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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ १९६ हा वास्तविक शिक्षा नहीं है। की शिक्षा-व्यवस्था की बात करते हैं, वह मूल में भ्रांति है, जहाँ जैन आचार्य शिक्षा का अर्थ व्यक्ति को जीवन और जगत के शिल्पाचार्य और कलाचार्य वृत्तिमूलक शिक्षा प्रदान करते थे वहाँ सम्बन्ध में जानकारियों से भर देना नहीं मानते हैं, अपितु वे इसका धर्माचार्य निवृत्तिमूलक शिक्षा प्रदान करते थे। पुन: यह भी आवश्यक उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास या सद्गुणों का विकास है कि जो आचार्य जिस प्रकार की जीवन शैली जीता है वह वैसी ही मानते हैं, किन्तु इसका तात्पर्य यह भी नहीं है कि वे शिक्षा को शिक्षा प्रदान कर सकता है। अतः धर्माचार्य से अर्थ और काम की आजीविका या कलात्मक कुशलता से अलग कर देते हैं। रायपसेनीयसुत्त शिक्षा शिल्पाचार्य एवं कलाचार्य से धर्म एवं मोक्ष पुरुषार्थ की शिक्षा में तीन प्रकार के आचार्यों का उल्लेख है- १. कलाचार्य, २. की अपेक्षा करना उचित नहीं है। वर्तमान सन्दर्भ में यह आवश्यक है। शिल्पाचार्य एवं ३. धर्माचार्य।१९ उसमें इन तीनों आचार्यों के प्रति कि हम शिक्षा के विविध क्षेत्रों का दायित्व विविध आचार्यों को सौंपे शिष्य के कर्तव्यों का भी निर्देश है। इससे यह फलित है कि जैन और इस बात का विशेष ध्यान रखें कि जो व्यक्ति जिस प्रकार की चिन्तकों की दृष्टि में शिक्षा-व्यवस्था तीन प्रकार की थी। कलाचार्य का शिक्षा के देने के लिए योग्य हो, वही उसका दायित्व सम्भालें। जब कार्य जीवनोपयोगी कलाओं अर्थात् ज्ञान-विज्ञान और ललित कलाओं तक ऐसा नहीं होगा तब तक शिक्षा के क्षेत्र में मानव के सर्वांगीण की शिक्षा देना था। भाषा, लिपि, गणित के साथ-साथ खगोल, विकास की कल्पना सार्थक नहीं होगी। 'रायपसेनीयसुत्त' में जो कलाचार्य, भूगोल, ज्योतिष आयुर्वेद संगीत नृत्य आदि की भी शिक्षा कलाचार्य शिल्पाचार्य और धर्माचार्य की व्यवस्था दी गयी है इससे यह स्पष्ट होता देते थे। वस्तुत: आज हमारे विश्वविद्यालयों में कला, सामाजिक है कि शिक्षा के ये तीनों क्षेत्र मानव जीवन के तीन मूल्यों से सम्बन्धित विज्ञान एवं विज्ञान संकाय जो कार्य करते हैं, उन्हीं से मिलता-जुलता थे तथा एक-दूसरे से पृथक् थे और सामान्य व्यक्ति तीनों ही प्रकार की कार्य कलाचार्य का था। जैनागमों में पुरुष की ६४ एवं स्त्री की ७२ शिक्षायें प्राप्त करता था। फिर भी प्राचीनकाल में यह शिक्षा पद्धति कलाओं का निर्देश उपलब्ध है२०। इससे हम अनुमान लगा सकते हैं व्यक्ति के लिये भार स्वरूप नहीं थी। कि जैनाचार्यों की दृष्टि में शिक्षा जीवन के सभी पहलुओं का स्पर्श जहाँ तक आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा का प्रश्न था यह करती है। धर्माचार्य के सानिध्य में उपदेशों के श्रवण के माध्यम से प्राप्त की कलाचार्य के बाद दूसरा स्थान शिल्पाचार्य का था। शिल्पाचार्य जाती थी। इसके लिये व्यक्ति को कुछ व्यय नहीं करना होता था। वस्तुत: वह व्यक्ति होता था जो आजीविका अर्जन से सम्बन्धित सामान्यतया श्रमण परम्परा में धर्माचार्य भिक्षाचर्या से ही अपनी उदरपूर्ति विविध प्रकार के शिल्पों की शिक्षा देता था। आज जिस प्रकार विभिन्न करते थे और उनके कोई स्थायी आश्रम आदि भी नहीं होते थे, अत: औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थायें प्रशिक्षण प्रदान करती हैं, उस काल में वे व्यक्ति और समाज पर भार-स्वरूप नहीं होते थे। इसके विपरीत यही कार्य शिल्पाचार्य करते थे। इनके ऊपर धर्माचार्य का स्थान था। वैदिक परम्परा में धर्माचार्य सपरिवार अपने आश्रमों में रहते थे तथा इनका दायित्व वस्तुत: व्यक्ति के चारित्रिक गुणों का विकास करना था। धर्माचार्य और कलाचार्य का कार्य एक ही व्यक्ति करता था। कुछ वे शील और सदाचार की शिक्षा देते थे। इस प्रकार प्राचीन काल में कलाचार्य सम्पन्न व्यक्तियों या राजाओं या सामन्तों के घर जाकर भी शिक्षा को तीन भागों में विभक्त किया गया था और इन तीनों विभागों शिक्षा प्रदान करते थे, फिर भी सामान्यतया, वे शिक्षा अपने आश्रमों का दायित्व तत्-तत् विषयों के आचार्य निर्वाह करते थे। में ही प्रदान करते थे। आश्रम पद्धति की विशेषता यह थी कि विद्यार्थी जैन परम्परा में कलाचार्य, शिल्पाचार्य और धर्माचार्य के जो और शिक्षक अपनी आजीविका या तो अपने श्रम से उपार्जित करते निर्देश उपलब्ध होते हैं उनसे ऐसा लगता है कि भारतीय चिन्तन में अथवा भिक्षाचर्या के माध्यम से उसकी पूर्ति करते। इसलिए उस युग में जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार पुरुषार्थ या जीवन-मूल्य माने गये शिक्षा न तो व्यक्ति पर भार-स्वरूप थी और न राज्य पर। समृद्ध हैं, उनमें मोक्ष तो साध्य पुरुषार्थ है, अत: शेष तीन पुरुषार्थों की शिक्षा व्यक्ति अथवा राजा समय-समय पर दानादि देकर शिक्षकों को की व्यवस्था अलग-अलग तीन आचार्यों के लिए नियत की गई थी। सम्मानित अवश्य करते थे। विद्यार्थी भी अपनी शिक्षापूर्ण करने के शिल्पाचार्य का कार्य अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा देना था, तो कलाचार्य का पश्चात् जब स्वयं आजीविका अर्जन करने लगता, तो वह भी गुरुकाम भाषा लिपि और गणित की शिक्षा के साथ-साथ काम पुरुषार्थ की दक्षिणा देकर अपने गुरु को सम्मानित करता था। फिर भी यह समग्र शिक्षा देना था। धर्माचार्य का कार्य मात्र धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ से ही व्यवस्था मूलत: ऐच्छिक थी। शिल्पाचार्य आजीविका अर्जन से सम्बन्धित सम्बन्धित था इस प्रकार विविध जीवन-मूल्यों की शिक्षा के लिए विभिन्न शिल्पों की शिक्षा देते थे। विद्यार्थी शिल्पाचार्य के सान्निध्य में विविध आचार्यों की व्यवस्था थी। चूँकि जैनधर्म मूलत: एक निवृत्ति- रहकर ही शिल्प सिखते थे। इसमें शिक्षण और आजीविका अर्जन की मूलक और संन्यासपरक धर्म था इसलिए धर्माचार्य का कार्य धर्म और प्रक्रिया साथ-साथ ही चलती थी। सामान्यतया यह शिक्षा पिता-पुत्र की मोक्ष पुरुषार्थ की शिक्षा देने तक ही सीमित रखा गया था। इस प्रकार परम्परा से चलती थी। किन्तु कभी-कभी व्यक्ति दूसरों के सान्निध्य में जीवन के विविध मूल्यों के आधार पर शिक्षा की व्यवस्था भी अलग- भी ऐसी शिक्षा प्राप्त करता था। 'रायपसेनीय' में स्पष्ट रूप में यह अलग थी। आज हम सम्पूर्ण जीवन-मूल्यों के लिए जो एक ही प्रकार उल्लिखित है कि किस प्रकार के शिक्षक को किस प्रकार से सम्मानित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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