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________________ नियुक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन प्रथम के युग में थे। परम्परागत मान्यता के अनुसार आरक्षित के उत्तराध्ययननियुक्ति में उसके 'अकाममरणीय' नामक अध्ययन की युग में भी आचारांग एवं सूत्रकृतांग उतने ही विशाल थे, जितने भद्रबाहु नियुक्ति में निम्न गाथा प्राप्त होती हैके काल में थे। ऐसी स्थिति में चाहे एक ही अनुयोग का अनुसरण "सवे ए ए दारा मरणविभत्तीए वण्णिआ कमसो। करके नियुक्तियाँ लिखी गयी हों, उनकी विषयवस्तु तो विशाल होनी सगलणिउणे पयत्थे जिण चउदस पुवि भासंति"।।२३२।। चाहिए थी। जबकि जो भी नियुक्तियाँ उपलब्ध हैं वे सभी माथुरीवाचना (ज्ञातव्य है कि मुनिपुण्यविजय जी ने इसे गाथा २३३ लिखा द्वारा या वलभी वाचना द्वारा निर्धारित पाठ वाले आगमों का ही अनुसरण है किन्तु नियुक्तिसंग्रह में इस गाथा का क्रम २३२ ही है।) कर रही हैं। यदि यह कहा जाय कि अनुयोगों का पृथक्करण करते इस गाथा में कहा गया है कि “मरणविभक्ति में इन सभी द्वारों समय आर्यरक्षित ने नियुक्तियों को भी पुन: व्यवस्थित किया और उनमें का अनुक्रम से वर्णन किया गया है, पदार्थों को सम्पूर्ण रूप से तो अनेक गाथाएँ प्रक्षिप्त भी की, तो प्रश्न होता है कि फिर उनमें गोष्ठामाहिल जिन अथवा चतुर्दश पूर्वधर ही जान सकते हैं।" यदि नियुक्तिकार और बोटिक मत की उत्पत्ति सम्बन्धी विवरण कैसे आये, क्योंकि इन चतुर्दशपूर्वधर होते तो वे इस प्रकार नहीं लिखते। शान्त्याचार्य ने स्वयं दोनों की उत्पत्ति आर्यरक्षित के स्वर्गवास के पश्चात् ही हुई है। इसे दो आधारों पर व्याख्यायित किया। प्रथम, चतुर्दश पूर्वधरों में आपस यद्यपि इस सन्दर्भ में मेरा मुनिश्री से मतभेद है। मेरे अध्ययन में अर्थज्ञान की अपेक्षा से कमी-अधिकता होती है, इसी दृष्टि से यह की दृष्टि से सप्त निह्नवों के उल्लेख वाली गाथाएँ तो मूल गाथाएँ कहा गया हो कि पदार्थों का सम्पूर्ण स्वरूप तो चतुर्दशपूर्वी ही बता हैं, किन्तु उनमें बोटिक मत के उत्पत्ति स्थल रथवीरपुर एवं उत्पत्तिकाल सकते हैं अथवा द्वार गाथा से लेकर आगे की ये सभी गाथाएँ भाष्य वीर नि.सं. ६०९ का उल्लेख करने वाली गाथाएँ बाद में प्रक्षिप्त हैं। गाथाएँ हों।५३ यद्यपि मुनि पुण्यविजय जी इन्हें भाष्य गाथाएँ स्वीकार वे नियुक्ति की गाथाएँ न होकर भाष्य की हैं, क्योंकि जहाँ निहवों नहीं करते हैं। चाहे ये गाथाएँ भाष्यगाथा हों या न हों किन्तु मेरी दृष्टि एवं उनके मतों का उल्लेख है वहाँ सर्वत्र सात का ही नाम आया में शान्त्याचार्य ने नियुक्तियों में भाष्य-गाथा मिली होने की जो कल्पना है जबकि उनके उत्पत्तिस्थल एवं काल को सूचित करने वाली इन की है, वह पूर्णतया असंगत नहीं है। दो गाथाओं में यह संख्या आठ हो गयी। आश्चर्य यह है कि आवश्यक पुन: जैसा पूर्व में सूचित किया जा चुका है, सूत्रकृतांग के पुण्डरीक नियुक्ति में बोटिकों की उत्पत्ति की कहीं कोई चर्चा नहीं है और यदि अध्ययन की नियुक्ति में पुण्डरीक शब्द की नियुक्ति करते समय उसके बोटिकमत के प्रस्तोता एवं उनके मन्तव्य का उल्लेख मूल आवश्यक द्रव्य निक्षेप से एकभविक, बद्धायुष्य और अभिमुखित नाम-गोत्र ऐसे नियुक्ति में नहीं है, तो फिर उनके उत्पत्ति-स्थल एवं उत्पत्ति काल तीन आदेशों का नियुक्तिकार ने स्वयं ही संग्रह किया है।५४ का उल्लेख नियुक्ति में कैसे हो सकता है? वस्तुत: भाष्य की अनेक बृहत्कल्पसूत्रभाष्य (प्रथमविभाग, पृ. ४४-४५) में ये तीनों आदेश गाथाएँ नियुक्तियों में मिल गई हैं। अतः ये नगर एवं काल सूचक आर्यसुहस्ति, आर्य मंगु एवं आर्यसमुद्र की मान्यताओं के रूप में गाथाएँ भाष्य की होनी चाहिये। यद्यपि उत्तराध्ययननियुक्ति के तृतीय उल्लिखित है।५ इतना तो निश्चित है कि ये तीनों आचार्य पूर्वधर अध्ययन के अन्त में इन्हीं सप्त निह्नवों का उल्लेख होने के बाद प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु (प्रथम) से परवर्ती हैं और उनके मतों का संग्रह अन्त में एक गाथा में शिवभूति का रथवीरपुर नगर के दीपक उद्यान पूर्वधर भद्रबाहु द्वारा सम्भव नहीं है। में आर्यकृष्ण से विवाद होने का उल्लेख है।५२ किन्तु न तो इसमें दशाश्रुतस्कंध की नियुक्ति के प्रारम्भ में निम्न गाथा दी गयी हैविवाद के स्वरूप की चर्चा है और न कोई अन्य बात, जबकि उसके "वंदामिभहबाहुं पाईणं चरिमसयलसुयनाणिं। पूर्व प्रत्येक निह्नव के मन्तव्य का आवश्यकनियुक्ति की अपेक्षा विस्तृत सुत्तस्स कारगमिसिं दसासु कप्ये य ववहारे।।" विवरण दिया गया है। अत: मेरी दृष्टि में यह गाथा भी प्रक्षिप्त है। इसमें सकलश्रुतज्ञानी प्राचीनगोत्रीय भद्रबाह का न केवल वंदन यह गाथा वैसी ही है जैसी कि आवश्यकमूलभाष्य में पायी जाती है। किया गया है, अपितु उन्हें दशाश्रुतस्कंध कल्प एवं व्यवहार का रचयिता पुन: वहाँ यह गाथा बहुत अधिक प्रासंगिक भी नहीं कही जा सकती। भी कहा है, यदि नियुक्तियों के लेखक पूर्वधर श्रुतकेवली भद्रबाह होते मुझे स्पष्ट रूप से लगता है कि उत्तराध्ययननियुक्ति में भी निह्नवों की तो, वे स्वयं ही अपने को कैसे नमस्कार करते? इस गाथा को हम चर्चा के बाद यह गाथा प्रक्षिप्त की गयी है। प्रक्षिप्त या भाष्य गाथा भी नहीं कह सकते, क्योंकि प्रथम तो यह यह मानना भी उचित नहीं लगता कि चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु ग्रन्थ की प्रारम्भिक मंगल गाथा है, दूसरे चूर्णिकार ने स्वयं इसको के काल में रचित नियुक्तियों को सर्वप्रथम आर्यरक्षित के काल में ___ नियुक्तिगाथा के रूप में मान्य किया है। इससे यह निष्कर्ष निकलता व्यवस्थित किया गया और पुन: उन्हें परवर्ती आचार्यों ने अपने युग है कि नियुक्तिकार चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु नहीं हो सकते। की आगमिक वाचना के अनुसार व्यवस्थित किया। आश्चर्य तब और इस समस्त चर्चा के अन्त में मुनि जी इस निष्कर्ष पर पहुँचते अधिक बढ़ जाता है कि इस सब परिवर्तन के विरुद्ध भी कोई स्वर हैं कि परम्परागत दृष्टि से दशाश्रुतस्कंध, कल्पसूत्र, व्यवहारसूत्र एवं उभरने की कहीं कोई सूचना नहीं है। वास्तविकता यह है कि आगमों निशीथ ये चार छेदसूत्र, आवश्यक आदि दस नियुक्तियाँ, उवसग्गहर में जब भी कुछ परिवर्तन करने का प्रयत्न किया गया तो उसके विरुद्ध एवं भद्रबाहु संहिता ये सभी चतुर्दशपूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु स्वामी स्वर उभरे है और उन्हें उल्लिखित भी किया गया है। की कृति माने जाते हैं, किन्तु इनमें से ४ छेद सूत्रों के रचयिता तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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