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________________ १३४ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ हीनांश को अपने स्वरूप में बदल सकता है, जैसे पंचांश स्निग्धत्व तीन किन्तु यह भेद की प्रक्रिया तब तक होनी चाहिए जब पुद्गल स्कंध एक अंश स्निग्धत्व को अपने रूप में परिणत करता है अर्थात् तीन अंश प्रदेशी अंतिम इकाई के रुप में अविभाज्य न हो जाये। यह अविभाज्य स्निग्धत्व भी पाँच अंश स्निग्धत्व के सम्बन्ध से पाँच अंश परिणत हो परमाणु किसी भी इंद्रिय या अणुवीक्षण यंत्रादि से भी ग्राह्य (दृष्टिगोचर) जाता है। इसी प्रकार पाँच अंश स्निग्धत्व तीन अंश रूक्षत्व को भी स्व- नहीं होता है। जैन दर्शन में इसे केवल सर्वज्ञ के ज्ञान का विषय माना स्वरूप में मिला लेता है अर्थात् रूक्षत्व स्निग्धत्व में बदल जाता है। गया है। इस तथ्य की पुष्टि करते हुए प्रोफेसर जान पिल्ले लिखते है:रूक्षत्व अधिक हो तो वह अपने से कम स्निग्धत्व को अपने रूप का वैज्ञानिक पहले अणु को ही पुद्गल का सबसे छोटा, अभेद्य अंश मानते बना लेता है। मेरे विचार में यहाँ यह भी सम्भव है कि दोनों के मिलन थे, परन्तु जब उसके भी विभाग होने लगे, तो उन्होंने अपनी धारणा से अंशो की अपेक्ष कोई तीसरी अवस्था भी बन सकती है। बदल दी और अणु को मालीक्यूल अर्थात् सूक्ष्म स्कन्ध नाम दिया तथा परमाणु को एटम नाम दिया। किन्तु अब तो परमाणु के भी न्यूट्रान, जैन दर्शन में परमाणु प्रोटान और इलेक्ट्रान जैसे भेद कर दिये गये हैं, जिससे सिद्ध होता है जैन दर्शन में परमाणु को पुद्गल का सबसे छोटा अविभागी कि आधुनिक वैज्ञानिकों का परमाणु अविभागी नहीं है। जैन दर्शन तो अंश माना गया है। यथा 'जंदव्वं अविभागी तं परमाणु वियाणेहि'२ ऐसे परमाणु को भी सूक्ष्म स्कन्ध ही कहता है। पुद्गल के समान परमाणु अर्थात् जो द्रव्य अविभागी है उसको निश्चय से परमाणु जानो। इसी में भी वर्ण, रस, गंध, स्पर्श के गुण माने गये है फिर भी यह ज्ञातव्य तरह की परिभाषा डेमोक्रिटस ने भी दी है जिसका उल्लेख पूर्व में है कि प्रत्येक परमाणु में कोई एक वर्ण, एक गंध, एक रस और मात्र कर आये हैं। परमाणु का लक्षण स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द दो स्पर्श शीत और उष्ण में कोई एक तथा स्निग्ध और रूक्ष में से कोई लिखते हैं एक-पाये जाते है। अंतादि अंतमज्झं अंतंतं णेव इंदिए गेझं। जैनाचार्यों की यह विशेषता रही है कि उन्होंने शब्द, अंधकार, जं अविभागी दव्वं तं परमाणुं पसंसंति।। प्रकाश, छाया, गर्मी आदि को पुद्गल द्रव्य का ही पर्याय माना है। इस -नियमसार २९ दृष्टि से जैन दर्शन का पुद्गल विचार आधुनिक विज्ञान के बहुत अधिक ___ अर्थात् परमाणु का वही आदि, वही अंत तथा वही मध्य निकट है। होता है। वह इंद्रियग्राह्य नहीं होता। वह सर्वथा अविभागी है-उसके जैन दर्शन की ही ऐसी अनेक मान्यतायें हैं, जो कुछ वर्षों तक टुकड़े नहीं किये जा सकते। ऐसे अविभागी द्रव्य को परमाणु कहते अवैज्ञानिक व पूर्णत: काल्पनिक लगती थीं, किन्तु आज विज्ञान से हैं। परमाणु सत् है अतः अविनाशी है। साथ ही उत्पाद व्यय धर्मा प्रमाणित हो रही हैं। उदाहरण के रूप में प्रकाश, अन्धकार, ताप, छाया अर्थात् रासायनिक स्वभाव वाला भी है। इस तथ्य को वैज्ञानिकों ने भी शब्द आदि पौद्गलिक हैं जैन आगमों की इस मान्यता पर कोई विश्वास माना है। वे भी परमाणु को रासायनिक परिवर्तन क्रिया में भाग लेने नहीं करता था, किन्तु आज उनकी पौद्गगलिकता सिद्ध हो चुकी है। जैन योग्य परिणमनशील मानते हैं। परमाणु जब अकेला-असम्बद्ध होता है आगमों का यह कथन है कि शब्द न केवल पौद्गलिक है, अपितु वह तब उसमें प्रतिक्षण स्वाभावानुकूल पर्यायें या अवस्थाएं होती रहती हैं ध्वनि रूप में उच्चरित होकर लोकान्त तक की यात्रा करता है, इस तथ्य तथा जब वह अन्य परमाणु से सम्बद्ध होकर स्कंध की दशा रूप में को कल तक कोई भी स्वीकार नहीं करता था, किन्तु आधुनिक वैज्ञानिक होता है तब उसमें विभाव या स्वभावेतर पर्यायें भी द्रवित होती रहती खोजों ने अब इस तथ्य को सिद्ध कर दिया है कि प्रत्येक ध्वनि उच्चरित हैं। इसी कारण ही उसे द्रव्य कहा जाता है। द्रव्य का व्युत्पत्ति सभ्य होने के बाद अपनी यात्रा प्रारम्भ कर देती है और उसकी यह यात्रा, चाहे अर्थ यही है कि जो द्रवित अर्थात् परिवर्तित हो। परमाणु भी इसका अत्यन्त सूक्ष्म रूप में क्यों न हो, लोकान्त तक होती है। जैनों की यह अपवाद नहीं है। अवधारणा कि अवधिज्ञानी चर्म-चक्षु के द्वारा गृहीत नहीं हो रहे दूरस्थ विषयों का सीधा प्रत्यक्षीकरण कर लेता है- कुछ वर्षों पूर्व तक कपोलकल्पना परमाणु की उत्पत्तिः ही लगती थी, किन्तु आज जब टेलीविजन का आविष्कार हो चुका है, यहां परमाणु की उत्पत्ति का तात्पर्य उसका अस्तित्व में आने यह बात बहुत आश्चर्यजनक नहीं रही है। जिस प्रकार से ध्वनि की यात्रा से नहीं, क्योंकि परमाणु सत् स्वरूप है। सत् की न तो उत्पत्ति होती है होती है उसी प्रकार से प्रत्येक भौतिक पिण्ड से प्रकाश-किरणें परावर्तित और नाश। सत् तो सदाकाल अनादि- अनंत अस्तित्व वाला होता है, होती हैं और वे भी ध्वनि के समान ही लोक में अपनी यात्रा करती हैं अत: परमाणु का अस्तित्व भी अनादि-अनंत है, अत: वह अविनाशी तथा प्रत्येक वस्तु या घटना का चित्र विश्व में संप्रेषित कर देती है। आज है। यहां परमाणु की उत्पत्ति का तात्पर्य मिले हुए परमाणुओं के समूह से यदि मानव मस्तिष्क में टेलीविजन सेट की ही तरह चित्रों को ग्रहण रूप स्कंधों से विखण्डित होकर परमाणु के आविर्भाव हैं। वस्तुतः करने का सामर्थ्य विकसित हो जाये, तो दूरस्थ पदार्थों एवं घटनाओं के परमाणुओं से स्कन्ध और स्कन्ध से परमाणु अर्विभूत होते रहते है। हस्तामलकवत् ज्ञान में कोई बाधा नहीं रहेगी, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ से तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार 'भेदादणुः' अर्थात् भेद से अणु प्रगट होता है, प्रकाश व छाया के रूप में जो किरणें परावर्तित हो रही हैं, वे तो हम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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