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________________ जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय* एक अभिमत म. विनयसागर प्राकृत भारती तथा पार्श्वनाथ विद्यापीठ का यह संयुक्त प्रकाशन जैनों के बिखरे इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी सिद्ध होगी। लेखक उस स्तर के स्थापित विद्वानों में से है जिनकी लेखनी को जनसाधारण ही नहीं प्रबुद्ध पाठक भी प्रमाण मानता है। किन्तु लेखक ने अपने उस वैशिष्ट्य का लाभ उठाने का लोभ कहीं नहीं दर्शाया है, अपितु विशुद्ध और तटस्थ शोधकर्ता का दायित्व भली-भाँति निभाया है। डॉ. सागरमलजी की तुलनात्मक अध्ययन की शैली ने जहां उपलब्ध और स्थापित प्रमाणों का निराग्रह उपयोग किया है वहीं अस्थापित साक्ष्यों पर से प्राचीनता की धुंध तथा अर्वाचीनता के एकांगी रंगों की पर्तों को हटाने का प्रशंसनीय प्रयत्न भी किया है। किसी भी धर्म का एक औद्भविक काल होता है। इस काल में अवधारणाओं और सिद्धान्तों को अधिक महत्त्व दिया जाता है। इसके पश्चात् धीरे-धीरे वह संघी व्यवस्था की दिशा में अग्रसर होता है। यह नियमों, आचार संहिताओं, समाज व्यवस्थाओं के विकास का काल होता है। जब संघीय व्यवस्था स्थापित हो जाती है तब आग्रह बलवान होते जाते हैं। इसी के पश्चात् कट्टरताएं तथा एकांगी दृष्टिकोण पकने लगते हैं। संभवत: इसी कारण धर्म प्रणेताओं ने सुधार, क्रियोद्वार आदि व्यवस्थाओं को स्थान दिया था। पंथ प्रेम के ये एकांगी दृष्टिकोण साक्ष्यों के निष्पक्ष विश्लेषण की संभावनाओं को समाप्त कर देते हैं और इससे अन्य किसी को हो ना हो इतिहास को बड़ी हानि होती है। यापनीय संप्रदाय श्वेताम्बर व दिगम्बर के बीच की कड़ी होते हुए भी यह श्वेताम्बर परम्परा के अधिक निकट थी ऐसा प्रतीत होता है; श्वेताम्बर आगमों, स्त्रीमुक्ति, आदि को मानना यही इंगित करता है। मात्र नग्नत्व इस परम्परा को दिगम्बर परम्परा से जोड़ता है। इस पुस्तक में इन सभी परम्परागत मान्यताओं व साक्ष्यों को सामने रखते हुए एक व्यापक दृष्टिकोण से सम्पूर्ण जैन इतिहास को देखा गया है। अच्छा हो कि जिस प्रकार कालान्तर में दिगम्बर परम्परा ने यापनीय ग्रन्थों को मान्य कर लिया- उसी प्रकार इस प्राचीन लुप्त परम्परा को सभी अर्वाचीन जैन परम्पराएँ अपनी पूर्वज के रूप में मान लें। लेखक ने इस कृति द्वारा उस निष्पक्ष आकलन व विश्लेषण की परम्परा को पुनर्जीवित करने का महत् कार्य किया है। - इस संदर्भ में लेखक के अपने शब्द उद्धृत करना समीचीन समझता हूँ- जैन संघ में जो विभिन्न सम्प्रदायों का उद्भव और विकास हुआ, वह देश-कालगत परिस्थितियों एवं अन्य सहवर्ती परम्पराओं के प्रभाव का परिणाम है-अत: उनमें मौलिक विरोध नहीं है। श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों का उद्भव वस्तुत: उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में देश, काल और परिस्थितियों के आधार पर हुए परिवर्तनों के परिणामस्वरूप ही हुआ है। जैन समाज का यह दुर्भाग्य रहा है कि उसने ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में अपने विभिन्न सम्प्रदायों के उद्भव और विकास को समझने का प्रयास नहीं किया और यह नहीं देखा कि वे क्यों और किन परिस्थितियों में और किनके प्रभाव से विकसित हुए हैं। "मेरी यह कृति निश्चय ही दोनों परम्पराओं के आग्रही दृष्टिकोणों को झकझोरेगी और उनमें समवाय लिए एक नयी दिशा प्रदान करेगी। इस कृति में मेरे जो निष्कर्ष हैं वे यथा सम्भव साम्प्रदायिक आग्रहों से ऊपर उठकर मात्र ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर निकाले गये हैं।" आशा करता हूँ कि शोधकर्ता इस पुस्तक को आधार बना इस विषय में आगे शोध करेंगे तथा इस शैली को अन्य विषयों की शोध में भी अपनाएंगे। निदेशक-प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर । *प्रकाशक- पार्श्वनाथ विद्यापीठ एवं प्राकृत भारती अकादमी १९९५ मूल्य - रु- १०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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