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________________ १९३ जैन शिक्षा दर्शन अधिक। वर्तमान युग ज्ञान-विज्ञान का युग है। मात्र बीसवीं सदी में का काम नहीं चल सकता। दैहिक जीवन-मूल्यों में उदरपूर्ति व्यक्ति ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जितना विकास हुआ है, उतना विकास की प्राथमिक आवश्यकता है, इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता है मानवजाति के अस्तित्व की सहस्रों शताब्दियों में नहीं हुआ था। आज किन्तु इसे ही शिक्षा का “अथ और इति" नहीं बनाया जा सकता, ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा एवं शोधकार्य में संलग्न सहस्रों विश्वविद्यालय, क्योंकि यह कार्य शिक्षा के अभाव में भी सम्भव है। यदि उदरपूर्ति/ महाविद्यालय और शोध-केन्द्र हैं। यह सत्य है कि आज मनुष्य ने आजीविका अर्जन ही जीवन का एक मात्र लक्ष्य हो तो फिर मनुष्य पशु भौतिक जगत के सम्बन्ध में सूक्ष्मतम ज्ञान प्राप्त कर लिया है। आज से भिन्न नहीं होगा। कहा भी हैउसने परमाणु को विखण्डित कर उसमें निहित अपरिमित शक्ति को "आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतद पशुभिः नराणाम। पहचान लिया है, किन्तु यह दुर्भाग्य ही है कि शिक्षा एवं शोध के इन ज्ञानो हि तेषामधिको विशेषो ज्ञानेन हीना पशुभिः समाना ।।" विविध उपक्रमों के माध्यम से हम एक सभ्य, सुसंस्कृत एवं शान्तिप्रिय पुन: यदि यह कहा जाय कि शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को मानव समाज की रचना नहीं कर सके। अधिक सुख-सुविधा पूर्ण जीवन जीने योग्य बनाना है, तो उसे भी हम वस्तुत: आज की शिक्षा हमें बाह्य जगत और दूसरों के शिक्षा का उद्देश्य नहीं कह सकते। क्योंकि मनुष्य के दुःख और पीड़ाएँ सम्बन्ध में बहुत कुछ जानकारी प्रदान कर देती है, किन्तु उन उच्च भौतिक या दैहिक स्तर की ही नहीं हैं, वे मानसिक स्तर की भी हैं। जीवन मूल्यों के सम्बन्ध में वह मौन ही है, जो एक सुसभ्य समाज सत्य तो यह है कि स्वार्थपरता, भोगाकांक्षा और तृष्णाजन्य मानसिक के लिये आवश्यक है। आज शिक्षा के माध्यम से हम विद्यार्थियों को पीड़ाएँ ही अधिक कष्टकर हैं, वे ही मानवजाति में भय एवं संत्रास का सूचनाओं से तो भर देते हैं, किन्तु उन्हें जीवन के उद्देश्यों और कारण हैं। यदि भौतिक सुख-सुविधाओं का अम्बार लगा देने में ही जीवन-मूल्यों के सन्दर्भ में हम कोई जानकारी नहीं देते हैं। आज सुख होता तो आज अमेरिका (U.S.A.) जैसे विकसित देशों का समाज में जो स्वार्थपरताजन्य, संघर्ष और हिंसा पनप रही है, उसका व्यक्ति अधिक सुखी होता, किन्तु हम देखते हैं वह संत्रास और तनाव कारण शिक्षा की यही गलत दिशा ही है। हम शिक्षा के माध्यम से से अधिक ग्रस्त है। यह सत्य है कि मनुष्य के लिये रोटी आवश्यक व्यक्ति को सूचनाओं से भर देते हैं, किन्तु उसके व्यक्तित्व का है, लेकिन वही उसके जीवन की इति नहीं है। ईसा मसीह ने ठीक ही निर्माण नहीं करते हैं। कहा था कि मनुष्य केवल रोटी से नहीं जी सकता है। हम मनुष्य को वस्तुत: आज शिक्षा का उद्देश्य ही उपेक्षित है। आज शिक्षक भौतिक सुखों का अम्बार खड़ा करके भी सुखी नहीं बना सकते। सच्ची और शिक्षार्थी, शासक और समाज कोई भी यह नहीं जानता कि हम शिक्षा वही है जो मनुष्य को मानसिक संत्रास और तनाव से मुक्त कर क्यों पढ़ रहे हैं और क्यों पढा रहे हैं? यदि वह जानता भी है तो या सके। उसमें सहिष्णुता, समता, अनासक्ति, कर्तव्यपरायणता के गुणों तो वह उदासीन है या फिर अपने को अकर्मण्यता की स्थिति में पाता को विकसित कर, उसकी स्वार्थपरता पर अंकुश लगा सके। जो शिक्षा है। आज शिक्षा के क्षेत्र में सर्वत्र में आराजकता है। इस अराजकता या मनुष्य में मानवीय मूल्यों का विकास न कर सके उसे क्या शिक्षा कहा दिशाहीनता की स्थिति के सम्बन्ध में भी जो कुछ चिन्तन हुआ है, जा सकता है? यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि आज शिक्षा का सम्बन्ध उसमें शिक्षा को आजीविका से जोड़ने के अतिरिक्त कुछ नहीं हुआ। 'चारित्र' से नहीं 'रोटी' से जोड़ा जा रहा है। आज शिक्षा की सार्थकता वर्तमान में रोजगारोन्मुख शिक्षा की बात अधिक जोर से कही जाती है। को चरित्र निर्माण में नहीं, चालाकी (डिप्लोमेसी) में खोजा जा रहा है। यह माना जाता है कि शिक्षा के रोजगारोन्मुख न होने से ही आज शासन भी इस मिथ्या धारणा से ग्रस्त है। नैतिक शिक्षा या चरित्र की समाज में अशान्ति है, किन्तु मेरी दृष्टि में वर्तमान सामाजिक संघर्ष शिक्षा में शासन को धर्म की 'बू' आती है, उसे अपनी धर्मनिरपेक्षता और तनाव का कारण व्यक्ति का जीवन के उद्देश्यों या मूल्यों के दूषित होती दिखाई देती है, किन्तु क्या धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्महीनता सम्बन्ध में अज्ञान या गलत दृष्टिकोण ही है। स्वार्थपरक भौतिकवादी या नीतिहीनता है? मैं समझता हूँ धर्मनिरपेक्षता का मतलब केवल 'जीवन-दृष्टि ही समस्त मानवीय दुःखों का मूल है। इतना ही है कि शासन किसी धर्म विशेष के साथ आबद्ध नहीं रहेगा। सबसे पहले हमें यह निश्चय करना होगा कि हमारी शिक्षा आज हुआ यह है कि धर्म-निरपेक्षता के नाम पर इस देश में शिक्षा के का प्रयोजन क्या है? यदि यह कहा जाय कि शिक्षा का प्रयोजन रोजी- क्षेत्र से नीति और चरित्र की शिक्षा को भी बहिष्कृत कर दिया गया है। रोटी कमाने या मात्र उदरपूर्ति के योग्य बना देना है, तो यह एक भ्रान्त चाहे हम अपने मोनोग्रामों में 'सा विद्या या विमुक्तये' की सूक्तियाँ धारणा होगी क्योंकि रोजी-रोटी की व्यवस्था तो अशिक्षित भी कर उद्धृत करते हों, किन्तु हमारी शिक्षा का उससे दूर का भी कोई रिश्ता लेता है। पशु-पक्षी भी तो अपना पेट भरते ही हैं। अत: शिक्षा को नहीं रह गया है। आज की शिक्षा योजना में आध्यात्मिक एवं नैतिक रोजी-रोटी से जोड़ना गलत है। यह सत्य है कि बिना रोटी के मनुष्य मूल्यों की शिक्षा का कोई स्थान नहीं है, जबकि उच्च शिक्षा एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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