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________________ FEEn जैनदर्शन में पुद्गल और परमाणु होना या न होना, २. 'आदि' पद से तीन आदि अंश लिए जाय या ४. जघन्य+त्र्यादि अधिक - नहीं नहीं, और ३. बन्धविधान केवल सदृश अवयवों के लिए माना जाय ५. जघन्येतर+सम जघन्येतर अथवा नहीं। ६. जघन्येतर+एकाधिक जघन्येतर इस सम्बन्ध में पंडित जी आगे लिखते हैं ७. जघन्येतर+व्यधिक जघन्येतर १. तत्त्वार्थभाष्य और सिद्धसेनगणि की उसकी वृत्ति के ८. जघन्यतेर+त्र्यादि अधिक जघन्येतर नहीं नहीं अनुसार दोनों परमाणु जब जघन्य गुणवाले हों तभी उनके बन्ध का इस बन्ध-विधान को स्पष्ट करते हुए अपनी तत्त्वार्थसूत्र की निषेध है, अर्थात् एक परमाणु जघन्यगुण हो और दूसरा जघन्यगुण न व्याख्या में पं. सुखलालजी लिखते है कि स्निग्धत्व और रूक्षत्व दोनों हो तभी उनका बन्ध होता है। परन्तु सर्वार्थसिद्धि आदि सभी दिगम्बर स्पर्श-विशेष हैं। ये अपनी-अपनी जाति की अपेक्षा एक-एक रूप होने व्याख्याओं के अनुसार एक जघन्यगुण परमाणु का दूसरे अजघन्यगुण पर भी परिणमन की तरतमता के कारण अनेक प्रकार के होते हैं। परमाणु के साथ भी बन्ध नहीं होता। तरतमता यहाँ तक होती है कि निकृष्ट स्निग्धत्व और निकृष्ट रूक्षत्व २. तत्त्वार्थभाष्य और उसकी वृत्ति के अनुसार सूत्र ३५ के तथा उत्कृष्ट स्निग्धत्व और उत्कृष्ट रूक्षत्व के बीच अनन्तानन्त अंशों 'आदि' पद का तीन आदि अंश अर्थ लिया जाता है। अतएव उसमें का अन्तर रहता है, जैसे बकरी और ऊँटनी के दूध के स्निग्धत्व में। किसी एक परमाणु से दूसरे परमाणु में स्निग्धत्व या रूक्षत्व के अंश स्निग्धत्व दोनों में ही होता है परन्तु एक में अत्यल्प होता है और दूसरे दो, तीन, चार तथा बढ़ते-बढ़ते संख्यात, असंख्यात अनन्त अधिक में अत्यधिक। तरतमतावाले स्निग्धत्व और रूक्षत्व परिणामों में जो होने पर भी बन्ध माना जाता है; केवल एक अंश अधिक होने पर ही परिणाम सबसे निकृष्ट अर्थात् अविभाज्य हो उसे जघन्य अंश कहते हैं। बन्ध नहीं माना जाता है। परन्तु सभी दिगम्बर व्याख्याओं के अनुस्पर जघन्य को छोड़कर शेष सभी जघन्येतर कहे जाते हैं। जघन्येतर में केवल दो अंश अधिक होने पर ही बन्ध माना जाता है, अर्थात् एक मध्यम और उत्कृष्ट संख्या आ जाती है। सबसे अधिक स्निग्धत्व अंश की तरह तीन, चार संख्यात, असंख्यात, अनन्त अंश अधिक होने परिणाम उत्कृष्ट है और जघन्य तथा उत्कृष्ट के बीच के सभी परिणाम पर बन्ध नहीं माना जाता। मध्यम हैं। जघन्य स्निग्धत्व की अपेक्षा उत्कृष्ट स्निग्धत्व अनन्तानन्त ३. भाष्य और वृत्ति के अनुसार दो, तीन आदि अंशों के गुना अधिक होने से यदि जघन्य स्निग्धत्व को एक अंश कहा जाय तो अधिक होने पर बन्ध का विधान सदृश अवयवों पर ही लागू होता उत्कृष्ट स्निग्धत्व को अनन्तानन्त अंशपरिमित मानना चाहिए। दो, तीन है,विसदृश पर नहीं। परन्तु दिगम्बर व्याख्याओं में वह विधान सदृश यावत् संख्यात, असंख्यात और अनन्त से एक कम उत्कृष्ट तक के की भाँति विसदृश परमाणुओं के बन्ध पर भी लागू होता है। सभी अंश मध्यम हैं। इस अर्थभेद के कारण दोनों परम्पराओं में बन्ध विषयक जो यहाँ सदृश का अर्थ है स्निग्ध का स्निग्ध के साथ या रूक्ष विधि-निषेध फलित होता है वह इस प्रकार है का रूक्ष के साथ बन्ध होना और विसदृश का अर्थ है स्निग्ध का रूक्ष के साथ बन्ध होना। एक अंश जघन्य है और उससे एक अधिक अर्थात् भाष्य-वृत्त्यनुसार दो अंश एकाधिक हैं। दो अंश अधिक हों तब व्यधिक और तीन अंश गुण-अंश सदृश विसदृश अधिक हों तब त्र्याधिक। इसी तरह चार अंश अधिक होने पर चतुरधिक १. जघन्य जघन्य यावत् अनन्तानन्त-अधिक कहलाता है। सम अर्थात् दोनों ओर अंशों जघन्य एकाधिक की संख्या समान हो तब वह सम है। दो अंश जघन्येतर का सम जघन्य व्यधिक जघन्येतर दो अंश हैं, दो अंश जघन्येतर का एकाधिक जघन्येतर तीन ४. जघन्य+त्र्यादि अधिक है अंश हैं, दो अंश जघन्येतर का व्यधिक जघन्येतर चार अंश हैं, दो ५. जघन्येतर+सम जघन्येतर अंश जघन्येतर का व्याधिक जघन्येतर पाँच अंश हैं और चतुरधिक ६. जघन्येतर एकाधिक जघन्येतर जधन्येतर छ: अंश हैं। इसी प्रकार तीन आदि से अनन्तांश जघन्येतर ७. जघन्येतर+व्यधिक जघन्येतर तक के सम, एकाधिक, व्यधिक और व्यादि जघन्येतर होते हैं। ८. जघन्येतर+त्र्यादि अधिक जघन्येतर यहाँ यह भी बात ध्यान देने योग्य है कि समांश स्थल में सदृश बन्ध तो होता ही नहीं, विसदृश होता है, जैसे दो अंश स्निग्ध सर्वार्थसिद्धि आदि दिगम्बर व्याख्या-ग्रन्यां के अनुसार का दो अंश रूक्ष के साथ या तीन अंश स्निग्ध का तीन अंश रूक्ष के सदश विसदृश साथ। ऐसे स्थल में कोई एक सम दूसरे सम को अपने रूप में परिणत १. जघन्य जघन्य नहीं कर लेता है अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार कभी स्निग्धत्व जघन्य एकाधिक नहीं नहीं रूक्षत्व को स्निग्धत्व में बदल देता है और कभी रूक्षत्व स्निग्धत्व को ३. जघन्य+व्यधिक रूक्षत्व में बदल देता है। परन्तु अधिकाशं स्थल में अधिकांश ही 000 Tone me गुण-अंश नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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