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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ व्याप्ति सम्बन्ध का ग्रहण नहीं हो सकता । प्रत्यक्ष अथवा प्रेक्षण पर आधारित व्याप्ति स्थापन की कई विधियाँ है जैसे अन्वय व्यतिरेक, भूयो दर्शन, नियत सहचार दर्शन, व्यभिचार अदर्शन और सामान्य लक्षण प्रत्यासत्ति आदि। इनमें से सामान्य लक्षण प्रत्यासत्ति के अतिरिक्त अन्य कोई भी विधि त्रैकालिक व्याप्ति सम्बन्ध को ग्रहण करने में समर्थ नहीं है। जहाँ तक सामान्य लक्षणा प्रत्यासत्ति का प्रश्न है उसे प्रत्यक्षात्मक कहना भी कठिन है, यह मूलतः जैन दर्शन के 'तर्क' के प्रत्यय से भिन्न नहीं है क्योंकि दोनों की मूल प्रकृति अन्तः प्रज्ञात्मक है, वे इन्द्रिय ज्ञान नहीं अपितु प्रातिभज्ञान हैं यह सुनिश्चित सत्य है कि मात्र प्रत्यक्ष पर आधारित कोई भी विधि त्रैकालिक व्याप्ति सम्बन्ध या अविनाभाव सम्बन्ध का ज्ञान नहीं दे सकती है जब तक कि वह तर्क या प्रातिभ ज्ञान का सहारा नहीं लेती है। सामान्यतः व्याप्ति स्थापन में अन्वय और व्यतिरेक को महत्त्वपूर्ण माना जाता है। अन्वय का अर्थ है हेतु और साध्य का सभी उदाहरणां में साथ पाया जाना । उदाहरणार्थ जहाँ-जहाँ धुआँ देखा गया उसके साथ आग भी देखी गई है तो हम धुएँ और आग में व्याप्ति मान लेते हैं किन्तु अन्वय के आधार पर व्याप्ति की स्थापना सम्भव नहीं है। यदि दो चीजें सदैव एक दूसरे के साथ देखी जायें तो उनमें व्याप्ति हो ही यह आवश्यक नहीं है। अन्वय के आधार पर व्याप्ति मानने में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि अन्वय के सभी दृष्टान्त नहीं देखे जा सकते हैं और केवल इन कुछ दृष्टान्तों के आधार पर व्याप्ति का ग्रहण सम्भव नहीं है। केवल व्यतिरेक के आधार पर व्याप्ति की स्थापना नहीं की जा सकती है। अन्वय और व्यतिरेक व्याप्ति संयुक्त रूप से भी व्याप्ति स्थापन नहीं कर सकते हैं। यह ठीक है कि अन्वय और व्यतिरेक के दृष्टान्तों के प्रेक्षण से व्याप्ति की धारणा पुष्ट होती है किन्तु ये केवल इतना सुझाव देते हैं कि इन दो तथ्यों के बीच व्याप्ति सम्बन्ध हो सकता है। इनसे व्याप्ति का निश्चय या सिद्धि नहीं होती हैं क्योंकि अन्वय, व्यतिरेक और अन्वय व्यतिरेक की संयुक्त विधि तीनों ही में सीमित उदाहरणों का प्रत्यक्षीकरण सम्भव होता है। अतः इनके आधार पर त्रैकालिक व्याप्ति की स्थापना सम्भव नहीं है। तीनों कालों में और तीनों लोकों में जो कुछ धूम है वह सब अग्नियुक्त है इतना व्यापान प्रत्यक्ष के द्वारा सम्भव नहीं है फिर वह प्रत्यक्ष चाहे अन्वय रूप हो या व्यतिरेक रूप नैयायिकों ने इस कठिनाई से बचने के लिए अन्वय व्यतिरेक भूयो दर्शन को व्याप्ति स्थापन का आधार बनाने का प्रयास किया था 'किरणावली में भूयः अवलोकन को ही व्याप्ति निश्चय के प्रतिकारणभूत उपाय माना गया है। भूयोदर्शन का अर्थ है अन्वय और व्यतिरेक के दृष्टान्तों का बार-बार अवलोकन करना । यह ठीक है कि अन्वय और व्यतिरेक के दृष्टान्तों के बार-बार अवलोकन से व्याप्ति होने की धारणा की पुष्टि होती है । किन्तु यह भूयो दर्शन या बार-बार अवलोकन प्रथमतः त्रैकालिक नहीं हो सकता है अतः इससे त्रैकालिक व्याप्ति ज्ञान की सम्भावना नहीं हैं। दूसरे भूयो दर्शन से उपाधि से Jain Education International १८२ अभाव का निश्चय नहीं हो सकता। जहां जहां धूम होता है वहां-वहां आग होती है, इस प्रकार अन्वय के सैकड़ों उदाहरण तथा जहां-जहां अग्नि नहीं है वहां-वहां धूम नहीं है इस प्रकार व्यतिरेक के सैकड़ों उदाहरण अग्नि का धूम के साथ स्वाभविक व त्रैकालिक सम्बन्ध सूचित नहीं कर सकते। ईंधन के गीलेपन की उपाधि से दूषित होने के कारण यह औपाधिक सम्बन्ध है, स्वाभाविक नहीं सहचार दर्शन स्वाभाविक सम्बन्ध रूप व्याप्ति का चाहे निश्चय कर भी ले, किन्तु औपाधिक सम्बन्ध रूप व्याप्ति का निश्चय उसके द्वारा सम्भव नहीं है। गंगेश ने इसकी आलोचना में लिखा है कि साध्य और सहचार का भूयो दर्श क्रमिक अथवा सामूहिक रूप से व्याप्ति ज्ञान का कारण नहीं है । रघुनाथ शिरोमणि, गदाधर भट्टाचार्य, विश्वनाथ, अन्नम भट्ट तथा नीलकंठ ने एक मत से भूयो दर्शन को व्याप्ति ग्राह्य प्रमाण नहीं माना है। श्रीधर के अनुसार व्याप्ति का निश्चय प्रतिपक्ष शंका रहित अन्तिम प्रत्यक्ष से होता है, जिसमें उसे सहभाव विषयक प्रत्यक्ष से उत्पन्न होने वाले संस्कार की सहायता भी अपेक्षित रहती है किन्तु प्रत्यक्ष के द्वारा व्यभिचार शंकाओं का पूर्णतः निर्मूलन न होने के कारण यह मत भी युक्ति संगत नहीं है। जयन्त भट्ट ने नियमित सहचार दर्शन को ही व्याप्ति निश्चित का कारणीभूत उपाय माना है किन्तु यह मत इसलिए समीचीन नहीं है कि नियत सहचार दर्शन केवल अतीत और वर्तमान पर आधारित है किन्तु उसकी क्या गारण्टी है कि यह सम्बन्ध भविष्य के लिए भी तथा देशान्तर और कालान्तर में भी कार्यकारी सिद्ध होगा। इस शंका का निरसन करने के लिए सहचार नियम क्षमताशीलं नहीं है। इस प्रकार प्रेक्षण या इन्द्रिय प्रत्यक्ष पर आधारित कोई भी विधि व्याप्ति स्थापन में समर्थ नहीं है। अनुमान से भी व्याप्ति ज्ञान सम्भव नहीं है क्योंकि प्रथम तो अनुमान की वैधता तो स्वयं ही व्याप्ति सम्बन्ध के ज्ञान की वैधता पर निर्भर है। यदि हमारा व्याप्ति सम्बन्ध का ज्ञान प्रामाणिक नहीं है तो अनुमान तो प्रामाणिक हो ही नहीं सकता। अनुमान को व्याप्ति ज्ञान का आधार मानने में मुख्य कठिनाई यह है कि जब तक व्याप्ति ज्ञान न हो जाय, अनुमान की कल्पना ही नहीं हो सकती। यदि अनुमान स्वयं ही अपनी व्याप्ति का ग्राहक है तो हम आत्माश्रय दोष से बच नहीं सकते। इससे भिन्न यदि हम यह मानें कि एक अनुमान की व्याप्ति का ग्रहण दूसरे अनुमान से होगा तो ऐसी स्थिति में एक अनुमान की व्याप्ति के ग्रहण के लिए दूसरे अनुमान की और दूसरे अनुमान की व्याप्ति के लिए तीसरे अनुमान की और तीसरे अनुमान की व्याप्ति के लिए चौथे अनुमान की आवश्यकता होगी और इस श्रृंखला का कहीं अन्त नहीं होगा अर्थात् अनवस्था दोष का प्रसंग उत्पन्न होगा। इस प्रकार हम देखते हैं कि न तो प्रत्यक्ष से, न अनुमान से ही व्याप्ति का ग्रहण हो सकता है। यद्यपि कुछ विचारकों ने इन कठिनाइयों को जानकर व्याप्ति ग्रहण के अन्य उपाय भी सुझाए हैं। इन उपायों में एक अन्य उपाय निर्विकल्प प्रत्यक्ष के पश्चात् होने वाले For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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