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________________ रेखांकन भी इसे स्पष्ट कर देता है अअग्नि Jain Education International जैन दर्शन के 'तर्क प्रमाण' का आधुनिक सन्दर्भों में मूल्यांकन अ धूम כ अग्नि धूम अग्नियुक्त किन्तु धूमरहित भूपरहित ole धूम युक्त रहित १८१ सम्बन्ध है अर्थात् जहाँ एक होगा वहाँ दूसरा नहीं है। जो धूमयुक्त है वह अग्नि रहित नहीं हो सकता और जो अग्नि रहित है वह धूमयुक्त नहीं हो सकता। (१) सब धूमयुक्त वस्तुयें अग्नियुक्त वस्तुयें हैं, क्योंकि धूमयुक्त वस्तुओं के वर्ग का प्रत्येक सदस्य अग्नियुक्त वस्तुओं के वर्ग का सदस्य है, धूमयुक्त वस्तुओं का वर्तुल अग्नियुक्त वस्तुओं के वर्तुल में समाविष्ट है। अर्थात् धूम व्याप्य है और अग्नि व्यापक है। अतः धूम और अग्नि में व्याप्ति सम्बन्ध है। किन्तु इसके विपरीत अग्नि और धूम में व्याप्ति सम्बन्ध नहीं बनता है क्योंकि अग्नियुक्त वस्तुओं की जाति (वर्ग) के सभी सदस्य धूमयुक्त वस्तुओं की जाति (वर्ग) के सदस्य नहीं है। क्योंकि हे (धू) सा (अ) – सत्य सा (अ) हे (धू) -असत्य (२) अब अग्नि रहित वस्तुयें धूम रहित वस्तुयें हैं, क्योंकि अग्नि रहित वस्तुओं के वर्ग का प्रत्येक सदस्य धूम रहित वस्तुओं के वर्ग का सदस्य है या अग्नि रहित वस्तुओं का वर्तुल धूम रहित वस्तुओं के वर्तुल में समाविष्ट है अर्थात् अग्नि रहित वस्तुयें व्याप्य हैं। और धूमरहित वस्तुयें व्यापक हैं। अतः अग्नि रहित वस्तु और धूमरहित वस्तु में व्याप्ति सम्बन्ध है, किन्तु इसके विपरीत धूमरहित और अग्निरहित वस्तु में व्याप्ति सम्बन्ध नहीं बनता है, इसमें व्यभिचार हो सकता है, क्योंकि धूमरहित वस्तुओं की जाति के सभी सदस्य अग्निरहित "मस्तुओं की जाति के सदस्य नहीं है। - हे (~ असा (~धू) – सत्य सा (~ धू) (अ) असत्य 2 प्रथम उदाहरण में धूम हेतु है और अग्नि साध्य है। जबकि दूसरे उदाहरण अग्निरहित हेतु है और धूमरहित साध्य है। (३) कोई भी धूमयुक्त वस्तु अग्निरहित नहीं है क्योंकि धूमयुक्त वस्तुओं का वर्तुल अग्नि रहित वस्तुओं के वर्तुल से पृथक है। अतः धूमयुक्त और अग्नि रहित में व्याप्ति या अविनाभाव निषेध हे (धू) ~सा (अ)- सत्य सा (अ) हे (धू) सत्य सा (धू) सत्य हे (अ) सा (धू) हे (अ)- सत्य अर्थात् निषेधात्मक व्याप्ति में दोनों ही सत्य हैं। ܒ כ तर्क को व्याप्ति ग्रहण का साधन और स्वतन्त्र प्रमाण क्यों मानें? जैन तार्किकों ने तर्क को स्वतन्त्र प्रमाण इसीलिए माना था कि तर्क प्रमाण माने बिना व्याप्ति ज्ञान तथा अनुमान की प्रामाणिकता सम्भव नहीं है? यदि हम अनुमान को प्रमाण मानते हैं तो हमें तर्क को भी प्रमाण मानना होगा क्योंकि अनुमान की प्रामाणिकता व्याप्ति ज्ञान की प्रामाणिकता पर निर्भर है और व्याप्ति ज्ञान की प्रामाणिकता स्वयं उसके ग्राहक साधन तर्क की प्रामाणिकता पर निर्भर होगी। यदि व्याप्ति का निश्चय करने वाला साधन तर्क ही प्रमाण नहीं है तो व्याप्ति ज्ञान भी प्रामाणिक नहीं होगा और फिर उसी व्याप्ति सम्बन्ध के ज्ञान पर आश्रित अनुमान प्रमाण कैसे होगा ? अतः तर्क को प्रमाण मानना आवश्यक है । पुनश्च यदि हम तर्क को प्रमाण नहीं मानते हैं तो हमें यह मानना होगा कि व्याप्ति ग्रहण तर्क से इतर अन्य किसी प्रमाण से होता है, किन्तु तर्क से अन्य प्रमाण व्याप्ति ज्ञान के ग्राहक नहीं हो सकते। सर्वप्रथम इस सम्बन्ध में प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण की समीक्षा करके देखें कि क्या उनसे व्याप्ति ग्रहण सम्भव है। इस सम्बन्ध में जैन तार्किकों का उत्तर स्पष्ट है कि प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों के द्वारा व्याप्ति ग्रहण सम्भव नहीं है। For Private & Personal Use Only लौकिक प्रत्यक्ष अर्थात् ऐन्द्रिक प्रत्यक्ष से व्याप्ति या अविनाभाव सम्बन्ध का निश्चय इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि प्रथम तो प्रत्यक्ष का विषय विशेष होता है और विशेषों के कितने ही उदाहरणों के ज्ञान से सामान्य का ज्ञान सम्भव नहीं है हम मोहन, सोहन आदि हजारों या लाखों मनुष्यों को मरता हुआ देखकर भी उसके आधार पर यह दावा नहीं कर सकते कि सब मनुष्य मरणशील हैं। दूसरे विशेषों के सभी उदाहरणों को जान पाना भी सम्भव नहीं है। पुनः प्रत्यक्ष वर्तमान काल को ही विषय बनाता है जबकि व्याप्ति का निश्चय तो त्रैकालिक ज्ञान के बिना सम्भव नहीं । भूत काल के अनेकों उदाहरणों की स्मृति भी यह गारण्टी नहीं देती है कि भविष्य में भी ऐसा होगा। भूतकाल के अनेकानेक (लगभग सभी) मनुष्य मर गये और वर्तमान में अनेक मर रहे हैं किन्तु इससे हम यह कैसे कह सकते हैं कि भविष्यकाल के सभी मनुष्य मरेंगे ही, हो सकता है कि भविष्य में कोई ऐसी ओषधि निकल आये कि मनुष्य अमर हो जायें। प्रत्यक्ष के विषय सदैव ही दैशिक और कालिक तथ्य होते हैं अतः उससे सार्वभौमिक और सार्वकालिक www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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