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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ १९४ माध्यमिक शिक्षा के सम्बन्ध में अभी तक बिठाये गये तीनों आयोगों ने इमा विज्जा महाविज्जा, सव्यविज्जाण उत्तमा। अपनी अनुशंसाओं में आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों की शिक्षा की जं विज्जं साहइत्ताणां, सव्वदुक्खाण मुच्चती।। महती आवश्यकता प्रतिपादित की है। आज का शिक्षक और शिक्षार्थी जेण बन्धं च मोक्खं च, जीवाणं गतिरागति। दोनों ही अर्थ के दास हैं। एक ओर शिक्षक इसलिये नहीं पढ़ाता है कि आयाभावं च जाणाति, सा विज्जया दुक्खमोयणी।। उसे विद्यार्थी के चरित्र निर्माण या विकास में कोई रुचि है, उसकी दृष्टि • इसिभासियाई, १७/१-२ केवल वेतन दिवस पर टिकी है। वह पढ़ने के लिये नहीं पढ़ाता, वही विद्या महाविद्या है और वही विद्या समस्त विद्याओं में अपितु पैसे के लिये पढ़ाता है। दूसरी ओर शासन, सेठ और विद्यार्थी उत्तम है, जिसकी साधना करने से समस्त दुःखों से मुक्ति मिलती है। उसे गुरु नहीं 'नौकर' समझते हैं। जब गुरु नौकर है तो फिर संस्कार विद्या दुःख- मोचनी है। जैन आचार्यों ने उसी विद्या को उत्तम माना है एवं चरित्र निर्माण की अपेक्षा करना ही व्यर्थ है। आज तो गुरु-शिष्य जिसके द्वारा दुःखों से मुक्ति हो और आत्मा के शुद्ध स्वरूप का के बीच भाव-मोल होता है, सौदा होता है। चाहे हमारे प्राचीन ग्रन्थों में साक्षात्कार हो। 'विद्ययामृतमश्नुऽते' की बात कही गई हो, किन्तु आज तो विद्या अब प्रश्न यह उपस्थित है कि दुःख क्या है और किस दुःख अर्थकारी हो गयी है। शिक्षा के मूल-भूत उद्देश्य को ही हम भूल रहे हैं। से मुक्त होना है? यह सत्य है कि दुःख से हमारा तात्पर्य दैहिक दुःखों वर्तमान सन्दर्भ में फिराक का यह कथन कितना सटीक है, जब वे से भी होता है, किन्तु ये दैहिक दुःख प्रथम तो कभी भी पूर्णतया कहते हैं समाप्त नहीं होते, क्योंकि उनका केन्द्र हमारी चेतना न होकर हमारा सभी कुछ हो रहा है, इस तरक्की के जमाने में, शरीर होता है। जैन परम्परा के अनुसार तीर्थंकर अपनी वीतराग दशा मगर क्या गजब है कि, आदमी इनसां नहीं होता। में भी दैहिक दुःखों से पूर्णत: मुक्त नहीं हो सकता। जब तक देह है आज की शिक्षा चाहे विद्यार्थी को वकील, डॉक्टर, इंजीनियर क्षुधा, पिपासा आदि दुःख तो रहेंगे ही। अत: जिन दुःखों से विमुक्ति आदि सभी कुछ बना रही है, किन्तु यह निश्चित है कि वह इन्सान नहीं प्राप्त करनी है, वे दैहिक नहीं मानसिक है। व्यक्ति की रागात्मकता, बना पा रही है। जब तक शिक्षा को चरित्र निर्माण के साथ, नैतिक एवं आसक्ति या तृष्णा ही एक ऐसा तत्त्व है, जिसकी उपस्थिति में मनुष्य आध्यात्मिक मूल्यों के साथ नहीं जोड़ा जाता है तब तक वह मनुष्य का दुःखों से मुक्ति प्राप्त नहीं कर पाता है। इससे स्पष्ट होता है कि जैन निर्माण नहीं कर सकेगी। हमारा प्राथमिक दायित्व मनुष्य को मनुष्य आचार्यों की दृष्टि में शिक्षा का प्रयोजन मात्र रोजी-रोटी प्राप्त कर लेना बनाना है। बालक को मानवता के संस्कार देना है। अमेरिका के प्रबुद्ध नहीं रहा है। जो शिक्षा व्यक्ति को आध्यात्मिक आनन्द या आत्मतोष विचारक टफ्ट्स शिक्षा के उद्देश्य, पद्धति और स्वरूप को स्पष्ट नहीं दे सकती, वह शिक्षा व्यर्थ है। आत्मतोष ही शिक्षा का सम्यक् करते हुये लिखते हैं- 'शिक्षा चरित्र निर्माण के लिये, चरित्र के द्वारा, प्रयोजन है। शिक्षा-पद्धति को स्पष्ट करते हुए ‘इसिभासियाई' में कहा चरित्र की शिक्षा है।' इस प्रकार उनकी दृष्टि में शिक्षा का अथ और इति गया है कि जिस प्रकार एक योग्य चिकित्सक सर्वप्रथम रोग को जानता दोनों ही बालकों में चरित्र निर्माण एवं सुसंस्कारों का वपन है। भारत है, फिर उस रोग के कारणों का निश्चय करता है, फिर रोग की औषधि की स्वतन्त्रता के पश्चात् शिक्षा के स्वरूप का निर्धारण करने हेतु का निर्णय करता है और फिर उस औषधि द्वारा रोग की चिकित्सा सुप्रसिद्ध दार्शनिक डॉ. राधाकृष्णन्, सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. दौलतसिंह करता है। उसी प्रकार हमें सर्वप्रथम मनुष्यों के दु:ख के स्वरूप को कोठारी और शिक्षा शास्त्री डॉ. मुदालियर की अध्यक्षताओं में जो समझना होता है, तत्पश्चात् दुःख के कारणों का विश्लेषण करके विभिन्न आयोग गठित हुये थे उन सबका निष्कर्ष यही था कि शिक्षा को फिर उन कारणों के निराकरण का उपाय खोजना होता है और अन्त में मानवीय मूल्यों से जोड़ा जाय। जब तक शिक्षा मानवीय मूल्यों से नहीं इन उपायों द्वारा उन कारणों का निराकरण किया जाता है। यही बातें जुडेगी, उससे चरित्र निर्माण और सुसंस्कारों के वपन का प्रयास नहीं जैनधर्म में शिक्षा के प्रयोजन एवं पद्धति को स्पष्ट करती है। सम्यक होगा, तब तक विद्यालयों एवं महाविद्यालयों रुपी शिक्षा के इन कारखानों शिक्षा वही है जो मानवीय दुःखों के स्वरूप को समझे, उनके कारणों से साक्षर नहीं, राक्षस ही पैदा होंगे। का विश्लेषण करे फिर उनके निराकरण के उपाय खोजें और उन __भारतीय चिन्तन प्राचीनकाल से ही इस सम्बन्ध में सजग उपायों का प्रयोग करके दुःखों से मुक्त हो। वस्तुत: आज की हमारी रहा। औपनिषदिक युग में ही शिक्षा के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए जो शिक्षा नीति है, उसमें हम इस पद्धति को नहीं अपनाते। शिक्षा से कहा गया था- “सा विद्या या विमुक्तये" अर्थात् विद्या वही जो हमारा तात्पर्य मात्र बालक के मस्तिष्क को सूचनाओं से भर देना है। विमुक्ति प्रदान करे। प्रश्न हो सकता है कि यहाँ विमुक्ति से हमारा क्या जब तक उसके सामने जीवन-मूल्यों को स्पष्ट नहीं करते, तब तक हम तात्पर्य है? विमुक्ति का तात्पर्य मानवीय संत्रास और तनावों से मुक्ति शिक्षा के प्रयोजन को न तो सम्यक् प्रकार से समझ ही पाते हैं, न है, अपनत्व और ममत्व के क्षुद्र घेरों से विमुक्ति है। मुक्ति का तात्पर्य मनुष्य के दुःखों का निराकरण ही कर पाते हैं। जैन आगमों में है- अहंकार, आसक्ति, राग-द्वेष और तृष्णा से मुक्ति। यही बात ऋषिभाषित एवं आचारांग से लेकर प्रकीर्णकों तक में शिक्षा के उद्देश्य जैन आगम इसिभासियाई (ऋषिभासित) में कही गई है की विभिन्न दृष्टियों से विवेचना की गयी है। यदि उस समग्र विवेचना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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