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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ १८० निर्धारण किया जा सकता है सकते हैं। इस प्रकार जैन दर्शन न्याय दर्शन से एक कदम आगे बढ़कर यह निर्णय देता है कि हे - सा अर्थात् धूम सद्भाव अग्नि के सद्भाव का (१) हे . सा- सहभाव एवं क्रमभाव का अन्वय दृष्टान्त- भावात्मक सूचक हैं। धूम के में सद्भाव और अग्नि के सद्भाव में भी व्याप्ति सम्बध उपलम्भ हैं। अत: जैन दर्शन के इस दृष्टिकोण का समर्थन नव्य न्याय में हमें (२)~ सा. ~हे ~ सहभाव एवं क्रमभाव का अन्वय व्यतिरेक दृष्टान्त मिलता हैं। वह तर्क के व्याप्ति परिशोधक तर्क और व्याप्ति ग्राहक तर्क अभावात्मक उपलम्भ ऐसे दो विभाग करता है। उपरोक्त उदाहरण में छठा चरण व्याप्ति परिशोधक तर्क का (३) ~(हे. ~ सा ~ (~ सा.हे)- व्यभिचार अदर्शन, अनुपलम्भ और सातवाँ तथा आठवाँ चरण व्याप्ति ग्राहक तर्क का है। यद्यपि इस (४) :.सं (हेसा)- व्याप्ति सुझाव सब में तर्क का मुख्य कार्य तो वहाँ है जब हम सद्भाव एवं क्रमभाव के (५) (हे - सा) V~(हे-सा)- संशय अन्वय और व्यतिरेक के साधक दृष्टान्तों तथा व्यभिचार दर्शन रूप (६)~(~ सा. हे)- संशय निरसन व्यभिचार अदर्शन के आधार पर बाधक दृष्टान्त के अभाव में व्याप्ति सम्बन्ध का निश्चय करते हैं। यह (७) .:. ~ सा ~ हे- व्याप्ति (अभावात्मक) विशेषके दृष्टान्तों से सामान्य नियम की ओर अथवा सहभाव एवं क्रमभाव से आपादन (Implication) या कार्य कारण सम्बन्ध की ओर (८) हे - सा-व्याप्ति (भावात्मक) जो छलांग लगाते हैं तर्क उसी का प्रतीक है। यद्यपि तर्क के इस जबकि प्रतीकात्मक स्वरूप के बारे में अभी काफी विचार और संशोधन की हे = हेतु आवश्यकता है किन्तु फिर भी इसे मान्य करना इसलिए आवश्यक है सा = साध्य कि हम भाषा सम्बन्धी कुछ सम्भावित भ्रान्तियों से बच सके। उदाहरण सहभाव के लिए जैनन्याय के अद्वितीय विद्वान् पं० कैलाशचन्द जी जैन न्याय नामक ग्रन्थ में तर्क की परिभाषा की व्याख्या करते हुए लिखते है, आपादन उपलम्भ–साध्य के होने पर ही साधन का होना और अनुपलम्भनिषेध साध्य के अभाव में साधन का न होना, के निमित्त से होने वाले व्याप्ति आपादन निषेध, व्याप्ति निषेध ज्ञान को तर्क कहते हैं (जैन न्याय पृ० २०९) किन्तु क्या साध्य (अग्नि) के सद्भाव से साधन या हेतु (धुएँ) का सद्भाव सिद्ध हो सकता इसे निम्न ठोस उदाहरण से भी स्पष्ट किया जाता है- यदि हम है? कदापि नहीं। वस्तुत: यहाँ ‘साध्य के होने पर ही साधन का वह परम्परागत उदाहरण लें जिसमें धुआँ हेतु है और अग्नि साध्य है, तो होना'- इस कथन का अर्थ भावात्मक न होकर अभावात्मक ही है सर्वप्रथम (१) धुआँ के साथ अग्नि का सहचार देखा जाता है (यत् सत्त्वे अर्थात् यह साध्य के अभाव में साधन के अभाव का द्योतक है न कि तत् सत्ता इत्यन्वयः)। (२) अग्नि के अभाव में धुएं का भी अभाव देखा साध्य के सद्भाव में साधन के सद्भाव का। क्योंकि धूम ही अग्नि से जाता है (यद्भावे तदभावः इति व्यतिरेकः)। इस प्रकार अन्वय और नियत है, अग्नि धूम से नियत नहीं है। इसका नियम है साधन (हेतु) का व्यतिरेक दोनों में सहचार देखा जाता है पुनः (३) ऐसा कोई भी सद्भाव साध्य के सद्भाव का और साध्य का अभाव साधन या हेतु के उदाहरण नहीं देखा जाता है कि धुआँ है किन्तु अग्नि नहीं है अथवा अभाव का सूचक है, जिसका प्रतीकात्मक रूप होगा हे - सा तथा ~ अग्नि नहीं है और धुआँ है। (४) इसलिए सम्भावना यह प्रतीत होती है सा ~ है। अत: इस नियम का कोई भी व्यतिक्रम असत्य निष्कर्ष की कि धूम और अग्नि में व्याप्ति सम्बन्ध या अविनाभाव सम्बन्ध होना और ले जावेगा। हम साध्य की उपस्थिति से हेतु की उपस्थिति या चाहिए। (५) पुन: यह संशय हो सकता है कि धुएं और अग्नि में व्याप्ति अनुपस्थिति के सम्बध में कोई भी निर्णय नहीं ले सकते हैं। भावात्मक सम्बन्ध होगा या नहीं होगा। (६) किन्तु यह दूसरा विकल्प सत्य नहीं है दृष्टान्तों में व्याप्ति हेतु ओर साध्य अर्थात् धूम के सद्भाव और अग्नि के क्योंकि अग्नि के अभाव में धूम की उपस्थिति का एक भी व्यभिचारी सद्भाव के बीच होती है किन्तु अभावात्मक दृष्टान्त में वह साध्य और उदाहरण नहीं मिला हैं (७) अतः निष्कर्ष यह है कि अग्नि के अभाव हेतु अर्थात् अग्नि के अभाव और धूम के अभाव के बीच होती हैं। इसका में धुएँ का अभाव व्याप्ति या अविनाभाव सम्बन्ध का सूचक है। (८) निर्देश हमारे प्राचीन आचार्यों ने भी व्याप्य-व्यापक भाव या गम्य-गमक इसी आधार पर धूम के सद्भाव में और अग्नि के सद्भाव में व्याप्ति भाव के रूप में किया है। उन्होंने यह बताया है कि धूम की उपस्थिति से सम्बन्ध सिद्ध हो जावेगा। यहाँ हमें यह ध्यान रखना होगा कि जहाँ न्याय अग्नि की उपस्थिति का और अग्नि की अनुपस्थिति से धूम की अनुपस्थिति दर्शन केवल सा. हे को तर्क का प्रतीक मानता है वहाँ जैन दर्शन-सा का निश्चय किया जा सकता है। किन्तु इस नियम का कोई भी व्यतिक्रम हे और हे. सा दोनों को ही स्वीकार करता है। डा० बारलिंगे ने भी माना सत्य नहीं होगा। क्योंकि धूम व्याप्य है और अग्नि व्यापक है प्रतीकात्मकता है कि- सा ~हे से हम हे - सा के निष्कर्ष पर निर्दोष रूप से पहुँच से यह बात अधिक स्पष्ट हो जाती है। वर्ग सदस्यता का निम्न चित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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