमों में उपलब्ध समीक्षाएं भी प्रस्तुत की गई हैं। इसमें भी प्राचीनतम प्राकृत आगम साहित्य में मुख्यतया आचारांग, ऋषिभाषित (ई.पू. चौथी शती) में भौतिकवादी जीवन दृष्टि का जो सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन और ऋषिभाषित को समाहित किया जा सकता प्रस्तुतीकरण है, वह उपर्युक्त विवरण से कुछ विशिष्ट प्रकार का है। है। ये सभी ग्रन्थ ई.पू. पाँचवीं शती से लेकर ई०पू० तीसरी शती के उसमें जो दण्डोक्कल, रज्जूक्कल, स्तेनोक्कल, देसोक्कल, सव्वोक्कल बीच निर्मित हुए हैं, ऐसा माना जाता है। इसके अतिरिक्त उपांग के नाम से भौतिवादियों के पाँच प्रकारों का उल्लेख है, वह अन्यत्र साहित्य के एक ग्रन्थ राजप्रश्नीय को भी हमने इस चर्चा में समाहित किसी भी भारतीय साहित्य में उपलब्ध नहीं है। इसी प्रकार सूत्रकृतांग किया है। इसका कारण यह है कि राजप्रश्नीय का वह भाग जो चार्वाक के द्वितीय श्रुतस्कन्ध एवं राजप्रश्नीय में चार्वाक दर्शन की स्थापना दर्शन का प्रस्तुतीकरण और समीक्षा करता है एक तो चार्वाक दर्शन की और खण्डन दोनों के लिए जो तर्क प्रस्तुत किये गये हैं वे भी स्थापना एवं समीक्षा-दोनों ही दृष्टि से अति समृद्ध है, दूसरे अतिप्राचीन महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त प्राकृत आगमिकभी माना जाता है, क्योंकि ठीक यही चर्चा हमें बौद्ध त्रिपिटक साहित्य व्याख्या साहित्य में मुख्यत विशेषावश्यकभाष्य (छठी शती) के में बुद्ध और राजा ‘पयासीय' के बीच होने का उल्लेख मिलता है।२ जैन गणधरवाद५ में लगभग पाँच सौ गाथाओं में भौतिकवादी चार्वाक परम्परा में इस चर्चा को पापित्य परम्परा के महावीर के समकालीन दर्शन की विभिन्न अवधारणाओं की समीक्षा महावीर और गौतम आदि आचार्य केशीकुमार श्रमण और राजा 'पयासी', बौद्ध त्रिपिटक में बुद्ध ११ गणधरों के मध्य हुए वाद-विवाद के रूप में प्रस्तुत की गई है, और पयासी के बीच सम्पन्न हुआ बताया गया है। यद्यपि कुछ जैन वह भी दार्शनिक दृष्टि से अतिमहत्त्वपूर्ण कही जा सकती है। अन्य आचार्यों ने पयेसी का संस्कृत रूप प्रदेशी मान लिया है किन्तु देववाचक, आगमिक संस्कृत टीकाओं (१०वीं-११वीं शती) में भी चार्वाक दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy