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________________ जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय यापनीय सम्प्रदाय के विषय में एक आधारभूत ग्रन्थ समीक्षक डॉ० रमणलाल चि० शाह * जैन जनसाधारण ही नहीं, अपितु कितने ही जैन आचार्य एवं मुनिगण 'यापनीय' शब्द से ही परिचित नहीं हैं, तो उन्हें यापनीय सम्प्रदाय के विषय में जानकारी कहाँ से हो सकती है ? जैनों में भूतकाल में यापनीय नाम से एक महत्त्वपूर्ण सम्प्रदाय था और इस सम्प्रदाय ने जैनों के धार्मिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस सम्प्रदाय के विषय में जानना जैनों के लिए अत्यावश्यक है, क्योंकि इसने जैनों के दिगम्बर एवं श्वेताम्बर सम्प्रदायों के बीच में रहे विसंवाद को दूरकर एक सुसंवाद एवं समन्वय स्थापित करने का कार्य किया है। वापनीय सम्प्रदाय का उद्भव इन दोनों सम्प्रदायों के बीच समन्वय स्थापित करने के लिए ही हुआ और इसने भगवान महावीर के द्वारा प्रवर्तित अहिंसा और अनेकान्त की भावना को दृढ़ करने का प्रयत्न किया । यापनीय सम्प्रदाय के सम्बन्ध में अभी तक कोई सूचना देने वाली सामग्री उपलब्ध नही थी। डॉ० सागरमल जैन ने इस सम्बन्ध में अनेक ग्रंथों का अध्ययन तथा सूक्ष्म समीक्षा करने के पश्चात् तटस्थता पूर्वक यह बृहद्काय शोधग्रंथ तैयार किया जो जिज्ञासुओं की उपरोक्त इच्छा से सम्यक् प्रकार को संतुष्ट कर सकता है। डॉ० सागरमल जैन ने प्रारम्भ में यापनीय सम्प्रदाय पर एक लघुपुस्तिका ही लिखने का निर्णय लिया था, किन्तु किस प्रकार के संयोगों में चार वर्ष की परिश्रमपूर्ण साधना से यह बृहद्काय ग्रंथ लिखा गया, इसका रोचक वृत्तान्त उन्होंने स्वयं ही अपने लेखकीय निवेदन में किया है। डॉ० सागरमल जैन को श्वेताम्बर परम्परा के आगम ग्रंथों का सम्यक् अध्ययन तो था ही, परंतु यापनीय सम्प्रदाय के विषय में जब कुछ लिखना हो तो दोनों ही सम्प्रदायों के आधारभूत ग्रंथों का अध्ययन आवश्यक होता है। अतः उन्होंने दोनों परम्परा के ग्रन्थों का पुनः गहन अभ्यास किया जिससे उनमें लेखन कार्य के लिए योग्य समझ और अधिकार प्राप्त हुआ। ऐसे संवेदनशील विषय पर लिखने के लिए लेखक को अपने साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह और अभिनिवेश को छोड़ना पड़ता है और तभी ऐतिहासिक तथ्यों के साथ योग्य न्याय किया जा सकता है। लेखक ने इन बातों को दृष्टि में रखकर तटस्थता पूर्वक इस ग्रन्थ का लेखन कार्य किया है इसके लिए वे अभिनंदन के अधिकारी हैं। लेखक ने इस ग्रंथ को चार मुख्य अध्यायों में विभक्त किया है। प्रथम अध्ययन में यापनीय शब्द का अर्थ विकास तथा यापनीय संघ के उत्पत्ति की चर्चा की गयी है। दूसरे अध्याय में यापनीय संघ में उत्पन्न हुए विभिन्न गणों एवं अन्वयों के विकास का विवेचन किया गया है। तीसरे अध्याय में यापनीय साहित्य का सविस्तार विवेचन किया गया है और चतुर्थ अध्ययन में यापनीय संघ की विशिष्ट मान्यताओं का यथार्थ परिचय दिया गया है। यापनीय संघ ईसा की दूसरी उत्तरी शताब्दी से लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी तक लगभग १२ सौ वर्षों की सुदीर्घ अवधि में विद्यमान रहा है। इतने सुदीर्घ काल में इस सम्प्रदाय का अस्तित्व बना रहा इसका कारण इसकी उदार एवं समन्वयवादी दृष्टि ही हो सकती है। इस संघ ने श्वेताम्बर एवं दिगम्बर सम्प्रदायों के बीच में एक योजक कड़ी का कार्य किया है। श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों के बीच मतभेद के मुख्य विषय मुनि का सचेल या अचेल होना, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थ एवं अन्य तैर्थिक की मुक्ति तथा केवली के कवलाहार से सम्बन्धित रहे हैं। यापनीय सम्प्रदाय ने दिगम्बर परम्परा के अनुसार मुनि के अचेलकत्व को मान्य रखा तो दूसरी ओर श्वेताम्बरों की मान्यता के अनुरूप स्त्रीमुक्ति, गृहस्थ एवं अन्यतैर्थिक की मुक्ति एवं केवली के कवलाहार को मान्यता प्रदान की। यही नहीं, उसने श्वेताम्बर सम्प्रदाय में मान्य आगमों को भी स्वीकृति प्रदान की और बताया कि उनमें जो वस्त्र पात्र के उल्लेख हैं वे मात्र आपवादिक स्थिति के सूचक है। उसने यह कार्य दोनों पक्षों को मान्यता देने के व्यावहारिक उद्देश्य से नहीं, अपितु प्रत्येक विषय की तर्कयुक्त गहन समीक्षा करके ही किया है और उन्हें जो योग्य लगा उसे समर्थन दिया । यापनीय साहित्य में इन महत्त्वपूर्ण विषयों पर गम्भीरता से विचार किया गया है। डॉ० सागरमल जैन ने भी प्रस्तुत कृति में इन विषयों पर प्रामाणिकता से विचार किया है। दिगम्बर परम्परा में स्पष्टरूप से मान्य ग्रंथों के अतिरिक्त शाकटायन, प्रभाचन्द्र, विमलसूरि, सिद्धसेन, उमास्वाति आदि के ग्रंथों की भी लेखक ने तलस्पर्शी मीमांसा करके यह स्थापित किया कि कौन सा साहित्य यापनीय संघ का माना जा सकता है और कौनसा यापनीय संघ का नहीं माना जा सकता, इसके विषय में लेखक ने निम्न कसौटी प्रस्तुत की है। १. क्या उस ग्रन्थ में अचेलता पर बल देते हुए भी स्त्रीमुक्ति और केवलीभक्ति के निर्देश उपलब्ध हैं ? २. क्या वह ग्रन्थ स्त्री के छेदोपस्थापनीय चारित्र अर्थात् महाव्रतारोपण का समर्थन करता है ? ३. क्या उस ग्रन्थ में गृहस्थ अथवा अन्य परंपरा के भिक्षु आदि के मुक्तिगमन का उल्लेख है ? ४. क्या उस ग्रन्थ में श्वेताम्बर परंपरा में मान्य अंगादि आगमों के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है और अपने मत के समर्थन में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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