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________________ नियुक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन ४९ हमें इन नियुक्तियों के सन्दर्भ में कहीं भी कोई भी सूचना नहीं मिलती विशेषावश्यक-मलधारिहेमचन्द्रसूरिकृत टीका-पत्र १. है। अत: इन नियुक्तियों की रचना होना संदिग्ध ही है। या तो इन ५. “साधूनामनुग्रहाय चतुर्दशपूर्वधरेण भगवता भद्रबाहुस्वामिना कल्पसूत्रं नियुक्तियों के लेखन का क्रम आने से पूर्व ही नियुक्तिकार का स्वर्गवास व्यवहारसूत्रं चाकारि, उभयोरपि च सूत्रस्पर्शिका नियुक्तिः।" हो चुका होगा या फिर इन दोनों ग्रन्थों में कुछ विवादित प्रसंगों का बृहत्कल्पपीठिका मलयगिरिकृत टीका-पत्र २. उल्लेख होने से नियुक्तिकार ने इनकी रचना करने का निर्णय ही स्थगित ६. "इह श्रीमदावश्यकादिसिद्धान्तप्रतिबद्धनियुक्तिशास्त्रसंसूत्रणसूत्रधारः.... कर दिया होगा। श्रीभद्रबाहुस्वामी....कल्पनामधेयमध्ययनं नियुक्तियुक्तं निर्मूढवान्।" अत: सम्भावना यही है कि ये दोनों नियुक्तियाँ लिखी ही नहीं बृहत्कल्पपीठिका श्रीक्षेमकीर्तिसूरिअनुसन्धिता टीका-पत्र १७७। गईं, चाहे इनके नहीं लिखे जाने के कारण कुछ भी रहे हों। प्रतिज्ञा इन समस्त सन्दर्भो को देखने से स्पष्ट होता है कि श्रुतकेवली गाथा के अतिरिक्त सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा १८९ में ऋषिभाषित का चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु प्रथम को नियुक्तियों के कर्ता के रूप में मान्य नाम अवश्य आया है। वहाँ यह कहा गया है कि जिस-जिस सिद्धान्त करने वाला प्राचीनतम सन्दर्भ आर्यशीलांक का है। आर्यशीलांक का या मत में जिस किसी अर्थ का निश्चय करना होता है उसमें पूर्व कहा समय लगभग विक्रम संवत् की ९ वीं-१०वीं सदी माना जाता है। गया अर्थ ही मान्य होता है, जैसे कि-ऋषिभाषित में। किन्तु यह जिन अन्य आचार्यों ने नियुक्तिकार के रूप में भद्रबाहु प्रथम को माना उल्लेख ऋषिभाषित मूल ग्रन्थ के सम्बन्ध में ही सूचना देता है न है, उनमें आर्यद्रोण, मलधारि हेमचन्द्र, मलयगिरि, शान्तिसूरि तथा कि उसकी नियुक्ति के सम्बन्ध में। क्षेमकीर्ति सूरि के नाम प्रमुख हैं, किन्तु ये सभी आचार्य विक्रम की दसवीं सदी के पश्चात हुए हैं। अत: इनका कथन बहुत अधिक प्रामाणिक नियुक्ति के लेखक और रचना-काल नहीं कहा जा सकता है। उन्होंने जो कुछ भी लिखा है, वह मात्र अनुश्रुतियों नियुक्तियों के लेखक कौन हैं और उनका रचना काल क्या है के आधार पर लिखा है। दुर्भाग्य से ८-९वीं सदी के पश्चात् चतुर्दश ये दोनों प्रश्न एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। अत: हम उन पर अलग-अलग पूर्वधर श्रुतकेवली भद्रबाहु और वराहमिहिर के भाई नैमित्तिक भद्रबाहु विचार न करके एक साथ ही विचार करेंगे। के कथानक, नामसाम्य के कारण एक-दूसरे में घुल-मिल गये और परम्परागत रूप से अन्तिम श्रुतकेवली, चतुर्दशपूर्वधर तथा दूसरे भद्रबाहु की रचनायें भी प्रथम के नाम चढ़ा दी गईं। यही कारण छेदसूत्रों के रचयिता आर्यभद्रबाहु प्रथम को ही नियुक्तियों का कर्ता रहा कि नैमित्तिक भद्रबाहु को भी प्राचीनगोत्रीय श्रुतकेवली चतुर्दश माना जाता है। मुनि श्री पुण्यविजय जी ने अत्यन्त परिश्रम द्वारा श्रुतकेवली पूर्वधर भद्रबाहु के साथ जोड़ दिया गया है और दोनों के जीवन की भद्रबाहु को नियुक्तियों के कर्ता के रूप में स्वीकार करने वाले निम्न घटनाओं के इस घाल-मेल से अनेक अनुश्रुतियाँ प्रचलित हो गईं। साक्ष्यों को संकलित करके प्रस्तुत किया है। जिन्हें हम यहाँ अविकल इन्हीं अनुश्रुतियों के परिणामस्वरूप नियुक्ति के कर्ता के रूप में चतुर्दश रूप से दे रहे हैं। पूर्वधर भद्रबाहु की अनुश्रुति प्रचलित हो गयी। यद्यपि मुनि श्री पुण्यविजय १. “अनुयोगदायिनः - सुधर्मस्वामिप्रभृतयः यावदस्य भगवतो जी ने बृहत्कल्पसूत्र (नियुक्ति, लघुभाष्य-वृत्त्युपेतम्) के षष्ठ विभाग नियुक्तिकारस्य भद्रबाहुस्वामिनश्चतुर्दशपूर्वधरस्याचार्योऽतस्तान् के आमुख में यह लिखा है कि नियुक्तिकार स्थविर आर्य भद्रबाहु हैं, सर्वानिति।।" इस मान्यता को पुष्ट करने वाला एक प्रमाण जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण - आचारांगसूत्र, शीलाङ्काचार्यकृत टीका-पत्र ४. के विशेषावश्यकभाष्य की स्वोपज्ञ टीका में भी मिलता है।३३ यद्यपि २. "न च केषांचिदिहोदाहरणानां नियुक्तिकालादर्वाक्कालाभाविता उन्होंने वहाँ उस प्रमाण का सन्दर्भ सहित उल्लेख नहीं किया है। मैं इत्यन्योक्तत्वमाशङ्कनीयम्, स हि भगवाँश्चतुर्दशपूर्ववित् श्रुतकेवली इस सन्दर्भ को खोजने का प्रयत्न कर रहा हूँ, किन्तु उसके मिल जाने कालत्रयविषयं वस्तु पश्यत्येवेति कथमन्यकृतत्वाशङ्का? इति।" । पर भी हम केवल इतना ही कह सकेंगे कि विक्रम की लगभग सातवीं उत्तराध्ययनसूत्र शान्तिसूरिकृता पाइयटीका-पत्र १३९. शती से नियुक्तिकार प्राचीनगोत्रीय चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु हैं, ऐसी ३. "गुणाधिकस्य वन्दनं कर्त्तव्यं न त्वधमस्य, यत उक्तम् - अनुश्रुति प्रचलित हो गयी थी। "गुणाहिए वंदणयं"। भद्रबाहुस्वामिनश्चतुर्दशपूर्वधरत्वाद् नियुक्तिकार प्राचीनगोत्रीय चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु हैं अथवा दशपूर्वधरादीनां च न्यूनत्वात् किं तेषां नमस्कारमसौ करोति? इति। नैमित्तिक (वराहमिहिर के भाई) भद्रबाहु हैं, ये दोनों ही प्रश्न विवादास्पद अत्रोच्यते- गुणाधिका एव ते, अव्यवच्छित्तिगुणाधिक्यात्, अतो हैं। जैसा कि हमने संकेत किया है नियुक्तियों को प्राचीनगोत्रीय चतुर्दश न दोष इति।" ओघनियुक्ति द्रोणाचार्यकृत, टीका-पत्र ३. पूर्वधर आर्य भद्रबाहु की मानने की परम्परा आर्यशीलांक से या उसके ४. “इह चरणकरणक्रियाकलापतरुमूलकल्पं सामायिकादिषडध्ययनात्मक- पूर्व जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण से प्रारम्भ हुई है। किन्तु उनके इन उल्लेखों श्रुतस्कन्धरूपमावश्यकतावदर्थतस्तीर्थकरैः सूत्रतस्तु गणधरैर्विरचितम्। में कितनी प्रामाणिकता है यह विचारणीय है, क्योंकि नियुक्तियों में अस्य चातीव गम्भीरार्थतां सकलसाधु-श्रावकवर्गस्य नित्योपयोगितां ही ऐसे अनेक प्रमाण उपस्थित हैं, जिनसे नियुक्तिकार पूर्वधर भद्रबाहु च विज्ञाय चतुर्दशपूर्वधरेण श्रीमद्भद्रबाहुनैतद्व्याख्यानरूपा' हैं, इस मान्यता में बाधा उत्पन्न होती है। इस सम्बन्ध में मुनिश्री आभिणिबोहियनाणं." इत्यादिप्रसिद्धग्रन्थरूपा नियुक्तिः कृता।" पुण्यविजय जी ने अत्यन्त परिश्रम द्वारा वे सब सन्दर्भ प्रस्तुत किये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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