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________________ करते हुए जैन शिक्षा दर्शन १९५ को एक ही वाक्य में कहना हो तो जैन आचार्यों की दृष्टि में शिक्षा का ३. मैं अपने आप को धर्म में स्थापित करूँगा, इसलिए अध्ययन प्रयोजन चित्तवृत्तियों एवं आचार की विशुद्धि है। चित्तवृत्तियों का दर्शन करना चाहिये। ज्ञान-यात्रा का प्रारम्भ है। आचारांग में मैं कौन हूँ? इसे ही साधना-यात्रा ४. मैं स्वयं धर्म में स्थित होकर दूसरों को धर्म में स्थित करूँगा, का प्रारम्भ बिन्दु कहा गया है। आचारांग ही नहीं सम्पूर्ण भारतीय इसलिए अध्ययन करना चाहिये।११ साहित्य में आत्म जिज्ञासा से ही ज्ञान साधना का प्रारम्भ माना गया है। इस प्रकार दशवैकालिक के अनुसार अध्ययन का प्रयोजन उपनिषद् का ऋषि कहता है 'आत्मानं विद्धि', आत्मा को जानो। बुद्ध ज्ञान प्राप्ति के साथ-साथ चित्त की एकाग्रता तथा धर्म (सदाचार) में ने 'अत्तानं गवेसेथ' कहकर इसी तथ्य की पुष्टि की। ज्ञातव्य है कि स्वयं स्थित होना तथा दूसरों को स्थित करना माना गया है। जैन यहाँ आत्मज्ञान का तात्पर्य अमूर्त आत्मतत्त्व की खोज नहीं, अपितु आचार्यों की दृष्टि में जो शिक्षा चरित्रशुद्धि में सहायक नहीं होती, अपने. ही चित्त की विकृतियों और वासनाओं का दर्शन है। चित्तवृत्ति उसका कोई अर्थ नहीं है। चंद्रवेध्यक नामक प्रकीर्णक में ज्ञान और और आचार की विशुद्धि की प्रक्रिया तब ही प्रारम्भ हो सकती है, जब सदाचार में तादात्म्य स्थापित करते हुए कहा गया है कि जो विनय है, हम अपने विकारों और वासनाओं को देखें, क्योंकि जब तक चित्त में वही ज्ञान है और जो ज्ञान है उसे ही विनय कहा जाता है।१२ श्रुतज्ञान विकारों, वासनाओं और उनके कारणों के प्रति सजगता नहीं आती, में कुशल, हेतु और कारण का जानकार व्यक्ति भी यदि अविनीत और तब तक चरित्र शुद्धि की प्रक्रिया प्रारम्भ ही नहीं हो सकती। आचारांग अहंकारी है तो वह ज्ञानियों द्वारा प्रशंसनीय नहीं है।१३ जो अल्पश्रुत में ही कहा गया है कि जो मन का ज्ञाता होता है, वही निर्ग्रन्थ (विकार- होकर भी विनीत है वही कर्म का क्षय कर मुक्ति प्राप्त करता है, जो मुक्त) है। बहुश्रुत होकर भी अविनीत, अल्पश्रद्धा और संवेग युक्त है वह चरित्र जैन आचार्यों की दृष्टि में उस शिक्षा या ज्ञान का कोई अर्थ की आराधना नहीं कर पाता है।१४ जिस प्रकार अन्धे व्यक्ति के लिये नहीं है जो हमें चारित्र शुद्धि या आचार शुद्धि की दिशा में गतिशील न करोड़ों दीपक भी निरर्थक हैं उसी प्रकार अविनीत (असदाचारी) करता हो। इसीलिए सूत्रकृतांग में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि व्यक्ति के बहुत अधिक शास्त्रज्ञान का भी क्या प्रयोजन? जो व्यक्ति 'विज्जाचरणं पमोक्खं ६ अर्थात् विद्या और आचरण से ही विमुक्ति की जिनेन्द्र द्वारा उपादिष्ट अति विस्तृत ज्ञान को जानने में चाहे समर्थ न ही प्राप्ति होती है। उत्तराध्ययनसूत्र में शिक्षा के प्रयोजन को स्पष्ट करते हुए हो, फिर भी जो सदाचार से सम्पन्न है वस्तुत: वह धन्य है, और वही कहा गया है कि श्रुत की आराधना से जीव अज्ञान का क्षय करता है ज्ञानी है।१५ जैन आचार्य यह मानते हैं कि ज्ञान आचरण का हेतु है, और संक्लेश को प्राप्त नहीं होता है। इसे और स्पष्ट करते हुए इसी मात्र वह ज्ञान जो व्यक्ति की आचार शुद्धि का कारण नहीं होता, ग्रन्थ में पुन: कहा गया है कि जिस प्रकार धागे से युक्त सुई गिर जाने निरर्थक ही माना गया है। जिस प्रकार शस्त्र से रहित योद्धा और योद्धा पर भी विनष्ट नहीं होती है अर्थात् खोजी जा सकती है, उसी प्रकार श्रुत से रहित शस्त्र निरर्थक होता है, उसी प्रकार ज्ञान से रहित आचरण सम्पन्न जीव संसार में विनष्ट नहीं होता। इसी ग्रन्थ में अन्यत्र यह भी और आचरण से रहित ज्ञान निरर्थक होता है। कहा गया है कि ज्ञान, अज्ञान और मोह का विनाश करके सर्व विषयों जैनागम उत्तराध्ययनसूत्र में शिक्षा प्राप्ति में बाधक निम्न पाँच को प्रकाशित करता है। यह स्पष्ट है कि ज्ञान साधना का प्रयोजन कारणों का उल्लेख हुआ है- (१) अभिमान, (२) क्रोध, (३) अज्ञान के साथ-साथ मोह को भी समाप्त करना है। जैन आचार्यों की प्रमाद, (४) आलस्य और (५) रोग।१६ इसके विपरीत उसमें उन आठ दृष्टि में अज्ञान और मोह में अन्तर है। मोह अनात्म विषयों के प्रति कारणों का भी उल्लेख हुआ है जिन्हें हम शिक्षा प्राप्त करने के साधक आत्मबुद्धि है, वह राग या आसक्ति का उद्भावक है उसी से क्रोध, तत्त्व कह सकते हैं- (१) जो अधिक हँसी-मजाक नहीं करता हो, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों का जन्म होता है। अतः (२) जो अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण रखता हो, (३) जो किसी की उत्तराध्ययन के अनुसार जो व्यक्ति की क्रोध, मान, माया आदि की गुप्त बात को प्रकट नहीं करता हो, (४) जो अश्लील अर्थात् आचारहीन दूषित चित्तवृत्तियों पर अंकुश लगाये, वही सच्ची शिक्षा है। केवल न हो, (५) जो दूषित आचार वाला न हो, (६) जो रस लोलुप न हो, .. वस्तुओं के सन्दर्भ में जानकारी प्राप्त कर लेना शिक्षा का प्रयोजन नहीं (७) जो क्रोध न करता हो और (८) जो सत्य में अनुरक्त हो।२७ इससे है। उसका प्रयोजन तो व्यक्ति को वासनाओं और विकारों से मुक्त यही फलित होता है कि जैनधर्म में शिक्षा का सम्बन्ध चारित्रिक मूल्यों कराना है। शिक्षा व्यक्तित्व या चरित्र का उदात्तीकरण है। जब तक से रहा है। शिक्षा को केवल जानकारियों तक सीमित रखा जायेगा तब तक वह वस्तुत: जैन आचार्यों को ज्ञान और आचरण का द्वैत मान्य व्यक्तित्व की निर्माता नहीं बन सकेगी। दशवैकालिकसूत्र में शिक्षा के नही है। वे कहते हैं- जो ज्ञान है, वही आचरण है, जो आचरण है, चार उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वहीं आगम-ज्ञान का सार है।१८ इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन १. मुझे श्रुत ज्ञान (आगम ज्ञान) प्राप्त होगा, इसलिए अध्ययन परम्परा में उस शिक्षा को निरर्थक ही माना गया है जो व्यक्ति के करना चाहिए। चारित्रिक विकास या व्यक्तित्व विकास करने में समर्थ नहीं है। जो २. मैं एकाग्रचित्त होऊँगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए। शिक्षा मनुष्य को पाशविक वासनाओं से ऊपर नहीं उठा सके, वह दी है। व्यक्ति के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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