SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५० जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ हैं, जो नियुक्तिकार पूर्वधर भद्रबाहु हैं, इस मान्यता के विरोध में जाते आठवें बोटिक मत की उत्पत्ति का उल्लेख हुआ है। अन्तिम सातवाँ हैं। हम उनकी स्थापनाओं के हार्द को ही हिन्दी भाषा में रूपान्तरित निह्नव वीरनिर्वाण संवत् ५८४ में तथा बोटिक मत की उत्पत्ति वीरनिर्वाण कर निम्न पंक्तियों में प्रस्तुत कर रहे हैं संवत् ६०९ में हुई। ये घटनाएं चतुर्दशपूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु १. आवश्यकनियुक्ति की गाथा ७६२ से ७७६ तक में वज्रस्वामी के लगभग चार सौ वर्ष पश्चात् हुई हैं। अत: उनके द्वारा रचित नियुक्ति के विद्यागुरु आर्यसिंहगिरि, आर्यवज्रस्वामी, तोषलिपुत्र, आर्यरक्षित, में इनका उल्लेख होना सम्भव नहीं लगता है। वैसे मेरी दृष्टि में बोटिक आर्य फल्गुमित्र, स्थविर भद्रगुप्त जैसे आचार्यों का स्पष्ट उल्लेख है।३४ मत की उत्पत्ति का कथन नियुक्तिकार का नहीं है- नियुक्ति में सात ये सभी आचार्य चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाह से परवर्ती हैं और तोषलिपुत्र निह्नवों का ही उल्लेख है। निह्नवों के काल एवं स्थान सम्बन्धी गाथाएँ को छोड़कर शेष सभी का उल्लेख कल्पसूत्र स्थविरावली में है। यदि भाष्य गाथाएँ है- जो बाद में नियुक्ति में मिल गई हैं। किन्तु नियुक्तियों नियुक्तियाँ चतुर्दश पूर्वधर आर्यभद्रबाहु की कृति होती तो उनमें इन में सात निह्नवों का उल्लेख होना भी इस बात का प्रमाण है कि नियुक्तियाँ नामों के उल्लेख सम्भव नहीं थे। प्राचीनगोत्रीय पूर्वधर भद्रबाहु की कृतियाँ नहीं हैं। २. इसी प्रकार पिण्डनियुक्ति की गाथा ४९८ में पादलिप्ताचार्य५ ८. सूत्रकृतांगनियुक्ति की गाथा १४६ में द्रव्य-निक्षेप के सम्बन्ध का एवं गाथा ५०३ से ५०५ में वज्रस्वामी के मामा समितसूरि३६ में एकभविक, बद्धायुष्य और अभिमुखित नाम-गोत्र ऐसे तीन आदेशों का उल्लेख है साथ ही ब्रह्मदीपकशाला का उल्लेख भी है-ये तथ्य का उल्लेख हुआ है। ये विभिन्न मान्यताएं भद्रबाहु के काफी पश्चात् यही सिद्ध करते हैं कि पिण्डनियुक्ति भी चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय आर्य सुहस्ति, आर्य मंक्षु आदि परवर्ती आचार्यों के काल में निर्मित भद्रबाहु की कृति नहीं है, क्योंकि पादलिप्तसूरि, समितसूरि तथा हुई हैं। अत: इन मान्यताओं के उल्लेख से भी नियुक्तियों के कर्ता ब्रह्मदीपकशाखा की उत्पत्ति, ये सभी प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु से चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु हैं, यह मानने में बाधा परवर्ती हैं। आती है। ३. उत्तराध्ययननियुक्ति की गाथा १२० में कालकाचार्य की मुनि श्री पुण्यविजय जी ने उत्तराध्ययन के टीकाकार शान्त्याचार्य, कथा का संकेत है। कालकाचार्य भी प्राचीनगोत्रीय पूर्वधर भद्रबाह से जो नियुक्तिकार के रूप में चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाह को मानते हैं, की लगभग तीन सौ वर्ष पश्चात् हुए हैं। इस मान्यता का भी उल्लेख किया है कि नियुक्तिकार त्रिकालज्ञानी हैं। ४. ओघनियुक्ति की प्रथम गाथा में चतुर्दश पूर्वधर, दश पूर्वधर अत: उनके द्वारा परवर्ती घटनाओं का उल्लेख होना असम्भव नहीं एवं एकादश- अंगों के ज्ञाताओं को सामान्य रूप से नमस्कार किया है।४८ यहाँ मुनि पुण्यविजय जी कहते हैं कि हम शान्त्याचार्य की इस गया है,३९ ऐसा द्रोणाचार्य ने अपनी टीका में सूचित किया है।४० यद्यपि बात को स्वीकार कर भी लें, तो भी नियुक्तियों में नामपूर्वक वज्रस्वामी मुनि श्री पुण्यविजय जी सामान्य कथन की दृष्टि से इसे असंभावित को नमस्कार आदि किसी भी दृष्टि से युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता। नहीं मानते हैं, क्योंकि आज भी आचार्य, उपाध्याय एवं मुनि नमस्कारमंत्र वे लिखते हैं यदि उपर्युक्त घटनाएँ घटित होने के पूर्व ही नियुक्तियों में अपने से छोटे पद और व्यक्तियों को नमस्कार करते हैं। किन्तु में उल्लिखित कर दी गयी हों तो भी अमुक मान्यता अमुक पुरुष मेरी दृष्टि में कोई भी चतुर्दश पूर्वधर दशपूर्वधर को नमस्कार करे, द्वारा स्थापित हुई यह कैसे कहा जा सकता है।४९ यह उचित नहीं लगता। पुनः आवश्यकनियुक्ति की गाथा ७६९ में पुनः जिन दस आगम-ग्रन्थों पर निर्यक्ति लिखने का उल्लेख दस पूर्वधर वज्रस्वामी को नाम लेकर जो वंदन किया गया है, वह आवश्यकनियुक्ति में है, उससे यह स्पष्ट है कि भद्रबाहु के समय तो किसी भी स्थिति में उचित नहीं माना जा सकता है। आचारांग, सूत्रकृतांग आदि अतिविस्तृत एवं परिपूर्ण थे। ऐसी स्थिति ५. पुन: आवश्यकनियुक्ति की गाथा ७६३ से ७७४ में यह में उन आगमों पर लिखी गयी नियुक्ति भी अतिविशाल एवं चारों कहा गया है कि शिष्यों की स्मरण शक्ति के ह्रास को देखकर आर्य अनुयोगमय होनी चाहिए। इसके विरोध में यदि नियुक्तिकार भद्रबाहु रक्षित ने, वज्रस्वामी के काल तक जो आगम अनुयोगों में विभाजित थे, ऐसी मान्यता रखने वाले विद्वान् यह कहते हैं कि नियुक्तिकार नहीं थे, उन्हें अनुयोगों में विभाजित किया,४२ यह कथन भी एक परवर्ती तो भद्रबाहु ही थे और वे नियुक्तियाँ भी अतिविशाल थीं, किन्तु बाद घटना को सूचित करता है। इससे भी यही फलित होता है कि नियुक्तियों में स्थविर आर्यरक्षित ने अपने शिष्य पुष्यमित्र की विस्मृति एवं भविष्य के कर्ता चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु नहीं हैं, अपितु आर्यरक्षित में होने वाले शिष्यों की मंद-बुद्धि को ध्यान में रखकर जिस प्रकार के पश्चात् होने वाले कोई भद्रबाहु हैं। आगमों के अनुयोगों को पृथक् किया, उसी प्रकार नियुक्तियों को भी ६. दशवैकालिकनियुक्ति की गाथा ४ एवं ओघनियुक्ति" की व्यवस्थित एवं संक्षिप्त किया। इसके प्रत्युत्तर में मुनि श्री पुण्यविजय गाथा २ में चरणकरणानुयोग की नियुक्ति कहूँगा ऐसा उल्लेख है। यह जी का कथन है- प्रथम, तो यह कि आर्यरक्षित द्वारा अनुयोगों के भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है कि नियुक्ति की रचना अनुयोगों के पृथक् करने की बात तो कही जाती है, किन्तु नियुक्तियों को व्यवस्थित विभाजन के बाद अर्थात् आर्यरक्षित के पश्चात् हुई है। करने का एक भी उल्लेख नहीं है। स्कंदिल आदि ने विभिन्न वाचनाओं ७. आवश्यकनियुक्ति५ की गाथा ७७८-७८३ में तथा में 'आगमों' को ही व्यवस्थित किया, नियुक्तियों को नहीं। उत्तराध्ययननियुक्ति ६ की गाथा १६४ से १७८ तक में ७ निह्नवों और दूसरे, उपलब्ध नियुक्तियाँ उन अंग-आगमों पर नहीं हैं जो भद्रबाहु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy